mrtakon-bhoj by Munshi Premchand
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सेठ रामनाथ ने रोग शय्या पर पड़े-पड़े निराशा-पूर्ण दृष्टि से अपनी स्त्री सुशीला की ओर देखकर कहा- मैं बड़ा अभागा हूं शीला। मेरे साथ तुम्हें सदैव ही दुःख भोगना पड़ा। जब घर में कुछ न था, तो दिन-रात गृहस्थी के धंधों और बच्चों के लिए मरती रहती थी। जब जरा कुछ सँभला और तुम्हारे आराम करने के दिन आये, तो यों छोड़े चला जा रहा हूँ। आज तक मुझे आशा थी, पर आज वह आशा टूट गयी। देखो शीला, रोओ मत। संसार में सभी मरते हैं, कोई दो साल आगे, कोई दो साल पीछे। अब गृहस्थी का भार तुम्हारे ऊपर है। मैंने रुपये नहीं छोड़े, लेकिन जो कुछ है, उससे तुम्हारा जीवन किसी तरह कट जाएगा… यह राजा क्यों रो रहा है?

सुशीला ने आंसू पोंछकर कहा-जिद्दी हो गया है, और क्या। आज सबेरे से रट लगाए हुए हैं कि मैं मोटर -लूंगा। 5 रुपये से कम में न आएगी मोटर? सेठजी को इधर कुछ दिनों से दोनों बालकों पर बहुत स्नेह हो गया था। बोले- तो मंगा दो न एक। बेचारा कब से रो रहा है। क्या-क्या अरमान दिल में थे। सब धूल में मिल गए। रानी के लिए विलायती गुड़िया भी मँगा दो। दूसरों के खिलौने देख तरसती रहती है। जिस धन को प्राणों से भी प्रिय समझा, वह अंत में डाक्टरों के काम आया। बच्चे मुझे क्या याद करेंगे कि बाप था। अभागे बाप ने तो धन को लड़के-लड़की से प्रिय समझा। कभी पैसे की चीज भी लाकर नहीं दी।

अंतिम समय अब संसार की असारता कठोर सत्य बनकर आँखों के सामने खड़ी हो जाती है तो जो कुछ न किया, उसका खेद और जो कुछ किया, उस पर पश्चाताप, मन को उदार और निष्कपट बना देता है।

सुशीला ने राजा को बुलाया और उसे छाती से लगाकर रोने लगी। वह मातृ- स्त्रोत, पति की कृपणता से भीतर-ही-भीतर तड़प कर रह जाता था, इस समय जैसे खोल उठा। लेकिन मोटर के लिए रुपये कहाँ थे?

सेठजी ने पूछा- मोटर लोगे बेटा, अपनी अम्मा से रुपये लेकर भैया के साथ चले जाओ। खूब अच्छी मोटर लाना।

राजा ने माता के आंसू और पिता का यह स्नेह देखा, तो उसका बाल- हठ जैसे पिघल गया। बोला- अभी नहीं लूंगा।

सेठ जी ने पूछा- क्यों?

‘जब आप अच्छे हो जाएँगे तब लूंगा।’

सेठजी फूट-फूटकर रोने लगे।

तीसरे दिन सेठ रामनाथ का देहांत हो गया।

धनी के जीने से दुःख बहुतों को होता है, सुख थोड़ों को। उनके मरने से दुःख थोड़ों को है, सुख बहुतों को। महा ब्राह्मणों की मंडली अलग सुखी है, पंडितजा अलग खुश हैं, और शायद बिरादरी के लोग भी प्रसन्न हैं, इसलिए कि एक बराबर का आदमी कम हुआ। दिल से एक काँटा दूर हुआ। और पट्टीदारों का तो पूछना ही क्या? अब वह पुरानी कसर निकालेंगे। हृदय को शीतल करने का ऐसा अवसर बहुत दिनों के बाद मिला है।

आज पाँचवाँ दिन है। यह विशाल भवन सूना पड़ा है। लड़के न रोते हैं, न हँसते हैं। मन मारे माँ के पास बैठे हैं और विधवा भविष्य की अपार चिंताओं के भार से दबी हुई निर्जीव-सी पड़ी है। घर में जो रुपये बच रहे थे, वे दाह-क्रिया की भेंट हो गए और अभी सारे संस्कार बाकी पड़े हैं। भगवान, कैसे बेड़ा पार लगेगा।

किसी ने द्वार पर आवाज दी। महरी ने आकर सेठ धनीराम के आने की सूचना दी। दोनों बालक बाहर दौड़े। सुशीला का मन भी एक क्षण के लिए हरा हो गया। सेठ धनीराम बिरादरी के सरपंच थे। अबला का क्षुब्ध हृदय सेठजी की इस कृपा से पुलकित हो उठा। आखिर बिरादरी के मुखिया हैं। ये लोग अनाथों की खोज-खबर न लें, तो कौन ले। धन्य हैं ये पुण्यात्मा लोग, जो मुसीबत में दीनों की रक्षा करते हैं।

यह सोचती हुई सुशीला घूंघट निकाले बरोठे में आ खड़ी हो गई। देखा तो धनीरामजी के अतिरिक्त और भी सज्जन खड़े हैं।

धनीराम बोले- बहू जी, भाई रामनाथ की अकाल-मृत्यु से हम लोगों को जो दुःख हुआ है, वह हमारा दिल ही जानता है। अभी उनकी उम्र ही क्या थी, लेकिन भगवान की इच्छा। अब तो हमारा यही धर्म है कि ईश्वर पर भरोसा रखें और आगे के लिए कोई राह निकालें। काम ऐसा करना चाहिए कि घर की आबरू भी बची रहे और भाईजी की आत्मा संतुष्ट भी हो।

कुबेरदास ने सुशीला को कनखियों से देखते हुए कहा- मर्यादा बड़ी चीज है। उसकी रक्षा करना हमारा धर्म है। लेकिन कमली के बाहर पाँव निकालना भी तो उचित नहीं। कितने रुपये हैं तेरे पास, बहू? क्या कहा, कुछ नहीं?

सुशीला-घर में रुपये कहाँ हैं, सेठजी! जो थोड़े-बहुत थे, वह बीमारी में उठ गये।

धनीराम- तो यह नयी समस्या खड़ी हो गयी। ऐसी दशा में हमें क्या करना चाहिए, कुबेरदास जी?

कुबेरदास- जैसे भी हो, भोज तो करना ही पड़ेगा। हां, अपनी सामर्थ्य देखकर काम करना चाहिए। मैं कर्जा लेने को न कहूंगा।हां घर में जितने रुपयों का प्रबंध हो सके उसमें कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए। मृत जीव के साथ भी तो हमारा कुछ कर्त्तव्य है। अब तो वह फिर कभी न आएगा, उससे सदैव के लिए नाता टूट रहा है। इसलिए सब-कुछ हैसियत के हिसाब से होना चाहिए। ब्राह्मणों को तो देना ही पड़ेगा कि जिससे मर्यादा का निर्वाह हो।

धनीराम- तो क्या तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, बहू जी दो-चार हजार भी नहीं।

सुशीला- मैं आपसे सत्य कहती हूं, मेरे पास कुछ नहीं है। ऐसे समय में झूठ न बोलूंगी ?

धनीराम ने कुबेरदास की ओर अर्ध-विश्वास से देखकर कहा – तब तो यह मकान बेचना पड़ेगा।

कुबेरदास – इसके सिवा और क्या हो सकता है। नाक कटाना तो अच्छा नहीं। रामनाथ का कितना नाम था, बिरादरी के स्तंभ थे। यही इस समय एक उपाय है। 20 हजार मेरे आते हैं। सूद-बट्टा लगाकर एक प्रकार से कोई 25 हजार हो जाएंगे। बाकी भोज में खर्च हो जाएंगे। अगर कुछ बच रहा तो बाल-बच्चों के काम आएगा।

धनीराम- आपके यहाँ कितने पर बंधक रखा था?

कुबेर- 20 हजार पर। रुपये सैकड़े सूद।