maangee gaee ghadee by Munshi Premchand
maangee gaee ghadee by Munshi Premchand

मुझे ससुराल में तीन दिन लग गए। चौथे दिन पत्नी के साथ चला। जी में डर रहा था कि कही दानू ने कोई आदमी न भेजा हो तो कहाँ उतरूंगा, कहाँ को जाऊंगा। आज चौथा दिन है। उन्हें इतनी क्या गरज पड़ी है कि बार-बार स्टेशन पर अपना आदमी भेजें। गाड़ी में सवार होते समय इरादा हुआ कि दानू को तार से अपने आने की सूचना दे दूँ। लेकिन बारह आने का खर्च था, इससे हिचक गया।

मगर जब गाड़ी बनारस पहुंची, तो देखता हूँ कि दानू बाबू स्वयं कोट-हैट लगाए, दो कुलियों के साथ खड़े हैं। मुझे देखते ही दौड़े और बोले-’ ससुराल की रोटियाँ बड़ी प्यारी लग रही थीं क्या? तीन दिन से रोज दौड़ लगा रहा हूं, जुर्माना देना पड़ेगा।’

देवीजी सिर से पाँव तक चादर ओढ़े गाड़ी से उतरकर प्लेटफार्म पर खड़ी हो गई थी। मैं चाहता था, जल्दी से गाड़ी में बैठकर यहाँ से चल दूँ। घड़ी उनकी कलाई पर बँधी हुई थी। मुझे डर लग रहा था कि कहीं उन्होंने हाथ बाहर निकाला और दानू की निगाह घड़ी पर गई, तो बड़ी झेंप होगी। मगर तकदीर का लिखा कौन टाल सकता है। मैं देवीजी से दानू बाबू की सज्जनता का बखान खूब कर चुका था। अब जो दानू उसके समीप आकर संदूक उठाने लगे, तो देवीजी ने दोनों हाथों को जोड़कर उन्हें नमस्कार किया। दानू वे उनकी कलाई पर बंधी घड़ी देख ली। उस वक्त तो क्या बोलते, लेकिन ज्यों ही देवीजी को एक तांगे पर बिठाकर दोनों दूसरे ताँगे पर बैठकर चले, दानू ने कहा- क्या घड़ी देवीजी ने छिपा दी थी?

मैंने शर्माते हुए कहा- नहीं यार, मैं ही दे आया था। दे क्या आया था, उन्होंने मुझसे छीन ली थी।’

दानू ने मेरा तिरस्कार करते हुए कहा- ‘तो मुझसे झूठ क्यों बोले?’

‘फिर क्या करता?’

‘अगर तुमने साफ-साफ कह दिया होता, तो शायद मैं इतना कमीना भी नहीं हूं कि तुमसे उसका तावान वसूल करता, लेकिन खैर, ईश्वर का कोई काम मसलहत से खाली नहीं होता। तुम्हें कुछ दिनों ऐसी तपस्या की जरूरत थी।’

‘मकान कहां ठीक किया है।’

‘वहीं तो चल रहा हूं।’

‘क्या तुम्हारे घर के पास ही है? तब तो बड़ा मजा आएगा।’

‘हां? मेरे घर से मिला हुआ है, मगर बहुत सस्ता है?’

दानू बाबू के द्वार पर ताँगे रुके। आदमियों ने दौड़कर असबाब उतारना शुरू किया। एक क्षण में दानू बाबू की देवीजी घर में से निकलकर तांगे के पास आयीं और पत्नी जी को साथ ले गयीं। मालूम होता था, यह सारी बातें पहले ही से सोची थीं।’

मैंने कहा- ‘तो यह कहो कि हम तुम्हारे बिना-बुलाए मेहमान हैं।’

‘अब तुम अपनी मरजी को कोई मकान ढूंढ लेना। दस-पांच दिन तो यहाँ रहो।’

लेकिन मुझे यह जबरदस्ती की मेहमानी अच्छी अच्छी न लगी। मैंने तीसरे ही दिन एक मकान तलाश कर लिया। विदा होते समय दानू ने 100 रु. लाकर मेरे सामने रख दिए और कहा- ‘यह तुम्हारी अमानत है। लेते आओ!’

मैंने विस्मय से पूछा- ‘मेरी अमानत कैसी?’

दान, ने कहा–15 रु. के हिसाब से 6 महीने के 90 रु. हुए और 10 रु. सूद।’

मुझे दानू बाबू की सज्जनता बोझ के समान लगी। बोला- तो तुम घड़ी ले लेना चाहते हो?

‘फिर घड़ी का जिक्र किया तुमने। उसका नाम मत लो।’

‘तुम मुझे चारों ओर से दबाना चाहते हो?’

‘हां, दबाना चाहता हूं। तुम्हें आदमी बना देना चाहता हैं, नहीं तो उम्र भर यहाँ होटल की रोटियाँ तोड़ते और तुम्हारी देवीजी वहाँ बैठी तुम्हारे नाम को रोती। कैसी शिक्षा दी इसका एहसान तो न मानोगे।’

‘यों कहो, तो आप मेरे गुरु बने हुए थे?’

‘जी हां, ऐसे गुरु की तुम्हें जरूरत थी।’

मुझे विवश होकर घड़ी का जिक्र करना पड़ा। डरते-डरते बोला-

‘तो भाई घड़ी’

‘ फिर तुमने घड़ी का नाम लिया! ‘

‘ तुम खुद मुझे मजबूर कर रहे हो।’

‘वह मेरी ओर से भावज को उपहार है।’

‘और ये जो 100 रु. मुझे उपहार मिले हैं।’

‘जी हाँ? यह इम्तहान में पास होने का इनाम है।’

‘तब तो डबल उपहार मिले हैं।’

‘तुम्हारी तकदीर ही अच्छी है, क्या करूं।’

मैं रुपये यों न लेता था, पर दानू बाबू मेरी जेब में डाल दिये। लेने पड़े। इन्हें मैंने सेविंग बैंक में जमा करा दिया। 10 रुपये महीने पर मकान लिया था। 30 रु. महीने खर्च करता था। 5 रुपये बचने लगे। अब मुझे मालूम हुआ कि दानू बाबू ने मुझे छह महीना, तक यह तपस्या न कराई होती, तो सचमुच मैं न-जाने कितने दिनों तक देवीजी को मैके में पड़ा रहने देता। उसी तपस्या की बरकत थी कि आराम से जिंदगी कट रही थी और ऊपर से कुछ-न-कुछ जमा होता जाता था। मगर घड़ी का किस्सा मैंने आज तक देवीजी से नहीं कहा। पाँचवें महीने में मेरी तरक्की का नम्बर आया। तरक्की का परवाना मिला। मैं सोचा रहा था कि देखूँ अबकी दूसरी मद वाले 15 रु. मिलते हैं था नहीं।1 पहली तारीख को वेतन मिला, यही 45 रु.। मैं एक क्षण खड़ा रहा कि शायद बड़े बाबू दूसरी मद वाले रुपये भी दें, जब और लोग अपने-अपने वेतन लेकर चले गये, तो बड़े बाबू बोले- क्या अभी लालच घेरे हुए है? अब और कुछ न मिलेगा।

मैंने चकित होकर पूछा- ‘जी नहीं, इस खयाल से नहीं खड़ा हूं । साहब ने इतने दिनों तक परवरिश की, यह क्या थोड़ा है। मगर कम-से-कम इतना तो बता दीजिए कि किस मद से वह रुपया दिया जाता था?’

बड़े बाबू-’पूछकर क्या करोगे?’

‘कुछ वहीं, यों ही जानने को जी चाहता है।’

‘जाकर दानू बाबू से पूछो।’

‘दफ्तर का हाल दाबू बाबू क्या जान सकते हैं।’

‘वहीं, यह हाल वही जानते हैं।’

मैंने बाहर आकर एक ताँगा किया और दानू के पास पहुँचा। आज पूरे दस महीने बाद मैंने ताँगा किराये पर किया था। इस रहस्य को जानने के लिए मेरा दम घुट रहा था। दिल में तय कर लिया था कि अगर बच्चा ने यह षड्यंत्र न रचा होगा, तो बुरी तरह खबर लूंगा। आप बगीचे में टहल रहे थे। मुझे देखा तो घबराकर बोले- कुशल तो है, कहां से भागे आते हो?

मैंने कृत्रिम क्रोध दिखाकर कहा- ‘मेरे यहाँ तो कुशल है, लेकिन तुम्हारी कुशल नहीं।’

‘ क्यों भाई, क्या अपराध हुआ है?’

‘आप बतलाइए कि पाँच महीने तक मुझे जो 15 रु. वेतन के ऊपर से मिलते थे, वह कहाँ से आते थे?’

‘तुमने बड़े बाबू से नहीं पूछा? तुम्हारे दफ्तर का हाल मैं क्या जानूं?’

‘मैं आजकल दानू से बेतकल्लुफ़ हो गया था। बोला- देखो दानू मुझसे उड़ोगे, तो अच्छा न होगा। क्यों नाहक मेरे हाथों पिटोगे ।’

‘पीटना चाहो, तो पीट लो भाई, सैकड़ों ही बार पीटा है, एक बार और सही। बारजे पर से जो धक्का दिया था, उसका निशान बना हुआ है, यह देखो।’

‘तुम टाल रहे हो और मेरा दम घुट रहा है। सच बताओ क्या बात थी?’

‘बात-बात कुछ नहीं थी! मैं जानता था कितनी भी किफायत करोगे, 30 रु. में गुजर न होगा। और न सही, दोनों वक्त रोटियाँ तो हों। बस, इतनी बात है। अब इसके लिए जो चाहो, दंड दो।’

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