maangee gaee ghadee by Munshi Premchand
maangee gaee ghadee by Munshi Premchand

जरा सुन लीजिए कि 30 रु. में कैसे गुजर करता था- 20 रु. तो होटल को देता था! 5 रु. नाश्ते का खर्च था और बाकी 5 रु. में पान, सिगरेट, कपड़े और सब कुछ। मैं कौन राजसी ठाठ में रहता था, ऐसी कौन-सी फिजूलखर्ची करता था कि अब खर्चे में कमी करता। मगर दानू बाबू का कर्ज तो चुकाना ही था। रो कर चुकाता या हंसकर। एक बार जी में आया कि ससुराल में जाकर घड़ी उठा लाऊँ, लेकिन दानू बाबू से कह चुका था कि घड़ी खो गई। अब घड़ी लेकर जाऊंगा, तो वह मुझे झूठा और लबड़िया समझेंगे। मगर क्या मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने समझा था कि घड़ी खो गई, ससुराल गया तो उसका पता चल गया। मेरी बीवी ने उड़ा दी थी। हां, यह चाल अच्छी थी। लेकिन देवीजी से क्या बहाना बनाता। उन्हें कितना दुःख होगा। घड़ी पाकर कितनी खुश हो गई थी! अब जाकर घड़ी छीन लाऊं, तो शायद फिर मेरी सूरत भी न देखे। हाँ यह हो सकता था कि दानू बाबू के पास जाकर रोता। मुझे विश्वास था कि आज क्रोध में उन्होंने चाहे कितनी ही निष्ठुरता दिखाई हो, लेकिन दो-चार दिन के बाद जब उनका क्रोध शांत हो जाए और मैं जाकर उनके सामने रोने लगूं, तो उन्हें अवश्य दया आ जाएगी। बचपन की मित्रता हृदय से नहीं निकल सकती। लेकिन मैं इतना आत्मगौरव शून्य न था और न हो सकता था।

मैं दूसरे ही दिन एक सस्ते होटल में चला गया। यहाँ 12 रु. में ही प्रबंध हो गया। सुबह को दूध और चाय से नाश्ता करता था। अब छटाँक भर चनों पर बसर होने लगी। 12 रु. तो यों बचे। पान, सिगरेट आदि की मद में 3 रु. और कम किए। और महीने के अंत में साफ 15 रु. बचा लिये। यह विकट तपस्या थी। इन्द्रियों का निर्दय दमन ही नहीं, पूरा संन्यास था। पर जब मैंने ये 15 रु. ले जाकर दानू बाबू के हाथ में रखे तो ऐसा जान पड़ा, मानों मेरा मस्तक ऊंचा हो गया है। ऐसे गौरवपूर्ण आनंद का अनुभव मुझे जीवन में कभी न हुआ था। दानू बाबू ने सहृदयता के स्वर में कहा- बचाए या किसी से माँग लाए?

‘बचाया है भाई, माँगता किससे!’

‘कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’

‘कुछ नहीं। अगर तकलीफ हुई भी, तो इस वक्त भूल गई।’

‘सुबह को तो अब भी खाली रहते हो? आमदनी कुछ और बढ़ाने की फिक्र क्यों नहीं करते?’

‘चाहता तो हूँ कि कोई काम मिल जाए तो कर लूँ, पर मिलता ही नहीं।’ यहाँ से लौटा, तो मुझे अपने हृदय में एक नवीन बल, एक विचित्र स्फूर्ति का अनुभव हो रहा था। अब तक जिन इच्छाओं को रोकना कष्टप्रद जान पड़ता था, अब उनकी ओर ध्यान भी न जाता था। जिस पान की दुकान को देखकर चित्त अधीर हो जाता था, उसके सामने से मैं सिर उठाए निकल जाता था, मानो अब मैं उस सतह से कुछ ऊँचा उठ गया। हां सिगरेट, चाय और चाट अब इसमें से किसी पर भी चित्त आकर्षित न -होता था। प्रातःकाल भीगे हुए चने, दोनों वक्त रोटी और दाल। बस, इसके सिवा मेरे लिए और सभी चीजें त्याज्य थी, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मुझे जीवन से विशेष रुचि हो गई थी। मैं जिंदगी से बेजार, मौत के मुँह का शिकार बनने का इच्छुक न था। मुझे ऐसा आभास होता था कि मैं जीवन में कुछ कर सकता हूँ।

एक मित्र ने एक दिन मुझसे पान आने के लिए बड़ा आग्रह किया, पर मैंने न खाया। तब वह बोले- तुमने तो यार, पान छोड़कर कमाल कर दिया। मैं अनुमान ही न कर सकता था कि तुम पान छोड़ दोगे। हमें भी कोई तरकीब बताओ। मैंने कहा- इसकी तरकीब यही है कि पान न खाओ।

‘जी तो नहीं मानता।’

‘आप ही मान जाएगा।’

‘बिना सिगरेट पिए तो मेरा पेट फूलने लगता है।’

‘फूलने दो, आप पिचक जाएगा।’

‘अच्छा तो लो, आज मैंने पान-सिगरेट छोड़ा।’

‘तुम क्या छोड़ोगे? तुम नहीं छोड़ सकते।’

मैंने उनको उत्तेजित करने के लिए यह शंका की थी। इसका यथेष्ट प्रभाव पड़ा। वह दृढ़ता से बोले- ‘तुम यदि छोड़ सकते हो, तो मैं भी छोड़ सकता हूँ। मैं तुमसे किसी बात में कम नहीं हूँ।’

‘अच्छी बात है, देखूंगा।’

‘देख लेना।’

मैंने उन्हें आज तक पान या सिगरेट का सेवन करते नहीं देखा।

पांचवें महीने में जब मैं रुपये लेकर दानू बाबू के पास गया, तो सच मानो वह टूटकर मेरे गले से लिपट गये। बोले- ‘हो तो यार, तुम धुन के पक्के। मगर सच कहना, मुझे मन में कोसते तो नहीं?’

मैंने हंसकर कहा- ‘अब तो नहीं कोसता, मगर पहले जरूर कोसता था।’ ‘अब क्यों इतनी कृपा करने लगे?’

इसलिए कि मेरी जैसी स्थिति के आदमी को जिस तरह रहना चाहिए, वह तुमने सिखा दिया। मेरी आमदनी में आधा मेरी स्त्री का है। पर अब तक मैं उसका हिस्सा भी हड़प कर जाता था। अब मैं इस योग्य हो रहा हूँ कि उसका हिस्सा उसे दे दूँ या उसको अपने साथ रखूं। तुमने मुझे बहुत अच्छा पाठ दे दिया?’

‘अगर तुम्हारी आमदनी बढ़ जाए तो उसी तरह रहने लगोगे!’

‘नहीं, कदापि नहीं। अपनी स्त्री को बुला लूंगा।’

‘अच्छा, तो खुश हो जाओ,; तुम्हारी तरक्की हो गई है।’

‘मैंने अविश्वास के भाव से कहा- ‘मेरी तरक्की अभी क्या होगी? अभी मुझसे पहले के लोग पड़े नाक रगड़ रहे हैं?’

‘कहता हूँ मान जाओ। मुझसे तुम्हारे बड़े बाबू कहते थे।’

मुझे अब भी विश्वास न आया। पर मारे कौतूहल के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। उधर दानू बाबू अपने घर गये, इधर में बड़े बाबू के घर पहुंचा। बड़े बाबू बैठे अपनी बकरी दुह रहे थे।? मुझे देखा, तो झेंपते हुए बोले- ‘क्या करें भाई, आज दूध वाला नहीं आया, इसीलिए यह बला गले पड़ी, चलो बैठो।’

मैं कमरे में जा बैठा। बाबूजी भी कोई आधा घंटे के बाद हाथ में डुगडुगी लिये निकले और इधर-उधर की बातें करते रहे। आखिर मुझसे न रहा गया, बोला – ‘मैंने सुना है, मेरी तरक्की हो गई है।’

बड़े बाबू ने प्रसन्नमुख होकर कहा- ‘हाँ भई, हुई तो है। तुमसे दानू बाबू ने कहा होगा।’

‘जी हाँ अभी कहा है। मगर मेरा नंबर तो अभी नहीं आया, तरक्की कैसे हुई?’

‘यह न पूछो, अफसरों की निगाह चाहिए, नम्बर-सम्बर कौन देखता है।’ लेकिन आखिर मुझे किसकी जगह मिली? अभी कोई तरक्की का मौका भी तो नहीं।’

‘कह दिया, भाई अफसर लोग सब कुछ कर सकते हैं। साहब एक दूसरी मद से तुम्हें 15 रु. महीना देना चाहते हैं। दानू बाबू ने शायद साहब से कहा- सुना होगा।’

किसी दूसरे का हक मारकर तो मुझे ये रुपये नहीं दिये जा रहे हैं?’ नहीं यह बात नहीं। मैं खुद इसे मंजूर न करता।’

महीना गुजरा, मुझे 45 रु. मिले। मगर रजिस्टर में मेरे नाम के सामने वही 30 रु. लिखे थे। बड़े बाबू ने अकेले बुलाकर मुझे रुपये दिये और ताकीद कर दी कि किसी से कहना मत, वरना दफ्तर में बावेला मच जाएगा। साहब का हुक्म है कि यह बात गुप्त रखी जाए।’

मुझे संतोष हो गया कि किसी सहकारी का गला घोंट कर मुझे रुपये नहीं दिए गए। खुश-खुश रुपये लिये सीधा दानू बाबू के पास पहुँचा। वह मेरी बांछे खिली देखकर बोले- ‘मार लाये तरक्की, क्यों?’

जी हां, वाट, रुपये तो 15 मिले, लेकिन तरक्की नहीं हुई, किसी और मद से दिये गए हैं।’

‘तुम्हें रुपये से मतलब है, चाहे किसी मद से मिलें। तो अब बीवी को लेने जाओगे न?’

‘नहीं, अभी नहीं।’

‘तुमने तो कहा था, आमदनी बढ़ जाएगी, तो बीवी को लाऊंगा, अब क्या हो गया?’

‘मैं सोचता हूं पहले रुपये पटा दूँ। अब से 30 रुपये महीने देता जाऊंगा, साल भर में सारे रुपये पट जाएंगे। तब मुक्त हो जाऊंगा।’

दानू, बाबू की आँखें सजल हो गईं। मुझे आज अनुभव हुआ कि उनकी इस कठोर आकृति के नीचे कितना कोमल हृदय छिपा हुआ था। बोले- ‘नहीं, अबकी मुझे कुछ मत दो। रेल का खर्च पड़ेगा, वह कहाँ से दोगे! जाकर अपनी स्त्री को ले आओ।’

मैंने दुविधा में पड़कर कहा- ‘यार, अभी न मजबूर करो। शायद किस्त न अदा कर सकूँ तो?’

दानू बाबू ने मेरा हाथ पकड़कर कहा- तो कोई हर्ज नहीं। सही बात यह है कि मैं अपनी घड़ी के दाम पा चुका था। मैंने तो उसके 25 रुपये ही दिये थे। उस पर तीन साल काम ले चुका था। मुझे तुमसे कुछ न लेना चाहिए था। अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हूँ। मेरी आँखें भी भर आयीं। जी में तो आया, घड़ी का सारा रहस्य कह सुनाऊं, लेकिन जब्त कर गया। गदगद कंठ से बोला- नहीं दानू बाबू मुझे रुपये अदा कर लेने दो। आखिर तुम उस घड़ी को चार-पाँच सौ में बेच लेते या नहीं? मेरे कारण तुम्हें इतना नुकसान क्यों हो?

‘भाई, अब घड़ी की चर्चा न करो। यह बताओ, कब जाओगे?’

‘अरे, तो पहले रहने का तो ठीक कर लूं।’

‘तुम जाओ, मैं मकान का प्रबंध कर रखूंगा।’

‘मगर मैं 5 रु. से ज्यादा किराया न दे सकूँगा। शहर से जरा हटकर मकान सस्ता मिल जाएगा।’

‘अच्छी बात है, मैं सब ठीक करके रखूंगा। किस गाड़ी से लौटोगे?’

‘यह अभी क्या मालूम। विदाई का मामला है, साइत बने या न बने, या लोग एकाध दिन रोक ही लें। तुम इस झंझट में क्यों पड़ोगे? मैं दो-चार दिन में मकान ठीक करके चला जाऊंगा।’

‘जी नहीं, आप आज जाइए और कल आए।’

‘तो उतरूंगा कहाँ?’

‘मैं मकान ठीक कर लूंगा। मेरा आदमी तुम्हें स्टेशन पर मिलेगा।’

मैंने बहुत हीले-हवाले किए, पर उस भले आदमी ने एक न सुनी। उसी दिन मुझे ससुराल जाना पड़ा।