Kusum by Munshi Premchand
Kusum by Munshi Premchand

साल-भर की बात है। एक दिन शाम को हवा खाने जा रहा था कि महाशय नवीन से मुलाकात हो गई। मेरे पुराने दोस्त हैं। बड़े बेतकल्लुफ और मनचले। आगरे में मकान है, अच्छे कवि हैं। उनके कवि-समाज में कई बार शरीक हो चुका हूँ। ऐसा कविता का उपासक मैंने नहीं देखा। पेशा तो वकालत है, पर डूबे रहते हैं काव्य-चिंतन में। आदमी जहीन हैं, मुकदमा सामने आया और उसकी तह तक पहुंच गए, इसलिए कभी-कभी मुकदमे मिल जाते हैं लेकिन कचहरी के बाहर अदालत या मुकदमे की चर्चा उनके लिए निषिद्ध है। अदालत की चारदीवारी के अंदर चार-पाँच घण्टे वह वकील होते हैं। चारदीवारी के बाहर निकलते ही कवि हैं-सिर से पाँव तक। जब देखिए, कवि-मण्डल जमा है, कवि-चर्चा हो रही है, रचनाएँ सुन रहे हैं, मस्त हो-होकर झूम रहे हैं, और अपनी रचना सुनाते समय तो उन पर एक तल्लीनता-सी छा जाती है। कण्ठ-स्वर भी इतना मधुर है कि उनके पद बाण की तरह सीधे कलेजे में उतर जाते हैं। अध्यात्म में माधुर्य की सृष्टि करना, निर्गुण में सगुण की बहार दिखाना उनकी रचनाओं की विशेषता है। वह जब लखनऊ आते हैं, मुझे पहले सूचना दे दिया करते हैं। आज उन्हें अनायास लखनऊ में देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। पूछा- ‘आप यहाँ कैसे! कुशल तो हैं? मुझे आने की खबर तक न दी।’

बोले- ‘भाईजान, एक जंजाल में फंस गया हूँ। आपको सूचित करने का समय न था। फिर आपके घर को अपना घर समझता हूँ। इस तकल्लुफ़ की क्या जरूरत है कि आप मेरे लिए कोई विशेष प्रबंध करें। मैं एक जरूरी मामले में आपको कष्ट देने आया हूँ। इस वक्त की सैर को स्थगित कीजिए और चलकर मेरी विपत्ति- कथा सुनिए।

मैंने घबराकर कहा- ‘आपने तो मुझे चिन्ता में डाल दिया। आप और विपत्ति- कथा! मेरे तो प्राण सूखे जाते हैं।’

‘घर चलिए, चित्त शान्त हो तो सुनाऊँ।’

‘बाल बच्चे तो अच्छी तरह हैं?’

‘हां, सब अच्छी तरह हैं। वैसी कोई बात नहीं है।’

‘तो चलिए, रेस्तरां में कुछ जलपान तो कर लीजिए।’

‘नहीं भाई, इस वक्त मुझे जलपान नहीं सूझता।’

हम दोनों घर की ओर चले।

घर पहुंचकर उनका हाथ-मुँह धुलाया, शरबत पिलाया। इलायची-पान खाकर उन्होंने अपनी विपत्ति-कथा सुनानी शुरू की-

‘कुसुम के विवाह में तो आप गए ही थे। उसके पहले भी आपने उसे देखा था। मेरा विचार है कि किसी सरल प्रकृति के युवक को आकर्षित करने के लिए जिन गुणों की जरूरत है, वे सब उसमें मौजूद हैं। आपका क्या खयाल है?’

मैंने तत्परता से कहा- ‘मैं आपसे कहीं ज्यादा कुसुम का प्रशंसक हूँ। ऐसी लज्जाशील, सुघड़, सलीकेदार और विनोदिनी बालिका मैंने दूसरी नहीं देखी।’

महाशय नवीन ने करुण स्वर में कहा- ‘वही कुसुम आज अपने पति के निर्दय व्यवहार के कारण रो-रोकर प्राण दे रही है। उसका गौना हुए एक साल हो रहा है। इस बीच में वह तीन बार ससुराल गई, पर उसका पति उससे बोलता ही नहीं। उसकी सूरत से बेजार है। मैंने बहुत चाहा कि उसे बुलाकर दोनों में सुलह सफाई करा दूँ मगर न आता है न मेरे पत्रों का उत्तर देता है। न-जाने क्या गाँठ पड़ गई है कि उसने इस बेदर्दी से आँखें फेर लीं। अब सुनता हूँ उसका दूसरा विवाह होने वाला है। कुसुम का बुरा हाल हो रहा है। आप शायद उसे देखकर पहचान भी न सकें। रात-दिन रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है। इससे आप हमारी परेशानी का अनुमान कर सकते हैं। जिंदगी की सारी अभिलाषाएँ मिटी जाती हैं। हमें ईश्वर ने पुत्र न दिया, पर हम अपनी कुसुम को पाकर सन्तुष्ट थे और अपने भाग्य को धन्य मानते थे। उसे कितने लाड़-प्यार से पाला, कभी उसे फूल की छड़ी से भी न छुआ। उसकी शिक्षा-दीक्षा में कोई बात उठा न रखी। उसने बी.ए. नहीं पास किया लेकिन विचारों की प्रौढ़ता और ज्ञान-विस्तार में किसी ऊँचे दर्जे की शिक्षित महिला से कम नहीं। आपने उसके लेख देखे हैं। मेरा खयाल है, बहुत कम देवियाँ वैसे लेख लिख सकती हैं। समाज, धर्म, नीति सभी विषयों में उसके विचार बड़े परिष्कृत हैं। बहस करने में तो वह इतनी पटु है कि मुझे आश्चर्य होता है। गृह-प्रबन्ध में इतनी कुशल है कि मेरे घर का प्रायः सारा प्रबंध उसी के हाय में था, किंतु पति की दृष्टि में वह पाँव की धूलि के बराबर भी नहीं। बार-बार पूछता हूँ, तूने उसे कुछ कह दिया है, या क्या बात है? आखिर वह क्यों तुझसे इतना उदासीन है? इसके जवाब में रोकर यही कहती है-‘मुझसे तो उन्होंने कभी कोई बातचीत ही नहीं की ।’ ‘मेरा विचार है कि पहले ही दिन दोनों में कुछ मनमुटाव हो गया। वह कुसुम के पास आया होगा और उससे कुछ पूछा होगा। उसने मारे शर्म के जवाब न दिया होगा। सम्भव है, दो-चार बातें और भी की हों। कुसुम ने सिर न उठाया होगा। आप जानते ही हैं, वह कितनी शर्मीली है। बस, पतिदेव रूठ गए होंगे। मैं तो कल्पना ही नहीं कर सकता कि कुसुम-जैसी बालिका से कोई पुरुष उदासीन रह सकता है, लेकिन दुर्भाग्य का कोई क्या करे? दुखिया ने पति के नाम कई पत्र लिये, पर उस निर्दयी ने एक का भी जवाब न दिया। सारी चिट्ठियाँ लौटा दीं। मेरी समझ में नहीं आता कि उस पाषाण हृदय को कैसे पिघलाऊँ? मैं अब खुद तो उसे कुछ लिख नहीं सकता। आप ही कुसुम की प्राण-रक्षा करें, नहीं तो शीघ्र ही उसके जीवन का अंत हो जाएगा, और उसके साथ हम दोनों प्राणी भी सिधार जाएंगे। उसकी व्यथा अब नहीं देखी जाती।’

नवीन जी की आंखें सजल हो गईं। मुझे भी अत्यन्त क्षोभ हुआ। उन्हें तसल्ली देता हुआ बोला- ‘आप इतने दिनों इस चिता में पड़े रहे, मुझसे पहले ही क्यों न कहा? मैं आज ही मुरादाबाद जाऊंगा और उस लौंडे की इस बुरी तरह खबर-लूंगा कि वह भी याद करेगा। बच्चू को जबरदस्ती घसीटकर लाऊंगा और कुसुम के पैरों पर गिरा दूँगा।’

नवीन जी मेरे आत्मविश्वास पर मुस्कराकर बोले- ‘आप उससे क्या कहेंगे?

‘यह न पूछिए! वशीकरण के जितने मन्त्र हैं, उन सभी की परीक्षा करूंगा।’

‘तो आप कदापि सफल न होंगे। वह इतना शीलवान, इतना विनम्र, इतना प्रसन्न-मुख है, इतना मधुर-भाषी कि आप वहाँ से उसके भक्त होकर लौटेंगे। वह नित्य आपके सामने हाथ बाँधे खड़ा रहेगा। आपकी सारी कठोरता शान्त हो जाएगी। आपके लिए तो एक ही साधन है। आपके कलम में जादू है! आपने कितने ही युवकों को सन्मार्ग पर लगाया है। हृदय में सोई हुई मानवता को जगाना आपका हिस्सा है। मैं चाहता हूँ आप कुसुम की ओर से एक ऐसा करुणाजनक, ऐसा दिल हिला देने वाला पत्र लिखें कि वह लज्जित हो जाए और उसकी प्रेम-भावना सचेत हो उठे। मैं जीवन-पर्यन्त आपका आभारी रहूँगा।’

नवीन जी कवि ही तो ठहरे। इस तजवीज में वास्तविकता की अपेक्षा कवित्व ही की प्रधानता थी। आप मेरे कई गल्पों को पढ़कर से पड़े हैं, इससे आपको विश्वास हो गया है कि मैं चतुर -सपेरे की भांति जिस दिल को चाहूँ नचा सकता हूँ। आपको यह मालूम नहीं कि सभी मनुष्य कवि नहीं होते, और न एक-से भावुक। जिन गल्पों को पढ़कर आप रोए हैं, उन्हीं गल्पों को पढ़कर कितने ही सज्जनों ने विरक्त होकर पुस्तकें फेंक दी हैं। पर इन बातों का वह अवसर न था। वह समझते कि मैं अपना गला छुड़ाना चाहता हूँ इसलिए मैंने सहृदयता से कहा- ‘आपको बहुत दूर की सूझी। और मैं उस प्रस्ताव से सहमत हूँ और यद्यपि आपने मेरी करुणोत्पादक शक्ति का अनुमान करने में अत्युक्ति से काम लिया है, लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूँगा। मैं पत्र लिखूँगा, यथा शक्ति उस युवक की न्याय-बुद्धि को जगाने की चेष्टा भी करूँगा। लेकिन आप अनुचित न समझे तो पहले मुझे वह पत्र दिखा दें, जो कुसुम ने अपने पति के नाम लिखे थे। उसने पत्र तो लौटा ही दिए हैं और यदि कुसुम ने उन्हें फाड़ नहीं डाला है, तो उसके पास होंगे। उन पत्रों को देखने से मुझे ज्ञात हो जाएगा कि किन पहलुओं पर लिखने की गुंजाइश बाकी है। नवीन जी ने जेब से पत्रों का एक पुलिन्दा निकालकर मेरे सामने रख दिया और बोले- ‘मैं जानता था, आप इन पत्रों को देखना चाहेंगे, इसलिए इन्हें साथ लेता आया। आप इन्हें शौक से पढ़े। कुसुम जैसी मेरी लड़की है, वैसी ही आपकी भी लड़की है। आपसे क्या परदा।’

सुगन्धित, गुलाबी, चिकने कागज पर बहुत ही सुन्दर अक्षरों में लिखे हुए उन पत्रों को मैंने पढ़ना शुरू किया-

‘मेरे स्वामी,

‘मुझे यहाँ आए एक सप्ताह हो गया, लेकिन आंखें पल भर के लिए भी नहीं झपकी। सारी रात करवटें बदलते बीत जाती हैं। बार-बार सोचती हूँ मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ कि उसकी आप मुझे यह सजा दे रहे हैं। आप मुझे झिड़के, घुड़कियां दें, कोसे, इच्छा हो तो मेरे कान भी पकड़े। मैं इन सभी सजाओं को सहर्ष सह लूंगी, लेकिन यह निष्ठुरता नहीं सही जाती। मैं आपके घर एक सप्ताह रही। परमात्मा जानता है कि मेरे दिल में क्या-क्या अरमान थे। मैंने कितनी बार चाहा कि आपसे कुछ पूछे, आपसे अपने अपराधों को क्षमा कराऊँ, लेकिन आप मेरी परछाहीं से भी दूर भागते थे। मुझे कोई अवसर न मिला।’

‘आपको याद होगा कि जब दोपहर को सारा घर सो जाता था, तो मैं आपके कमरे में जाती थी और घण्टों सिर झुकाए खड़ी रहती थी, पर आपने कभी आंखें उठाकर न देखा। उस वक्त मेरे मन की क्या दशा होती थी, इसका कदाचित् आप अनुमान न कर सकेंगे। मेरी-जैसी अभागिनी स्त्रियाँ इसका कुछ अन्दाजा कर सकती हैं। मैंने अपनी सहेलियों से उनकी सुहागरात की कथाएँ सुन-सुनकर अपनी कल्पना में सुखों का जो स्वर्ग बनाया था, उसे आपने कितनी निर्दयता से नष्ट कर दिया।’

‘मैं आपसे पूछती हूँ क्या आपके ऊपर मेरा कोई अधिकार नहीं है? अदालत भी किसी अपराधी को दण्ड देती है, तो उर। पर कोई-न-कोई अभियोग लगाती है, गवाहियाँ लेती है, उसका बयान सुनती है। आपने तो कुछ कहा ही नहीं। मुझे अपनी खता मालूम हो जाती, तो आगे के लिए सचेत हो जाती। आपके चरणों पर गिरकर कहती, मुझे क्षमादान दो। मैं शपथ पूर्वक कहती हूँ मुझे कुछ नहीं मालूम, आप क्यों रुष्ट हो गए। सम्भव है, आपने अपनी पत्नी में जिन गुणों के देखने की कामना की हो, वे मुझमें न हों। बेशक मैं अंग्रेजी नहीं पढ़ी, अंग्रेजी- समाज की रीति-नीति से परिचित नहीं, न अंग्रेजी खेल ही खेलना जानती हूँ। और भी कितनी ही त्रुटियाँ मुझमें होंगी । मैं मानती हूँ कि मैं आपके योग्य न थी। आपको मुझसे कहीं अधिक रूपवती, गुणवती, बुद्धिमती स्त्री मिलनी चाहिए थी, लेकिन मेरे देवता, दण्ड अपराधों का मिलना चाहिए, त्रुटियों का नहीं। फिर, मैं तो आपके इशारे पर चलने को तैयार हूँ। आप मेरी दिलजोई करें, फिर देखिए, मैं अपनी त्रुटियों को कितनी जल्द पूरा कर लेती हूँ। आपका प्रेम-कटाक्ष मेरे रूप को प्रदीप्त, मेरी बुद्धि को तीव्र और मेरे भाग्य को बलवान कर देगा। वह विभूति पाकर मेरा कायाकल्प हो जाएगा।’

‘स्वामी, क्या आपने सोचा है, आप यह क्रोध किस पर कर रहे हैं? वह अबला, जो आपके चरणों पर पड़ी हुई, आपसे क्षमा-दान माँग रही है, जो जख्म- जन्मान्तर के लिए आपकी चेरी है, क्या इस क्रोध को सहन कर सकती है? मेरा दिल बहुत कमजोर है, मुझे रुलाकर आपको पश्चात्ताप के सिवा और क्या हाथ आएगा? इस क्रोधाग्नि की एक चिनगारी मुझे भस्म कर देने के लिए काफी है। अगर आपकी यह इच्छा है कि मैं मर जाऊँ, तो मैं मरने के लिए तैयार हूँ केवल आपका इशारा चाहती हूँ। अगर मेरे मरने से आपका चित्त प्रसन्न हो, तो मैं बड़े हर्ष से अपने को आपके चरणों पर समर्पित कर दूँगी, मगर इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि मुझमें सौ ऐब हों, पर एक गुण भी है-मैं दावा कर सकती हूँ कि आपकी जितनी सेवा मैं कर सकती हूँ उतनी कोई दूसरी स्त्री नहीं कर सकती। आप विद्वान् हैं, उदार हैं, मनोविज्ञान के पण्डित हैं, आपकी लौंडी आपके सामने खड़ी दया की भीख माँग रही है। क्या उसे द्वार से ठुकरा दीजिएगा?

आपकी अपराधिनी

कुसुम’

यह पत्र पढ़कर मुझे रोमांच हो आया। यह बात मेरे लिए असहज थी कि कोई स्त्री अपने पति की इतनी खुशामद करने पर मजबूर हो जाए। पुरुष अगर स्त्री से उदासीन रह सकता है, तो स्त्री उसे क्यों नहीं ठुकरा सकती? यह दुष्ट समझता है कि विवाह ने एक- स्त्री को उसका गुलाम बना दिया। वह उस अबला पर जितना अत्याचार चाहे, करे, कोई उसका हाथ नहीं पकड़ सकता, कोई चूं भी नहीं कर सकता। पुरुष अपनी दूसरी, तीसरी, चौथी शादी कर सकता है, स्त्री से कोई सम्बन्ध न रखकर भी उस पर उसी कठोरता से शासन कर सकता है। वह जानता है कि स्त्री कुल-मर्यादा के बंधनों में जकड़ी हुई है, उसे रो-रोकर मर जाने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। अगर उसे भय होता कि औरत भी उसकी ईंट का जवाब पत्थर से नहीं, ईंट से भी नहीं, केवल थप्पड़ से दे सकती है, तो उसे कभी इस बदमिजाजी का साहस न होता। बेचारी स्त्री कितनी विवश है। शायद मैं कुसुम की जगह होता, तो इस निष्ठुरता का जवाब इसकी दस गुनी कठोरता से देता। उसकी छाती पर मूँग दलता। संसार के हंसने की जरा भी चिंता न करता। समाज अबलाओं पर इतना जुल्म देख सकता है और चूं तक नहीं करता। उसके रोने या हँसने की मुझे जरा भी परवाह न होती। अरे अभागे युवक! तुझे खबर नहीं, तू अपने भविष्य की गर्दन पर कितनी बेदर्दी से छुरी फेर रहा है? यह वह समय है, जब पुरुष को अपने प्रणय-भण्डार से स्त्री के माता-पिता, भाई- बहन, सखियाँ-सहेलियाँ सभी के प्रेम की पूर्ति करनी पड़ती है। अगर पुरुष में यह सामर्थ्य नहीं है, तो स्त्री की क्षुधित आत्मा को कैसे सन्तुष्ट रख सकेगा? परिणाम वही होगा, जो बहुधा होता है। अबला कुढ़ कुढ़ कर मर जाती है। यही वह समय है, जिसकी स्मृति जीवन में सदैव के लिए मिठास पैदा कर देती है। स्त्री की प्रेम-क्षुधा इतनी तीव्र होती है कि वह पति का स्नेह पाकर अपना जीवन सफल समझती है, और इस प्रेम के आधार पर जीवन के सारे कष्टों को हँस- खेलकर सह लेती है। यही वह समय है, जब हृदय में प्रेम का बसन्त आता है और उसमें नई-नई आशा-कोपलें निकलने लगती हैं। ऐसा कौन निर्दयी है, जो इस ऋतु में उस वृक्ष पर कुल्हाड़ी चलाएगा। यही वह समय है, जब शिकारी किसी पक्षी को उसके बसेने से लाकर पिंजरे में बंद कर देता है। क्या वह उसकी गर्दन पर छुरी चलाकर उसका मधुर गान सुनने की आशा रखता है?

मैंने दूसरा पत्र पढ़ना शुरू किया-

‘मेरे जीवन-धन,

दो सप्ताह जवाब की प्रतीक्षा करने के बाद आज फिर यह उलाहना देने बैठी हूँ। जब मैंने यह पत्र लिखा था, तो मेरा मन गवाही दे रहा था कि उसका उत्तर जरूर आएगा। आशा के विरुद्ध आशा लगाए हुए थी। मेरा मन अब भी इसे स्वीकार नहीं करता कि जान-बूझकर उसका उत्तर नहीं दिया गया। कदाचित् आपको अवकाश नहीं मिला, या ईश्वर न करे, कहीं आप अस्वस्थ तो नहीं हो गए? किससे पूछूं? इसी विचार से ही मेरा हृदय काँप रहा है। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप प्रसन्न और स्वस्थ हों। पत्र मुझे न लिखें, न सही, रोकर चुप ही तो हो जाऊंगी। आपको ईश्वर का वास्ता है, अगर आपको किसी प्रकार का कष्ट हो, तो मुझे तुरन्त पत्र लिखिए, मैं किसी को साथ लेकर आ जाऊंगी। मर्यादा और परिपाटी के बंधनों से मेरा जी घबड़ाता है, ऐसी दशा में भी यदि आप मुझे अपनी सेवा से वंचित रखते हैं तो आप मुझसे मेरा वह अधिकार छीन रहे हैं, जो मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान् वस्तु है। मैं आपसे और कुछ नहीं माँगती। आप मुझे मोटे-से-मोटा खिलाइए मोटे-से-मोटा पहनाएं, मुझे जरा भी शिकायत न होगी। मैं आपके साथ घोर-से-घोर विपत्ति में भी प्रसन्न रहूंगी। मुझे आभूषणों की लालसा नहीं, धन बटोरने की लालसा नहीं। मेरे जीवन का उद्देश्य केवल आपकी सेवा करना है। यही उसका ध्येय है।

मेरे लिए दुनिया में कोई देवता नहीं, कोई गुरु नहीं, कोई हाकिम नहीं। मेरे देवता आप हैं, मेरे गुरु आप हैं, मेरे राजा आप हैं। मुझे अपने चरणों से न हटाइए, मुझे ठुकराइए नहीं। मैं सेवा और प्रेम के फूल लिए, कर्तव्य और व्रत की भेंट आँचल में सजा, आपकी सेवा में आई हूँ। मुझे इस भेंट को, इन फूलों को अपने चरणों पर रखने दीजिए। उपासक का काम तो पूजा करना है। देवता उसकी पूजा स्वीकार करता है या नहीं, यह सोचना उसका धर्म नहीं।

मेरे सरताज, शायद आपको पता नहीं, आजकल मेरी क्या दशा है। यदि मालूम होता, तो आप इस निष्ठुरता का व्यवहार न करते। आप पुरुष हैं, आपके हृदय में दया है, सहानुभूति है, उदारता है, मैं विश्वास नहीं कर सकती कि आप मुझ-जैसी नाचीज पर क्रोध कर सकते हैं। मैं आपकी दया के योग्य हूँ-कितनी दुर्बल, कितनी अपंग, कितनी बेजुबान। आप सूर्य हैं, मैं अणु हूँ, आप अग्नि हैं, मैं तृण हूँ। आप राजा हैं, मैं भिखारिन हूँ। क्रोध तो बराबर वालों पर करना चाहिए। मैं भला आपके क्रोध का आघात कैसे सह सकती हूँ?

अगर आप समझते हैं कि मैं आपकी सेवा के योग्य नहीं हूँ तो मुझे अपने हाथों से विष का प्याला दे दीजिए। मैं उसे सुधा समझकर सिर आँखों से लगाकर और आँखें बन्द करके पी जाऊंगी। जब यह जीवन आपकी भेंट हो गया, तो आप मारें या जिलाएँ यह आपकी इच्छा पर है। मुझे यही सन्तोष काफी है कि मेरी मृत्यु से आप निश्चिन्त हो गए। मैं तो इतना ही जानती हूँ कि मैं आपकी हूँ और सदैव आपकी रहूँगी, इस जीवन में ही नहीं, बल्कि अनन्त तक।

अभागिनी

कुसुम’

यह पत्र पढ़कर मुझे कुसुम पर भी झुंझलाहट आने लगी और उस लौंडे से तो घृणा हो गयी। माना, तुम स्त्री हो, आजकल के प्रथानुसार पुरुष को तुम्हारे ऊपर हर तरह का अधिकार है; लेकिन नम्रता की भी तो कोई सीमा होती है। स्त्री में कुछ तो मान, कुछ अकड़ होनी चाहिए। अगर पुरुष उससे ऐंठता है, तो उसे भी चाहिए कि उसकी बात न पूछे। स्त्रियों को धर्म और त्याग का पाठ पढ़ा- पढ़ाकर हमने उनके आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास दोनों ही का अंत कर दिया। अगर पुरुष स्त्री का मोहताज नहीं, तो स्त्री भी पुरुष की मोहताज क्यों हो? ईश्वर ने पुरुष को हाथ दिए हैं, तो क्या स्त्री को उससे वंचित रखा है? पुरुष के पास बुद्धि है, तो क्या स्त्री अबोध है? इसी नम्रता ने तो मर्दों का मिज़ाज आसमान पर पहुँचा दिया। पुरुष रूठ गया, तो स्त्री के लिए मानो प्रलय आ गयी। मैं तो समझता हूँ कुसुम नहीं, उसका अभागा पति ही दया के योग्य है, जो कुसुम- जैसी स्त्री-रत्न की कद्र नहीं कर सकता। मुझे ऐसा सन्देह होने लगा कि इस लौंडे ने कोई दूसरा रोग पाल रखा है। किसी शिकारी के रंगीन जाल में फंसा हुआ है।

खैर, मैंने तीसरा पत्र खोला-