Story in Hindi: महाकवि नीरज जी कहते हैं, ‘मनुष्य होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य, लेकिन यह तो किसी महापुरुष ने नहीं बताया कि कवि का पड़ोसी होना है, दुर्भाग्य। वह कैसे? जानिए इस व्यंग्य से-
मौजानन्दजी महाकवि को आज कौन नहीं जानता। साहित्य की गोष्ठी हो या कविता पाठ का कार्यक्रम, मौजानन्दजी अपनी-अपनी मौज में गुनगुनाते मिल जाएंगे। कम समय में ही उन्होंने जो ख्याति पाई है, वह बिरलों के भाग्य में ही होती है। साठ साल की आयु से शुरू हुआ लेखन अल्पसमय में ही परिपक्व हो गया है। लोग उन्हें अब तो महाकवि की उपाधि भी मानद् रूप से प्रदान कर चुके हैं।
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घुटनों तक लम्बे मौजे पहनकर जब वे साहित्य की चर्चा करते हैं तो लोगों के हाथों के तोते उड़ जाते हैं। उनकी धीर-गम्भीर मुद्रा में साहित्य खिलता भी खूब है। सब कुछ ठीक है लेकिन एक रंज मुझे उनका पड़ोसी होने का जीवन-भर सालता रहेगा। काश! मैं उनके ठीक सामने वाले मकान में नहीं रहा होता, लेकिन मकान मेरा पुश्तैनी है और उसे मैं छोड़ भी नहीं सकता। महाकवि मौजानन्द कोई बुरे आदमी नहीं हैं, बस वे कवि हैं- यही त्रासदी है। इधर लिखते हैं और उधर प्रबुद्ध श्रोता के रूप में वे मुझे पाते हैं और एक अनवरत सिलसिला चलता है। आखिर एक दिन मैंने उनसे कहा- ‘मौजानन्दजी आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं।
वे मेरी पूरी बात सुनते इससे पहले ही बोले-‘तो सुनो मेरी एक ताज़ा कविता। मैंने सिर पकड़कर कविता को सुना और कविता की समाप्ति पर बोला- ‘अब मेरी सुनिये! मैं यह कह रहा था कि आप अच्छा लिख रहे हैं तो किसी पुरस्कार के लिए ट्राई क्यों नहीं करते? वे मेरी मूर्खता पर हंसे और बोले-‘क्या होता है पुरस्कार से! जनता की मान्यता ही रचनाकार की उपलब्धि होती है। आपको मेरी कवितायें भाती हैं, यह मेरे लिए पुरस्कार से कम नहीं है। उनकी बात सुनकर मैं रूआंसा हो गया और बोला- ‘देखिए मौजानन्दजी, अब आप किसी और को तलाशिये। कविता के बारे में मैं इतना जानता भी नहीं। वे बोले- ‘नहीं जानते तो जानो शर्मा। कविता एक अनुष्ठान है।
मैंने अपने गुस्से को आत्मसात किया और बोला- ‘वैसे कविता से लाभ क्या-क्या हैं? वे बोले- ‘बहुत अच्छा प्रश्न है तुम्हारा। कविता के क्या-क्या लाभ बताऊं तुम्हें। कविता के लाभ अनेक हैं। सबसे पहला लाभ तो यह है कि इसकी वजह से मेरे और तुम्हारे मध्य एक आपसी समझ और सद्भाव का वातावरण बना हुआ है।
मैंने कहा- ‘लेकिन यह कब तक बना रह सकता है। दरअसल मैं घुट गया हूं महाकवि।
‘तुम्हारे परेशान होने से कविता का नुकसान होता है। तुम्हें अपनी सदाशयता और सहजता को नहीं त्यागना चाहिए। उन्होंने अपने घुटनों से नीचे सरके मौजों को ऊपर खींचा और बोले- ‘शर्मा भाई, इधर कविता जन्म लेती है और उधर तुम्हारे अलावा मुझे कोई सीधा-सादा आदमी दिखाई नहीं देता। तुम्हारे कारण मेरी कविता को जो ऊंचाई मिली है। उसका जि़क्र हिंदी साहित्य में अवश्य होगा। मेरी कवितायें भले मर जाएं, लेकिन तुम मरकर भी जि़न्दा रहोगे। यह कहते हुए मौजानन्द की आंखों में गहन याचना उभर आई थी।
मौजानन्द का जानलेवा हमला बरदाश्त करने के अलावा उस समय और कोई चारा भी न था।
समय बीतता गया। मौजानन्द महाकवि बीमार रहने लगे। बिस्तर में पड़े हुये भी वे मेरी रट लगाये रहते। मैं प्रसन्न था कि उनके बुलाने पर जाऊं तो जाऊं, वरना नहीं भी जाऊं।
बीमारी से बुरी तरह परेशान एक दिन लाठी टेकते हुए वे मेरे घर आ धमके और बोले- ‘शर्मा तुम तो आये नहीं, मैं ही आ गया।मुझे एक क्षण बेहोशी-सी आई, लेकिन मैंने अपने आपको संभाला और कहा- ‘अच्छा किया आपने कविता लिखना बंद कर दिया। उनके चेहरे पर हल्की-सी हंसी की रेखा उभरी, जेब में हाथ गया, मुड़ा-तुड़ा कागज़ बाहर आया और वे बोले- ‘शर्मा कविता लिखना मेरे लिए जरूरी है। जिस दिन में इसे छोड़ दूंगा, उस दिन यह नश्वर काया भी नहीं रहेगी।
‘ये साहित्य के मौजे हैं जिन्हें मैंने दोनों पांवों में पहन रखा है। ये मौजे मेरे जीवन की गति हैं और कविता के प्राण हैं। इन्हें धोने का मतलब खुद को धो लेने के समान होगा।
महाकवि कविता से नाता नहीं रख पाये और एक दिन वे मुझे अकेला छोड़कर परमधाम को चले गये। अभी भी उनके लम्बे मौजे अलगनी पर लटके सूख रहे थे। शायद उन्हें धो दिया गया है। मेरी इच्छा हुई कि इन मौजों को क्यों नहीं मैं ही पहन लूं? तभी मौजानन्द की आत्मा ने मुझे ललकारा- ‘खबरदार जो मेरे मौजों को हाथ लगाया तो। मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई और मैं कमरे में रजाई ओढ़ कर सो गया।
