कई महीने गुजर गये। युवक हबीब तैमूर का वजीर है, लेकिन वास्तव में वही बादशाह है। तैमूर उसी की आँखों से देखता है, उसी के कानों से सुनता है और उसी की अक्ल से सोचता है। वह चाहता है, हबीब आठों पहर उसके पास रहे। उसके सामीप्य में उसे स्वर्ग का-सा सुख मिलता है। समरकंद में एक प्राणी भी ऐसा नहीं, जो उससे जलता हो। उसके बर्ताव ने सभी को मुग्ध कर लिया है, क्योंकि वह इंसाफ से जौ-भर भी कदम नहीं हटाता। जो लोग उसके हाथों चलती हुई न्याय की चक्की में पिस जाते हैं, वे भी उससे सद्भाव ही रखते हैं, क्योंकि वह न्याय को जरूरत से ज्यादा कटु नहीं होने देता। संध्या हो गयी थी। राज्य-कर्मचारी जा चुके थे। शमादान में मोम की बत्तियाँ जल रही थीं। अगर की सुगंध से सारा दीवानखाना महक रहा था। हबीब भी उठने ही को था कि चोबदार वे खबर दी- ‘हुजूर, जहांपनाह तशरीफ ला रहे हैं।’
हबीब इस खबर से कुछ प्रसन्न नहीं हुआ। अन्य मंत्रियों की भांति वह तैमूर की सोहबत का भूखा नहीं था। वह हमेशा से दूर रहने की चेष्टा करता है। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि उसने शाही दस्तरखान पर भोजन किया हो। तैमूर की मजलिसों में भी वह कभी शरीफ़ नहीं होता। उसे जब शांति मिलती है, तब एकांत में अपनी माता के पास बैठकर। दिन-भर का माजरा उससे कहता है और वह उस पर अपनी पसंद की मुहर लगा देती है।
उसने द्वार पर जाकर तैमूर का स्वागत किया। तैमूर ने मसनद पर बैठे हुए कहा- ‘मुझे ताज्जुब होता है कि तुम इस जवानी में जाहिदों की-सी जिंदगी कैसे बसर करते हो हबीब। खुदा ने तुम्हें वह हुस्न दिया है कि हसीन-से-हसीन नाज़नीन भी तुम्हारी माशूक बनकर अपने को खुशनसीब समझेगी। मालूम नहीं, तुम्हें खबर है या नहीं, जब तुम अपने घोड़े पर सवार होकर निकलते हो, तो समरकंद की खिड़कियों पर हजारों तुम्हारी एक झलक देखने के लिए मुंतजिर बैठी रहती हैं, पर तुम्हें किसी तरफ आंखें उठाते नहीं देखा। मेरा खुदा गवाह है, मैं कितना चाहता हूँ कि तुम्हारे कदमों के नक्शे पर चलूं। मैं चाहता हूं जैसे तुम दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग रहते हो, वैसे मैं भी रहूँ, लेकिन मेरे पास न वह दिल है, न वह दिमाग। मैं हमेशा अपने-आप पर, सारी दुनिया पर दाँत पीसता रहता हूँ। जैसे मुझे हरदम खून की प्यास लगी रहती है, जिसे तुम बुझने वहीं देते, और यह जानते हुए भी कि तुम जो कुछ करते हो, उससे बेहतर कोई दूसरा नहीं कर सकता, मैं अपने गुस्से को काबू में नहीं कर सकता। तुम जिधर से निकलते हो, मुहब्बत और रोशनी फैला देते हो। जिसको तुम्हारा दुश्मन होना चाहिए, वह भी तुम्हारा दोस्त है। मैं जिधर से निकलता हूं, नफरत और शुबहा फैलाता हुआ निकलता हूं। जिसे मेरा दोस्त होना चाहिए, वह भी मेरा दुश्मन है। दुनिया में बस यही एक जगह है, जहां मुझे आफियत मिलती है। अगर तुम समझते हो, यह ताज और तख्त मेरे रास्ते के रोड़े हे, तो खुदा की कसम, मैं आज इन पर लात मार दूँ। मैं आज तुम्हारे पास यही दरखास्त लेकर आया हूं कि तुम मुझे वह रास्ता दिखाओ, जिससे मैं सच्ची खुशी पा सकूँ। मैं चाहता हूं, तुम इसी महल में रहो ताकि मैं तुमसे सच्ची जिन्दगी का सबक सीखूं।’
हबीब का हृदय धक से हो उठा। कहीं अमीन पर उसके नारीत्व का रहस्य खुल तो नहीं गया? उसकी समझ में न आया कि उसे क्या जवाब दे? उसका कोमल हृदय तैमूर की इस करुण आत्मग्लानि पर द्रवित हो गया। जिसके नाम से दुनिया काँपती है, वह उसके सामने एक दयनीय प्रार्थी बना हुआ उसके। प्रकाश की भीख माँग रहा है। तैमूर की उस कठोर, विकृत, शुष्क, हिंसात्मक मुद्रा में उसे एक स्निग्ध मधुर ज्योति दिखायी दी, मानो उसका जागृत विवेक भीतर से झाँक रहा हो। उसे अपना स्थिर जीवन, जिसमें ऊपर उठने की स्फूर्ति ही न रही थी, इस विफल उद्योग के सामने तुच्छ जान पड़ा।
उसने मुग्ध कंठ से कहा – ‘हुजूर इस गुलाम की इतनी कद्र करते हैं, यह मेरी खुशनसीबी है, लेकिन मेरा शाही महल में रहना मुनासिब नहीं।’
तैमूर ने पूछा- ‘क्यों?’
‘इसलिए कि जहाँ दौलत ज्यादा होती है, वहीं डाके पड़ते हैं और जहाँ कद्र ज्यादा होती है, वहीं दुश्मन भी ज्यादा होते हैं।’
‘तुम्हारा दुश्मन भी कोई हो सकता है?’
‘मैं खुद अपना दुश्मन हो जाऊंगा। आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गुरूर है।’
तैमूर को जैसे कोई रत्न मिल गया। उसे अपनी मन-तुष्टि का आभास हुआ। ‘आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गुरूर है’ इस वाक्य को मन-ही-मन दोहरा कर उसने कहा- ‘तुम मेरे काबू में कभी न आओगे हबीब। तुम वह परिन्दे हो, जो आसमान में ही उड़ सकता है। उसे सोने के पिंजड़े में भी रखना चाहो तो फड़फड़ाता रहेगा। खैर, खुदा हाफिज़!
वह तुरंत अपने महल की ओर चला, मानो उस रत्न को सुरक्षित स्थान में रख देना चाहता हो। यह वाक्य पहली बार उसने न सुना था, पर आज इसमें जो ज्ञान, जो आदेश, जो सत्प्रेरणा उसे मिली, वह कभी न मिली थी।
इस्तखर के इलाक से बगावत की खबर आयी है। हबीब को शंका है कि तैमूर वहाँ पहुंचकर कहीं कत्लेआम न कर दे। वह शांतिमय उपायों से इस विद्रोह को ठंडा करके तैमूर को दिखाना चाहता है कि सद्भावना में कितनी शक्ति है। तैमूर उसे इस मुहिम पर नहीं भेजना चाहता, लेकिन हबीब के आग्रह के सामने बेबस है। हबीब को जब और कोई युक्ति न सूझी, तो उसने कहा- ‘गुलाम के रहते हुए हुजूर अपनी जान खतरे में डालें, यह नहीं हो सकता।’
तैमूर मुस्कराया- मेरी जान की तुम्हारी जान के मुकाबले में कोई हकीकत नहीं है हबीब। फिर मैंने तो कभी जान की परवाह न की। मैंने दुनिया में कत्ल और लूट के सिवा और क्या यादगार छोड़ी? मेरे मर जाने पर दुनिया मेरे नाम को रोयेगी नहीं, यकीन मानो। मेरे जैसे लुटेरे हमेशा पैदा होते रहेंगे, लेकिन खुदा न करे, तुम्हारे दुश्मनों को कुछ हो गया, तो यह सल्तनत खाक में मिल जायेगी, और तब मुझे भी सीने में खंजर चुभा लेने के सिवा और कोई रास्ता न रहेगा। मैं नहीं कह सकता हबीब, तुमसे मैंने कितना पाया। काश, दस-पाँच साल पहले तुम मुझे मिल जाते, तो तैमूर तारीख में इतना रुपियाह न होता। आज अगर जरूरत पड़े, तो मैं अपने जैसे सौ तैमूरों को तुम्हारे ऊपर निसार कर दूँ। यही समझ लो कि तुम अपने साथ मेरे रूह को लिये जा रहे हो। आज मैं तुमसे कहता हूँ हबीब कि मुझे तुमसे इश्क है, वह इश्क, जो मुझे आज तक किसी हसीना से नहीं हुआ। इश्क क्या चीज है इसे मैं अब जान पाया हूँ। मगर इसमें क्या बुराई है कि मैं तुम्हारे साथ चलूं?
हबीब ने धड़कते हुए हृदय से कहा- ‘अगर मैं आपकी जरूरत समझूंगा तो इतिला कर दूंगा।
तैमूर ने दाढ़ी पर हाथ रख कर कहा- ‘जैसी तुम्हारी मर्जी। लेकिन रोजाना कासिद भेजते रहना, वरना शायद में बेचैन होकर चला आऊं।’
तैमूर ने कितनी मुहब्बत से हबीब के सफर की तैयारियाँ कीं। तरह-तरह के आराम और तकल्लुफी की चीजें उसके लिए जमा की। उस कोहिस्तान में वह चीजें कहां मिलेंगी। वह ऐसा संलग्न था, मानो माता अपनी लड़की को ससुराल भेज रही हो।
जिस वक्त हबीब फौज के साथ चला, तो सारा समरकंद उसके साथ था और तैमूर आँखों पर रूमाल रखे, अपने तख्त पर ऐसे सिर झुकाए बैठा था, मानो कोई पक्षी आहत हो गया हो।
इस्तखर अरमीनी ईसाइयों का इलाका था। मुसलमानों ने उन्हें परास्त करके वहाँ अपना अधिकार जमा लिया था और ऐसे नियम बना दिये थे, जिससे ईसाइयों को पग-पग पर अपनी पराधीनता का स्मरण होता रहता था। पहला नियम जज़िये का था, जो हरेक ईसाई को देना पड़ता था, जिससे मुसलमान मुक्त थे। दूसरा नियम यह था कि गिरजों में घंटा न बजे! तीसरा नियम मदिरा का था, जिसे मुसलमान हराम समझते थे। ईसाइयों ने इन नियमों का क्रियात्मक विरोध किया और जब मुसलमान अधिकारियों ने शस्त्र-बल से काम लेना चाहा, तो ईसाइयों ने बगावत कर दी, मुसलमान सूबेदार को कैद कर लिया और किले पर सलीबी झंडा उड़ने लगा।
हबीब का यहाँ आज दूसरा दिन है पर इस समस्या को कैसे हल करे। उसका उदार हृदय कहता था, ईसाइयों पर इन बंधनों का कोई अर्थ नहीं। हरेक धर्म का समान रूप से आदर होना चाहिए लेकिन मुसलमान इन कायदों को उठा देने पर कभी राजी न होंगे। और यह लोग मान भी जाएं, तो तैमूर क्यों मानने लगा? उसके धार्मिक विचारों में कुछ उदारता आयी है, फिर भी वह इस कायदों को उठाना कभी मंजूर न करेगा। लेकिन क्या वह इसलिए ईसाइयों को सजा दे कि वे अपनी धार्मिक स्वाधीनता के लिए लड़ रहे हैं। जिसे वह सत्य समझता है, उसकी हत्या कैसे करे? नहीं, उसे सत्य का पालन करना होगा, चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो। अमीन समझेंगे, मैं जरूरत से -ज्यादा बढ़ा जा रहा हूँ। कोई मुजायका नहीं। दूसरे दिन हबीब ने प्रातःकाल डंके की चोट ऐलान कराया- जज़िया माफ किया गया, शराब और घण्टों पर कोई कैद नहीं है।
मुसलमानों में तहलका मच गया। यह कुफ्र है, हराम-परस्ती है। अमीन तैमूर ने जिस इस्लाम को अपने खून से सींचा, उसकी जड़ उन्हीं के वजीर हबीब पाशा के हाथों खुद रही है। पासा पलट गया। शाही फौज मुसलमानों से जा मिली। हबीब ने इस्तखर के किले में पनाह ली। मुसलमानों की ताक़त शाही फौज के मिल जाने से बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने किला घेर लिया और यह समझकर कि हबीब ने तैमूर से बगावत की है, तैमूर के पास इसकी सूचना देने और परिस्थिति समझाने के लिए कासिद भेजा।
आधी रात गुजर चुकी थी। तैमूर को दो दिनों से इस्तखर की कोई खबर न मिली थी। तरह -तरह की शंका हो रही थी। मन में पछतावा हो रहा था कि उसने क्यों हबीब को अकेला जाने दिया। माना कि वह बड़ा नीतिकुशल है, पर बगावत कहीं जोर पकड़ गयी, तो मुट्ठी-भर आदमियों से वह क्या कर सकेगा? और बगावत यकीनन जोर पकड़ेगी। यहाँ के ईसाई बला के सरकश हैं। जब उन्हें मालूम होगा कि तैमूर की तलवार में जंग लग गया और उसे अब महलों की जिन्दगी पसन्द है, तो उनकी हिम्मत दूनी हो जाएँगी। हबीब कहीं दुश्मनों से घिर गया, तो बड़ा गजब हो जाएगा।
उसने अपने जानू पर हाथ मारा और पहलू बदलकर अपने ऊपर झुंझलाया। वह इतना पस्तहिम्मत क्यों हो गया? क्या उसका तेज और शौर्य उससे विदा हो गया? जिसका नाम सुनकर दुश्मनों में कम्पन पड़ जाता था, वह आज अपना मुँह छिपाकर महलों में बैठा हुआ है। दुनिया की आंखों में इसका यही अर्थ हो सकता है कि तैमूर अब मैदान का शेर नहीं, कालीन का शेर हो गया। हबीब फरिश्ता है, जो इनसान की बुराइयों से वाकिफ नहीं। जो रहम, साफ-दिली और बेगरजी का देवता है, वह क्या जाने इनसान कितना शैतान हो सकता है। अमन के दिनों में तो ये बातें कौम और मुल्क को तरक्की के रास्ते पर ले जाती हैं, पर जंग में, जबकि शैतानी जोश का तूफान उठता है, इन खूबियों की गुंजाइश नहीं। उस वक्त तो उसी की जीत होती है, जो इनसानी खून का रंग खेले, खेतों-खलिहानों को जलाये, जंगलों को बसाए और बस्तियों को वीरान करे। अमन का कानून जंग के कानून से जुदा है।
सहसा चोबदार ने इस्तखर से एक कासिद के आने की खबर दी। कासिद ने जमीन चूमी और एक किनारे अदब से खड़ा हो गया। तैमूर का रौब ऐसा छा गया कि जो कुछ कहने आया था, वह भूल गया।
तैमूर ने त्यौरियां चढ़ाकर पूछा- ‘क्या खबर लाया है? तीन दिन के बाद आया भी तो इतनी रात गये?’
कासिद ने फिर जमीन चूमी और बोला- ‘खुदाबंद, वजीर साहब ने जज़िया माफ कर दिया।’
तैमूर गरज उठा- ‘क्या कहता है, जज़िया माफ कर दिया।’
‘हां, खुदाबंद।’
‘किसने?’
‘वजीर साहब ने।’
‘किसके हुक्म से?’
‘अपने हुक्म से हुजूर।’
