agni samaadhi by munshi premchand
agni samaadhi by munshi premchand

सिलिया ने बचे हुए चार आने पैसे दे दिये। प्रयाग पैसे खनखनाता हुआ बोला – ‘तूने तो आज मालामाल कर दिया। रुक्मिणी तो दो-चार पैसों ही में टाल देती थी।’

‘मुझे गाड़कर रखना थोड़े ही है, पैसा खाने-पीने के लिए है कि गाड़ने के लिए।’ ‘अब तू ही बाजार जाया कर, रुक्मिणी घर का काम करेगी।’

रूक्यिन और सिलवा में संग्राम छिड़ गया। सिलिया प्रयाग पर अपना आधिपत्य जमाये रखने के लिए जान तोड़कर परिश्रम करती। पहर रात ही से उसकी चक्की की आवाज कानों में आने लगती। दिन निकलते ही लौटकर भी वह बेकार न बैठती, कभी सन – कातती, कभी लकड़ियां तोड़ती। लेकिन रुक्मिणी उसके प्रारब्ध में बराबर ऐब निकालती और जब अवसर मिलता तो गोबर को बटोरकर उपले पाथती और गांव में बेचती। प्रयाग के दोनों हाथों में लड्डू थे। स्त्रियां उसे अधिक-से-अधिक पैसे देने और स्नेह का अधिकांश देकर अपने अधिकार में लाने का प्रयत्न करती करतीं, पर सिलिया ने कुछ ऐसी दृढ़ता से आसन जमा लिया था कि किसी तरह हिलाये न हिलती थी। यहां तक कि एक दिन दोनों प्रतियोगियों में खुल्लमखुल्ला ठन गयी। एक दिन सिलिया घास लेकर लौटी तो पसीने में तर थी। फागुन का महीना था, धूप तेज थी। उसने सोचा, नहाकर तब बाजार जाऊंगी। घास द्वार पर ही रखकर तालाब में नहाने चली गयी। रुक्मिणी ने थोड़ी-सी घास निकालकर पड़ोसिन के घर में छिपा दी और गट्ठर को ढीला करके बराबर कर दिया।

सिलिया नहाकर लौटी तो घास कम मालूम हुई। रुक्मिणी से पूछा, उसने कहा – मैं नहीं जानती। सिलिया ने गालियां देनी शुरू कीं – ‘जिसने मेरी घास छुई हो, उसकी देह में कीड़े पड़े, उसके बाप और भाई मर जाए, उसकी आंखें फूट जाए। रुक्मिणी कुछ देर तक तो जब्त किये बैठी रही, आखिर खून में उबाल आ ही गया। झल्लाकर उठी और सिलिया के दो-तीन तमाचे लगा दिये। सिलिया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। सारा मुहल्ला जमा हो गया। सिलिया की सद्बुद्धि और कार्यशीलता सभी को आंखों में खटकती थी – वह सबसे अधिक घास क्यों छीलती है, सबसे ज्यादा लकड़ियां क्यों लाती है, इतनी सबेरे क्यों उठती है, इतने पैसे क्यों लाती है, इन कारणों से उसे पड़ोसियों की सहानुभूति से वंचित कर दिया था। सब उसी को बुरा-भला कहने लगी। मुट्ठी भर घास के लिए इतना बवाल मचा डाला, इतनी घास तो आदमी झाड़कर फेंक देता है। घास न हुई, सोना हुआ। तुझे तो सोचता चाहिए था कि अगर किसी ने ले ही लिया, तो गांव-घर ही का होगा। बाहर का कोई चोर तो आया नहीं। तूने इतनी गालियां दी, तो किसको दी? पड़ोसियों ही को तो?

संयोग से उस दिन प्रयाग थाने गया हुआ था। शाम को थका-मांदा लौटा तो सिलिया से बोला – ‘ला, कुछ पैसे दे दे, तो दम लगा आऊं। थककर चूर हो गया हूं।’

सिलिया उसे देखते ही हाय-हाय करके रोने लगी। प्रयाग ने घबराकर पूछा – ‘क्या हुआ? क्यों रोती है? कहीं गमी तो नहीं हो गयी? नैहर से कोई आदमी तो नहीं आया?’

‘अब इस घर मेरा रहना न होगा। अपने घर जाऊंगी।’

‘अरे, कुछ मुंह से तो बोल हुआ क्या? गांव में किसी ने गाली दी है? किसने गाली दी है? घर फूंक दूं उसका चालान करवा दूं।’

सिलिया ने रो-रोकर सारी कथा कह सुनायी। प्रयाग पर आज थाने में खूब मार पड़ी थी। झल्लाया हुआ था। वह कथा सुनी, तो देह में आग लग गयी। रुक्मिणी पानी भरने गयी थी। वह अभी घड़ा भी न रखने पायी थी कि प्रयाग उस पर टूट पड़ा और मारते-मारते बेदम कर दिया। वह मार का जवाब गालियों से देती थी और प्रयाग हर एक गाली पर और झल्ला-झल्लाकर मारता था। यहां तक कि रुक्मिणी के घुटने फूट गये, चूडियां टूट गयीं। सिलिया बीच-बची में कहती जाती थी – ‘वाह रे तेरा दीदा, वाह रे तेरी जबान! ऐसी तो औरत ही नहीं देखी। औरत काहे को, डायन है, जरा भी मुंह में लगाम नहीं, किंतु रुक्मिणी उसकी बातों को मानो सुनती ही न थी। उसकी सारी शक्ति प्रयाग को कोसने में लगी हुई थी – ‘तू मर जा, तेरी मिट्टी जिले, तुझे भवानी खायं, तुझे मिरगी आये।’ प्रयाग रह-रहकर क्रोध से तिलमिला उठा और आकर दो-चार लातें जमा देता। पर रुक्मिणी को अब शायद चोट ही न लगती थी। वह जगह से हिलती न थी। सिर का बाल खोले, जमीन पर बैठी इन्हीं मंत्रों का पाठ कर रही थी। उसके स्वर में अब क्रोध न था, केवल एक उन्मादमय प्रवाह था। उसकी समस्त आत्मा हिंसा-कामना की अग्नि से प्रज्ज्वलित हो रही थी।

अंधेरा हुआ तो रुक्मिणी उठकर एक ओर निकल गयी, जैसे आंखों से आंसू की धार निकल जाती है। सिलिया भोजन बना रही थी। उसने उसे जाते देखा भी, पर कुछ पूछा नहीं। द्वार पर प्रयाग बैठा चिलम पी रहा था। उसने भी कुछ न कहा।

जब फसल पकने लगती थी तो डेढ़-दो महीने तक प्रयाग को हार की देखभाल करनी पड़ती थी। उसे किसानों से दोनों फसलों पर हल पीछे कुछ अनाज बंधा हुआ था। माघ ही में वह हार के बीच में थोड़ी-सी जमीन साफ करके एक मडैया डाल लेता था और रात को खा-पीकर आग, चिलम और तमाकू, चरस लिये हुए इसी मडैया में जाकर पड़ा रहता था। चैत के अंत तक उसका यही नियम रहता था। आजकल वही दिन थे। फसल पकी हुई तैयार खड़ी थी। दो-चार दिन में कटाई शुरू होने वाली थी। प्रयाग ने दस बजे रात तक रुक्मिणी की राह देखी। फिर समझकर कि शायद किसी पड़ोसिन के घर सो रही होगी। उसने खा-पीकर अपनी लाठी उठायी और सिलिया से बोला – ‘किवाड़ बंद कर ले, अगर रुक्मिणी आये तो खोल देना और मना-सुनाकर थोड़ा-बहुत खिला देना। तेरे पीछे आज इतना तूफान हो गया। मुझे न जाने इतना गुस्सा कैसे आ गया। मैंने उसे कभी फूल की छड़ी से भी न छुआ था। कहीं बूड़-धंस न मरी हो, तो कल आफत आ जाय।’

सिलिया बोली – ‘न जाने वह आयेगी कि नहीं। मैं अकेली कैसे रहूंगी। मुझे डर लगता है।’ ‘तो घर में कौन रहेगा? सूना घर पाकर कोई लोटा-थाली उठा ले जाये तो? डर किस बात का है? फिर रुक्मिणी तो आती ही होगी।’

सिलिया ने अंदर से किवाड़ बंद कर ली। प्रयाग हार की ओर चला। चरस की तरंग में यह भजन गाता जाता था –

ठगनी। क्या नैना झमकावे।

कद्दू काट मूदंग बनावे, नीबू काट मजीरा, पांच तरोई मंगल गावे, नाचे बालम खीरा। रुपा पीहर के रूप दिखावे, सोना पहिर रिझावे, गले डाल तुलसी की माला, तीन लोक भरमावे। ठगनी।

सहसा सिवाने पर पहुंचते ही उसने देखा कि सामने हार में किसी ने आग जलायी। एक क्षण में ज्वाला-सी दहक उठी। उसने चिल्लाकर पुकारा – ‘कौन है वहां? अरे, यह कौन आग जलाता है?’

ऊपर उठी हुई ज्वालाओं ने अपनी अग्नेय जिह्व से उत्तर दिया।

अब प्रयाग को मालूम हुआ कि उसकी मडैया में आग लगी हुई है। उसकी छाती धड़कने लगी। इस मडैया में आग लगाना रुई के ढेर में आग लगाना था। हवा चल रही थी। मडैया के चारों ओर एक हाथ हटकर पकी हुई फसल की चादर-सी बिछी हुई थी। रात में भी उनका सुनहरा रंग झलक रहा था। आग की एक लपट, केवल एक जरा-सी चिनगारी सारे हार को भस्म कर देगी। सारा गांव तबाह हो जायेगा। इसी हार से मिले हुए दूसरे गांव के भी हार थे। वे भी जल उठेंगे। ओह! लपटें बढ़ती जा रही हैं। अब विलम्ब करने का समय न था। प्रयाग ने अपना उपला और चिलम वहीं पटक दिया और कंधे पर लोहबंद था। रखकर बेतहाशा मडैया की तरफ दौड़ा। मेंड़ों से जाने में चक्कर था, इसलिए वह खेतों में से होकर भागा जा रहा था। प्रतिक्षण ज्वाला प्रचंड होती जाती थी और प्रयाग के पांव और तेजी से उठ रहे थे। कोई तेज घोड़ा भी इस वक्त उसे पा न सकता था। अपनी तेजी पर उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था। जान पड़ता था, पांव भूमि पर पड़ते ही नहीं। उसकी आंखें मडैया पर लगी हुई थी – दाहिने-बायें से और कुछ न सूझता था। इसी एकाग्रता ने उसके पैरों में पर लगा दिये थे। न दम फूलता था, न पांव थकते थे। तीन-चार र्फ्लांग उसने दो मिनट में तय कर लिये और मडैया के पास जा पहुंचा।

मडैया के आस-पास कोई न था। किसने यह कर्म किया है, यह सोचने का मौका न था। उसे खोजने की तो बात ही और थी। प्रयाग का संदेह रुक्मिणी पर हुआ था। पर यह क्रोध का समय न था। ज्वाला कुचाली बालकों की भांति ठट्ठा मारती, धक्कम-धक्का करती, कभी दाहिनी ओर लपकती और कभी बायीं तरफ। बस, ऐसा मालूम होता था कि लपट अब खेत तक पहुंची, अब पहुंची। मानों ज्वालाएं आग्रहपूर्वक क्यारियों की ओर बढ़ी और असफल होकर दूसरी बार फिर दूने वेग से लपकती थी। आग कैसे बुझे लाठी से पीटकर बुझाने का गौ न था। वह तो निरी मूर्खता थी। फिर क्या हो! फसल जल गयी, तो फिर वह किसी को मुंह न दिखा सकेगा। आह! गांव में कोहराम मच जायेगा। सर्वनाश हो जायेगा। उसने ज्यादा नहीं सोचा। गंवारों को सोचना नहीं आता। प्रयाग ने लाठी संभाली, जोर से एक छलांग मारकर आग के अंदर मडैया के द्वार पर जा पहुंचा। जलती हुई मडैया को अपनी लाठी पर उठाया और उसे सिर पर लिए सबसे चौड़ी मेंड़ पर गांव की तरफ भागा। ऐसा जान पड़ा, मानो कोई अग्नि-यान में उड़ता चला जा रहा है। फूस की जलती हुई धज्जियां उसके ऊपर गिर रही थी, पर उसे इसका ज्ञान तक न होता था। एक बार एक मूठा अलग होकर उसके हाथ पर गिर पड़ा। सारा हाथ भुन गया। पर उसके पांव पल भर नहीं रुके, हाथों में जरा भी हिचक न हुई। हाथों का हिलना खेती का तबाह होना था। प्रयाग की ओर से अब कोई शंका न थी। अगर भय था तो यही की मडैया का वह केंद्र-भाग जहां लाठी का कुंदा डालकर प्रयाग ने उसे उठाया था, न जल जाये क्योंकि छेद के जलते ही मडैया उसके ऊपर आ गिरेगी और अग्नि-समाधि में भस्म कर देगी। प्रयाग यह जानता था और वह हवा की चाल से उड़ा चला जाता था। चार र्फ्लांग की दौड़ है। मृत्यु अग्नि का रूप धारण किये हुए प्रयाग के सिर पर खेल रही है और गांव की फसल पर। उसकी दौड़ में इतना वेग है ज्वालाओं का मुंह पीछे को फिर गया है उसकी दाहक शक्ति का अधिकांश वायु से लड़ने में लग रहा है। नहीं तो अब तक बीच में आग पहुंच गयी होती और हाहाकार मच गया होता। एक र्फ्लांग तो निकल गया, प्रयाग की हिम्मत ने हार नहीं मानी। वह दूसरा र्फ्लांग भी पूरा हो गया। देखना प्रयाग दो र्फ्लांग की ओर कसर है। पांव जरा भी सुस्त न हों। ज्वाला लाठी के कुंदे पर पहुंची और तुम्हारे जीवन का अंत है। मरने के बाद भी तुम्हें गालियां मिलेंगी, तुम अनंत काल तक आहों की आग में जलते रहोगे। बस, एक मिनट और! अब केवल दो खेत और रह गये हैं । सर्वनाश! लाठी का कुंदा निकल गया। मडैया नीचे खिसक रही है अब कोई आशा नहीं । प्रयाण प्राण छोड़कर दौड़ रहा है वह किनारे का खेत आ पहुंचा। अब केवल दो सेकंड का और मामला है। विजय का हार सामने बीस हाथ पर खड़ा स्वागत कर रहा है। उधर स्वर्ग है, इधर नरक। मगर वह मडैया खिसकती हुई प्रयाग के सिर पर आ पहुंची। वह अब भी उसे फेंककर अपनी जान बचा सकता है। पर उसे प्राणों का मोह नहीं। वह उस जलती हुई आग को सिर पर लिये भागा जा रहा है। वहां उसके पांव लड़खड़ाये। अब यह क्रूर अग्नि-लीला नहीं देखी जाती।

एकाएक एक स्त्री सामने के वृक्ष के नीचे से दौड़ती हुई प्रयाग के पास पहुंची। यह रुक्मिणी थी। उसने तुरन्त प्रयाग के सामने आकर गरदन झुकायी और जलती हुई मडैया के नीचे पहुंचकर उसे दोनों हाथों पर ले लिया। उसी दम प्रयाग मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। उसका सारा मुंह झुलस गया था।

रुक्मिणी उसके अलाव को लिये एक सेकंड में खेत के डांडे पर आ पहुंची, मगर इतनी दूर में उसके हाथ जल गये, मुंह जल गया और कपड़ों में आग लग गयी। उसे अब इतनी सुधि भी न थी कि मडैया के बाहर निकल आये। वह मडैया को लिये हुए गिर पड़ी। इसके बाद कुछ देर तक मडैया हिलती रही। रुक्मिणी हाथ-पांव फेंकती रही, फिर अग्नि ने उसे निगल लिया। रुक्मिणी ने अग्नि-समाधि ले ली।

कुछ देर बाद प्रयाग को होश आया। सारी देह जल रही थी। उसने देखा, वृक्ष के नीचे फूस की लाल आग चमक रही है। उठकर दौड़ा और पैर से आग को हटा दिया – नीचे रुक्मिणी की अधजली लाश पड़ी हुई थी। उसने बैठकर दोनों हाथों से मुंह ढांप लिया और रोने लगा।

प्रातःकाल गांव के लोग प्रयाग को उठाकर उसके घर ले गये। एक सप्ताह तक उसका इलाज होता रहा, पर बचा नहीं। कुछ तो आग ने जलाया था, जो कुछ कसर थी, वह शोकाग्नि ने पूरी कर दी।