साधु-संतों के सत्संग से बुरे भी अच्छे हो जाते हैं, किन्तु प्रयाग का दुर्भाग्य था कि उस पर सत्संग का उलटा ही असर हुआ। उसे गांजे, चरस और भंग का चस्का पड़ गया, जिसका फल यह हुआ कि एक मेहनती, उद्यमशील युवक आलस्य का उपासक बन बैठा। जीवन-संग्राम में यह आनंद कहां। किसी वट-वृक्ष के नीचे धूनी जल रही है, एक जटाधारी महात्मा विराज रहे हैं, भक्तजन उन्हें घेरे बैठे हुए हैं, और तिल-तिल पर चरस के दम लग रहे हैं। बीच-बीच में भजन भी हो जाते हैं। मजूरी-धतूरी में यह स्वर्ग-सुख कहां। चिलम भरना प्रयाग का काम था। भक्तों को परलोक में पुण्य-स्थल की आशा थी, प्रयाग को तत्काल फल मिलता था – चिलम पर पहला हक उसी का होता था। महात्माओं के श्रीमुख से भगवत् चर्चा सुनते ही वह आनंद से विह्वल हो उठा था, उस पर आत्म-विस्मृति-सी छा जाती थी। वह सौरभ, संगीत और प्रकाश से भरे हुए एक-दूसरे ही संसार में पहुंच जाता था। इसलिए जब उसकी स्त्री रुक्मिणी रात के दस-ग्यारह बज जाने पर उसे बुलाने आती तो प्रयाग को प्रत्यक्ष का क्रूर अनुभव होता, संसार उसे कांटों से भरा हुआ जंगल-सा दीखता, विशेषतः जब घर आने पर उसे मालूम होता कि अभी चूल्हा नहीं जला और चने-चबैने की कुछ फिक्र करनी है। वह जाति का भर था, गांव की चौकीदारी उसकी मीरास थी, दो रुपये और कुछ आने वेतन मिलता था। वर्दी और साफा मुफ्त। काम था सप्ताह में एक दिन थाने जाना, वहां अफसरों के द्वार पर झाडू लगाना, अस्तबल साफ करना, लकड़ी चीरना। प्रयाग रक्त के घूंट पी-पीकर ये काम करता, क्योंकि अवज्ञा शारीरिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से मंहगी पड़ती थी। आंसू यों पुछतें थे कि चौकीदारी में यदि कोई काम था, तो इतना ही, और महीने में चार दिन के लिए दो रुपये और कुछ आने कम न थे। फिर गांव में भी अगर बड़े आदमियों पर नहीं, तो नीचों पर रोब था। वेतन पेंशन थी और जब से महात्माओं का सम्पर्क हुआ, वह प्रयाग के जेब-खर्च की मद में आ गयी।
अतएव जीविका का प्रश्न दिनों दिन चिन्तोत्पादक रूप धारण करने लगी। इन सत्संगों के पहले यह दम्पत्ति गांव में मजदूरी करता था। रुक्मिणी लकड़ियां तोड़कर बाजार ले जाती, प्रयाग कभी आरा चलाता, कभी हल जोतता, कभी पुर हांकता। जो काम सामने आ जाये, उसमें जुट जाता था। हंसमुख, श्रमशील, विनोदी, निर्द्वंद्व आदमी था और ऐसा आदमी कभी भूखों नहीं मरता। उस पर नम्र इतना कि किसी काम के लिए ‘नहीं’ न करता। किसी ने कुछ कहा और वह ‘अच्छा भैया’ कहकर दौड़ा। इसलिए उसका गांव में मान था। इसी की बदौलत निरुद्यम होने पर भी दो-तीन साल उसे अधिक कष्ट न हुआ। दोनों जून की तो बात ही क्या, जब महतो को यह ऋद्धि न प्राप्त थी, जिनके द्वार पर बैलों की तीन-तीन जोड़ियां बंधती थी, तो प्रयाग किस गिनती में था। हां, एक जून की दाल-रोटी में संदेह न था। परन्तु अब यह समस्या दिन-पर-दिन विषमतर होती जाती थी। उस पर विपत्ति यह थी कि रुक्मिणी भी अब किसी कारण से उसकी पति-परायण, उतनी सेवाशील, उतनी तत्पर न थी। वहीं उसकी प्रगल्भता और वाचालता में आश्चर्यजनक विकास होता जाता था। अतएव प्रयाग को किसी ऐसी सिद्धि की आवश्यकता थी, जो उसे जीविका की चिंता से मुक्त कर दे और वह निश्चिंत होकर भगवद् भजन और साधु सेवा में प्रवृत्त हो जाय।
एक दिन रुक्मिणी बाजार में लकड़ियां बेचकर लौटी, तो प्रयाग ने कहा – ‘ला, कुछ पैसे मुझे दे दे, दम लगा आऊं।’
रुक्मिणी ने मुंह फेरकर कहा – ‘दम लगाने की ऐसी चाट है, तो काम क्यों नहीं करते? क्या आजकल कोई बाबा नहीं है, जाकर चिलम भरो?’
प्रयाग ने त्यौरी चढ़ाकर कहा – ‘भला चाहती है तो पैसे दे दे, नहीं तो इस तरह तंग करेगी, तो एक दिन कहीं चला जाऊंगा, तब रोयेगी।’
रुक्मिणी अंगुल दिखाकर बोली – ‘रोये मेरी बला। तुम रहते ही हो, तो कौन सोने का कौर खिला देते हो? अब भी छाती फाड़ती हूं तब भी छाती फाडूंगी।’
‘तो अब यही फैसला है ?’
‘हां-हां, कह तो दिया, मेरे पास पैसे नहीं है।’
‘गहने बनवाने के लिए पैसे हैं और मैं चार पैसे मांगता हूं तो यों जवाब देती है।’ रुक्मिणी तुनक कर बोली – ‘गहने बनवाती हूं तो तुम्हारी छाती क्यों फटती है? तुमने तो पीतल का छल्ला भी नहीं बनवाया, या इतना भी नहीं देखा जाता?’
प्रयाग उस दिन घर न आया। रात के नौ बज गये, तब रुक्मिणी ने किवाड़ बंद कर लिये। समझी, गांव में कहीं छिपा बैठा होगा। समझता होगा, मुझे मनाने आयेगी, मेरी बला जाती है।
जब दूसरे दिन भी प्रयाग न आया, तो रुक्मिणी को चिंता हुई। गांव भर छान आयी। चिड़िया किसी अड्डे पर न मिली। उस दिन उसने रसोई नहीं बनायी। रात को लेटी भी तो बहुत देर तक आंखें न लगी। शंका हो रही थी, प्रयाग सचमुच तो विरक्त नहीं हो गया। उसने सोचा, प्रातःकाल पत्ता-पत्ता छान डालूंगी, किसी साधु-संत के साथ होगा। जाकर थाने में रपट कर दूंगी।
अभी तड़का ही था कि रुक्मिणी थाने में चलने को तैयार हो गयी। किवाड़ बंद करके निकली ही थी कि प्रयाग आता हुआ दिखाई दिया। पर वह अकेला न था। उसके पीछे-पीछे एक स्त्री भी थी। उसकी छींट की साड़ी, रंगी हुई चादर, लम्बा घूंघट और शर्मीली चाल देखकर रुक्मिणी का कलेजा धक-से हो गया। वह एक क्षण हतबुद्धि-सी खड़ी रही, तब बढ़कर नयी सौत को दोनों हाथों के बीच में ले लिया और उसे इस भांति धीरे-धीरे घर के अंदर ले चली, जैसे कोई रोगी जीवन से निराश होकर विष-पान कर रहा हो।
जब पड़ोसियों की भीड़ छट गयी तो रुक्मिणी ने प्रयाग से पूछा – ‘इसे कहां से लाए?’ प्रयाग ने हंसकर कहा – ‘घर से भागी जाती थी, मुझे रास्ते में मिल गयी। घर का काम-धंधा करेगी, पड़ी रहेगी।’
‘मालूम होता है, मुझसे तुम्हारा जी भर गया।’
प्रयाग ने तिरछी चितवन से देखकर कहा – ‘धत पगली! इसे तेरी सेवा-टहल करने को लाया हूं।’
‘नयी के आगे पुरानी को कौन पूछता है?’
‘चल, मन जिससे मिले वही नयी है, मन जिससे न मिले वही पुरानी है। ला, कुछ पैसा हो तो दे दे, तीन दिन से दम नहीं लगाया, पैर सीधे नहीं पड़ते। हां, देख दो-चार दिन इस बेचारी को खिला-पिला दे, फिर तो आप ही काम करने लगेगी।’
रुक्मिणी ने पूरा रुपया लाकर प्रयाग के हाथ पर रख दिया। दूसरी बार कहने की जरूरत ही न पड़ी।
प्रयाग में चाहे और कोई गुण हो या न हो, यह मानना पड़ेगा कि वह शासन के मूल सिद्धांतों से परिचित था। उसने भेद-नीति को अपना लक्ष्य बना लिया था।
एक मास तक किसी प्रकार की विश्व-बाधा न पड़ी। रुक्मिणी अपनी सारी चौकड़ियां भूल गयी थी। बड़े तड़के उठती, कभी लकड़ियां तोड़कर, कभी चारा काटकर, कभी उपले पाथ कर बाजार ले जाती। वहां जो कुछ मिलता, उसका आधा तो प्रयाग के हत्थे चढ़ा देती। आधे में घर का काम चलता। वह सौत को कोई काम न करने देती। पड़ोसियों से कहती – बहन, सौत है तो क्या, है तो अभी कल की बहुरिया। दो-चार महीने भी आराम से न रहेगी, तो क्या याद करेगी। मैं तो काम करने को हूं ही।’
गांव भर में रुक्मिणी के शील-स्वभाव का बखान होता था, पर सत्संगी घाघ प्रयाग सब कुछ समझता था और अपनी नीति की सफलता पर प्रसन्न होता था।
एक दिन बहू ने कहा – ‘दीदी, अब तो घर में बैठे-बैठे जी ऊबता है। मुझे भी कोई काम दिला दो।’
रुक्मिणी ने स्नेह सिंचित स्वर में कहा – ‘क्या मेरे मुख में कालिख पुतवाने पर लगी हुई है? भीतर का काम किये जा, बाहर के लिए मैं हूं ही।’
बहू का नाम कौशल्या था, जो बिगड़ कर सिलिया हो साया था। इस वक्त सिलिया ने कुछ जवाब न दिया लेकिन वह लौंडियों की दशा अब उसके लिए असह्य हो गयी थी। वह दिन भर घर का काम कराते-करते मरे, कोई नहीं पूछता। रुक्मिणी बाहर से चार पैसे लाती है, तो घर की मालकिन बनी हुई है। अब सिलिया भी मजूरी करेगी और मालकिन का घमंड तोड़ देगी। प्रयाग पैसों का यार है, यह बात उससे अब छिपी न थी। जब रुक्मिणी चारा लेकर बाजार चली गयी, तो उसने घर की चटकनी लगायी और गांव का रंग–ढंग देखने के लिए निकल पड़ी। गांव में ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ, बनिये सभी थे। सिलिया ने शील और संकोच का कुछ ऐसा स्वांग रचा कि सभी स्त्रियां उस पर मुग्ध हो गयीं। किसी ने चावल दिया, किसी ने दाल, किसी ने कुछ। नयी बहू की आवभगत कौन न करता? पहले ही दौर में सिलिया को मालूम हो गया कि गांव में पिसनहारी का स्थान खाली है और वह इस कमी को पूरा कर सकती है। वह यहां से घर लौटी, तो उसके सिर पर गेहूं से भरी हुई एक टोकरी थी।
प्रयाग ने पहर रात ही से चक्की की आवाज सुनी, तो रुक्मिणी से बोला – ‘आज तो सिलिया अभी से पीसने लगी।’
रुक्मिणी बाजार से आटा लायी थी। अनाज और आटे के भाव में विशेष अंतर न था। उसे आश्चर्य हुआ कि सिलिया इतने सबेरे क्या पीस रही है। उधर कोठरी में आयी, तो देखा कि सिलिया अंधेरे में बैठी कुछ पीस रही है। उसने जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और टोकरी को उठाकर बोली – ‘तुझसे किसने पीसने को कहा है? किसका अनाज पीस रही है?’
सिलिया ने निश्शंक होकर कहा – ‘तुम जाकर आराम से सोती क्यों नहीं। मैं पीसती हूं तो तुम्हारा क्या बिगड़ता है। चक्की की घूमर-झूमर भी नहीं सही जाती? लाओ, टोकरी दे दो, बैठे-बैठे कब तक खाऊंगी, दो महीने तो हो गये।’
‘मैंने तो तुझसे कुछ नहीं कहा।’
‘तुम कहो, चाहे न कहो, अपना धरम भी तो कुछ है।’
‘तू अभी यहां के आदमियों को नहीं जानती। आटा तो पिसाते सबको अच्छा लगता है। पैसे देते रोते हैं। किसका गेहूं है? मैं सबेरे उसके सिर पर पटक आऊंगी।’
सिलिया ने रुक्मिणी के हाथ से टोकरी छीन ली और बोली – ‘पैसे क्यों न देंगे? कुछ बेगार करती हूं?’
‘तू न मानेगी?’
‘तुम्हारी लौंडी बनकर न रहूंगी।’
यह तकरार सुनकर प्रयाग भी आ पहुंचा और रुक्मिणी से बोला – ‘काम करती है तो करने क्यों नहीं देती? अब क्या जनम भर बहूरिया ही बनी रहेगी? हो गये दो महीने।’ ‘तुम क्या जानो, नाक तो मेरी कटेगी।’
सिलिया बोल उठी – ‘तो क्या कोई बैठे खिलाता है? चौका-बरतन, झाडू-बुहार, रोटी-पानी, पीसना-कूटना यह कौन करता है? पानी खींचते-खींचते मेरे हाथों में गट्ठे पड़ गये। मुझसे अब सारा काम न होगा।’
प्रयाग ने कहा – ‘तो तू ही बाजार जाया कर। घर का काम रहने दे! रुक्मिणी कर लेगी।’ रुक्मिणी ने आपत्ति की – ‘ऐसी बात मुंह से निकालते लाज नहीं आती? तीन दिन की बहुरिया बाजार में घूमेगी, तो संसार क्या कहेगा।’
सिलिया ने आग्रह करके कहा – ‘संसार क्या कहेगा, क्या कोई ऐब करने जाती हूं?’ सिलिया की हो गयी। आधिपत्य रुक्मिणी के हाथ से निकल गया।
सिलिया की अमलदारी को गयी। जवान औरत थी। गेहूं पीसकर उठी तो औरों के साथ घास छीलने चली गयी, और इतनी घास छीली कि सब दंग रह गये। गट्ठा उठाये न उठता था! जिन पुरुषों को घास छीलने का बड़ा अभ्यास था, उनसे भी उसने बाजी मार ली! यह गट्ठा बारह आने का बिका। सिलिया ने आटा, चावल, दाल, तेल, नमक, तरकारी, मसाला सब कुछ लिया, और चार आने बचा भी लिये। रुक्मिणी ने समझ रखा था कि सिलिया बाजार से दो-चार आने पैसे लेकर लौटेगी तो उसे डांटूगीं और दूसरे दिन से फिर बाजार जाने लगूंगी। फिर मेरा राज्य हो जायेगा। पर यह सामान देख तो आंखें खुल गयीं। प्रयाग खाने बैठा तो मसालेदार तरकारी का बखान करने लगा। महीनों से ऐसी स्वादिष्ट वस्तु मयस्सर न हुई थी। बहुत प्रसन्न हुआ भोजन करके यह बाहर जाने लगा, तो सिलिया बरोठे में खड़ी मिल गयी। बोला – ‘आज कितने पैसे मिले थे?’
‘बारह आने मिले थे।’
‘सब खर्च कर डाले? कुछ बचे हों तो मुझे दे दे।’
