टॉमी यों देखने में तो बहुत तगड़ा था। भौंकता तो सुनने वाले के कानों के परदे फट जाते। डील-डौल भी ऐसा कि अंधेरी रात में उस पर गधे का भ्रम हो जाता। लेकिन उसकी श्वानोचित वीरता किसी संग्रामक्षेत्र में प्रमाणित न होती थी। दो-चार दफे जब बाजार के लेंड़ियों ने उसे चुनौती दी, तो वह उनका गर्व-मर्दन करने के लिए मैदान में आया और देखने वालों का कहना है कि जब तक लड़ा, जीवट से लड़ा, नखों और दांतों से ज्यादा चोटें उसकी दुम ने की। निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि मैदान किसके हाथ रहा, किंतु जब उस दल को कुमुक मंगानी पड़ी, तो रणशास्त्र के नियमों के अनुसार विजय का श्रेय टॉमी ही को देना उचित न्यायानुकूल जान पड़ता है। टॉमी ने उस अवसर पर कौशल से काम लिया और दांत निकाल दिये, जो संधि की याचना थी। किंतु तब से उसने ऐसे सत्रीति-विहीन प्रतिद्वंद्वियों के मुंह लगना उचित न समझा।
इतना शांतिप्रिय होने पर भी टॉमी के शत्रुओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जाती थी। उसके बराबर वाले उससे इसलिए जलते कि वह इतना मोटा-ताजा होकर इतना भीरू क्यों हैं? बाजारी दल इसलिए जलता कि टॉमी के मारे घूरों पर की हड्डियां भी न बचने पाती थी। वह घड़ी-रात रहे उठता और हलवाइयों की दुकानों के सामने के दोने और पत्तल, कसाईखाने के सामने की हड्डियां और छीछड़े चबा डालता। अतएव इतने शत्रुओं के बीच में रहकर टॉमी का जीवन संकटमय होता जाता था। महीनों बीत जाते और पेट भर भोजन न मिलता। दो-तीन बार उसे मनमाने भोजन करने की ऐसी प्रबल उत्कंठा हुई कि उसने संदिग्ध साधनों द्वारा उसको पूरा करने की चेष्टा की, पर जब परिणाम आशा के प्रतिकूूल हुआ और स्वादिष्ट पदार्थों के बदले अरुचिकर दुर्गाह्य वस्तुएं भरपेट खाने को मिली, जिससे पेट के बदले कई दिन तक पीठ में विषम वेदना होती रही तो उसने विवश होकर फिर सन्मार्ग का आश्रय लिया। पर डंडों से पेट चाहे भर गया हो, वह उत्कंठा शांत न हुई। वह किसी ऐसी जगह जाना चाहता था, जहां खूब शिकार मिले; खरगोश, हिरन, भेड़ों के बच्चे मैदानों में विचर रहे हों और उनका कोई मालिक न हो, जहां किसी प्रतिद्वंद्वी की गंध तक न हो, आराम करने को सघन वृक्षों की छाया हो, पीने को नदी का पवित्र जल। वहां मनमाना शिकार करूं, खाऊं और मीठी नींद सोऊं। वहां चारों ओर मेरी धाक बैठ जाये; सब पर ऐसा रौब छा जाये कि मुझी को अपना राजा समझने लगें और धीरे-धीरे मेरा ऐसा सिक्का बैठ जाये कि किसी द्वेषी को वहां पैर रखने का साहस ही न हो।
संयोगवश एक दिन वह इन्हीं कल्पनाओं के सुख स्वप्न देखता हुआ सिर झुकाये सड़क-गलियों से चला जा रहा था कि सहसा एक सज्जन से उसकी मुठभेड़ हो गयी। टॉमी ने चाहा कि बचकर निकल जाऊं, पर वह दुष्ट इतना शांतिप्रिय न था। उसने तुरंत झपटकर टॉमी का टेंटुआ पकड़ लिया। टॉमी ने बहुत अनुनय-विनय की, गिड़गिड़ाकर कहा- ‘ईश्वर के लिए मुझे यहां से चले जाने दो; कसम ले लो, जो इधर पैर रखूं। मेरी शामत आयी थी कि तुम्हारे अधिकार क्षेत्र में चला आया।” पर उस मदांध और निर्दय प्राणी ने जरा भी रिआयत न की। अंत में हारकर टॉमी ने गदर्भ स्वर में फरियाद करनी शुरू की। यह कोलाहल सुनकर मोहल्ले के दो-चार नेता लोग एकत्र हो गये, पर उन्होंने भी दीन पर दया करने के बदले उलटे उसी पर दंत-प्रहार करना शुरू किया। इस अन्यायपूर्ण व्यवहार ने टॉमी का दिल तोड़ दिया। वह जान छुड़ाकर भागा। उन अत्याचारी पशुओं ने बहुत दूर तक उसका पीछा किया, यहां तक कि मार्ग में एक नदी पड़ गयी और टॉमी ने उसमें कूदकर अपनी जान बचायी।
कहते हैं, एक दिन सबके दिन फिरते हैं। टॉमी के दिन भी नदी मेें कूदते ही फिर गये। कूदा था जान बचाने के लिए, हाथ लग गये मोती। तैरता हुआ उस पार पहुंचा, तो वहां उसकी चिर-संचित अभिलाषाएं मूर्तिमती हो रही थीं।
यह एक विस्तृत मैदान था। जहां तक निगाह जाती थी, हरियाली की छटा दिखायी देती थी। कहीं नालों का मधुर कलरव था, कहीं झरनों का मंद गान, कहीं वृक्षों के सुखद पुंज थे, कहीं रेत के सपाट मैदान। बड़ा सुरम्य मनोहर दृश्य था।
यहां बड़े तेज नखों वाले पशु थे, जिनकी सूरत देखकर टॉमी का कलेजा दहल उठता था, पर उन्होंने टॉमी की कुछ परवाह न की। वे आपस में नित्य लड़ा करते थे, नित्य खून की नदी बहा करती थी। टॉमी ने देखा, यहां इन भयंकर जंतुओं से पार न पा सकूंगा। उसने कौशल से काम लेना शुरू किया। जब दो लड़ने वाले पशुओं में एक घायल और मुर्दा होकर गिर पड़ता, तो टॉमी लपककर मांस का कोई टुकड़ा ले भागता और एकांत में बैठकर खाता। विजयी पशु विजय के उन्माद में उसे तुच्छ समझकर कुछ न बोलता।
अब क्या था, टॉमी के पौ-बारह हो गये। सदा दीवाली रहने लगी। न गुड़ की कमी थी, न गेहूं की। नित्य नये पदार्थ उड़ाता और वृक्षों के नीचे आनंद से सोता। उसने ऐसे सुख स्वर्ग की कल्पना भी न की थी। वह मरकर नहीं, जीते जी स्वर्ग पा गया।
थोड़े ही दिनों में पौष्टिक पदार्थों के सेवन से टॉमी की चेष्टा ही कुछ और हो गयी। उसका शरीर तेजस्वी और सुगठित हो गया। अब वह छोटे-मोटे जीवों पर स्वयं हाथ साफ करने लगा। जंगल के जंतु अब चौंके और उसे वहां से भगा देने का यत्न करने लगे। टॉमी ने एक नयी चाल चली। वह कभी किसी पशु से कहता‒ तुम्हारा फलां शत्रु तुम्हें मार डालने की तैयारी कर रहा है, किसी से कहता‒ फलां तुमको गाली देता था। जंगल के जंतु उसके चकमे में आकर लड़ जाते और टॉमी की चांदी हो जाती। अंत में यहां तक नौबत पहुंची कि बड़े-बड़े जंतुओं का नाश हो गया। छोटे-मोटे पशुओं का उससे मुकाबला करने का साहस न होता था। उसकी उन्नति और शक्ति देखकर उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो यह विचित्र जीव आकाश से हमारे ऊपर शासन करने के लिए भेजा गया है। टॉमी भी अब अपनी शिकारबाजी के जौहर दिखाकर उनकी इस भ्रांति को पुष्ट किया करता था। बड़े गर्व से कहता -‘परमात्मा ने मुझे तुम्हारे ऊपर राज्य करने के लिए भेजा है। यह ईश्वर की इच्छा है। तुम आराम से अपने घर में पड़े रहो। मैं तुमसे कुछ न बोलूंगा, केवल तुम्हारी सेवा करने के पुरस्कारस्वरूप तुममें से एकाध का शिकार कर लिया करूंगा। आखिर मेरा भी तो पेट है, बिना आहार के कैसे जीवित रहूंगा और कैसे तुम्हारी रक्षा करूंगा।’ वह अब बड़ी शान से जंगल में चारों ओर गौरवान्वित दृष्टि से ताकता हुआ विचरा करता।
टॉमी को अब कोई चिंता थी तो यह कि इस देश में मेरा कोई मुद्दई न उठ खड़ा हो। वह नित्य सजग और सशस्त्र रहने लगा। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते थे और सुख-भोग का चस्का बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों उसकी चिंता भी बढ़ती जाती थी। बस अब बहुधा रात को चौंक पड़ता और किसी अज्ञात शत्रु के पीछे दौड़ता। अकसर ‘अंधा कूकुर बल से भूंके’ वाली लोकोक्ति को चरितार्थ करता। वन के पशुओं से कहता- ‘ईश्वर न करे कि तुम किसी दूसरे शासक के पंजे में फंस जाओ। वह तुम्हें पीस डालेगा। मैं तुम्हारा हितैषी हूं सदैव तुम्हारी शुभकामना में मग्न रहता हूं। किसी दूसरे से यह आशा मत रखो।’ पशु एक स्वर में कहते‒ ‘जब तक हम जियेंगे, आप ही के अधीन रहेंगे।’
आखिरकार यह हुआ कि टॉमी को क्षणभर भी शांति से बैठना दुर्लभ हो गया। वह रात-रात, दिन-दिन भर नदी के किनारे इधर से उधर चक्कर लगाया करता। दौड़ते-दौड़ते हांफने लगता, बेदम हो जाता, मगर चित्त को शांति न मिलती। कहीं कोई शत्रु न घुस आये।
लेकिन क्वार का महीना आया तो टॉमी का चित्त एक बार फिर अपनी पुरानी सहचरी से मिलने के लिए ललायित होने लगा। वह अपने मन को किसी भांति रोक न सका। वह दिन याद आया, जब दो-चार मित्रों के साथ किसी प्रेमिका के पीछे गली-गली और कूचे-कूचे में चक्कर लगाता था। दो-चार दिन तो उसने सब्र किया, पर अन्त में आवेग इतना प्रबल हुआ कि वह तकदीर ठोंककर खड़ा हुआ। उसे अब अपने तेज और बल पर अभिमान था। दो-चार को तो वही मजा चखा सकता था।
किन्तु नदी के इस पार आते ही उसका आत्मविश्वास प्रातःकाल के तम के समाने फटने लगा। उसकी चाल मन्द पड़ गयी, आप-ही-आप सिर झुक गया, दुम सिकुड़ गयी। मगर प्रेमिका को आते देखकर वह विह्वल हो उठा, उसके पीछे हो लिया। प्रेमिका को उसकी कुचेष्टा अप्रिय लगी। उसने तीव्र स्वर से उसकी अवहेलना की। उसकी आवाज सुनते ही उसके कई प्रेमी आ पहुंचे और टॉमी को वहां देखते ही आपे से बाहर हो गये। टॉमी सिटपिटा गया। अभी निश्चय न कर सका था कि क्या करूं कि चारों ओर से उस पर दांतों और नखों की वर्षा होने लगी। भागते भी न बन पड़ा। देह लहूलुहान हो गयी। भागा भी, तो शैतानों का एक दल पीछे था।
उस दिन से उसके दिल में शंका-सी समा गयी। हर घड़ी यह भय लगा रहता कि आक्रमणकारियों का दल मेरे सुख और शांति में बाधा डालने के लिए मेरे स्वर्ग को विध्वंस करने के लिये आ रहा है। यह शंका पहले भी कम न थी, अब और भी बढ़ गयी।
एक दिन उसका चित्त भय से इतना व्याकुल हुआ कि उसे जान पड़ा, शत्रु दल आ पहुंचा। वह बड़े वेग से नदी के किनारे आया और इधर-से-उधर दौड़ने लगा।
दिन बीत गया, रात बीत गयी, पर उसने विश्राम न लिया। दूसरा दिन आया और गया, पर टॉमी निराहार, निर्जल नदी के किनारे चक्कर लगाता रहा।
इस तरह पांच दिन बीत गये। टॉमी के पैर लड़खड़ाने लगे, आंखों-तले अंधेरा छाने लगा। क्षुधा से व्याकुल होकर गिर पड़ा, पर वह शंका किसी भांति शांत न हुई।
अन्त में सातवें दिन अभागा टॉमी अधिकार-चिन्ता से ग्रस्त, जर्जर और शिथिल होकर परलोक सिधारा। वन का कोई पशु उसके निकट न गया। किसी ने उसकी चर्चा तक न की, किसी ने उसकी लाश पर आंसू तक न बहाये। कई दिनों तक उस पर गिद्ध और कौए मंडराते रहे, अन्त में अस्थि-पंजरों के सिवा और कुछ न रह गया।
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