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आयुर्वेद के पंडित आचार्य नागार्जुन को एक सहायक की आवश्यकता थी। कितने ही आयुर्वेद जानकार युवकों ने अपनी सेवाएँ उन्हें समर्पित करनी चाही पर आचार्य को केवल एक सहायक की आवश्यकता थी।

आचार्य नागार्जुन ने केवल दो युवकों को चुना। फिर उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया।

आचार्यश्री ने दोनों युवकों को भिन्न-भिन्न औषधी बनाकर लाने को कहा। औषधी बनाने के लिए एक दिन का समय दिया गया।

दोनों युवक अपने-अपने घर गये।

तीसरे दिन निश्चित समय पर दोनों

युवक आचार्यश्री के सामने

उपस्थित हुए। इनमें से एक युवक औषधी बनाकर ले आया था। दूसरा खाली हाथ ही चला आया था। उसने आचार्यश्री से क्षमा माँगते हुए कहा, ‘आचार्य महोदय! मैं औषधी तैयार नहीं कर सका।”

“कारण” आचार्य ने पूछा।

“पूज्यपाद! मैं जब यहाँ से लौटकर जा रहा था, तो मुझे मार्ग में एक रोगी मिल गया। दो दिन मैं उसकी चिकित्सा करने में लगा रहा। आज वह कुछ स्वस्थ हुआ है। मुझे दो दिन का समय और दें तो बड़ी कृपा होगी।

दूसरे युवक ने सोचा कि बाजी मार लेने का यह अच्छा अवसर है। वह बोला- “आचार्य प्रवर! मेरे सामने भी अनेक कठिनाइयाँ थीं। मेरी पूज्य माताजी बीमार थी। फिर भी मैं आपकी आज्ञा के अनुसार औषध बनाने में लगा रहा।”

उसकी बात सुनकर आचार्य कुछ मुस्कुराकर बोले, “अच्छा यह बात है, तो तुम माता की बीमारी की उपेक्षा करके भी औषधी बनाने में लगे रहे?”

फिर आचार्य नागार्जुन यकायक गंभीर हो गये और बोले, तुम जाकर अपनी बीमार माता की सेवा करो।

“मैंने इस युवक को अपना सहायक चुन लिया है।” दूसरे युवक को लगा कि आचार्य का निर्णय न्याय संगत नहीं है।

तब आचार्य ने उसे समझाते हुए कहा, “औषधी लोगों को रोग- मुक्त करने के लिए है। उसे बनाने वाला यदि रोगनाश के अपने कर्तव्य से विमुख होता है, तो यह अनुचित है।”

ये कहानी ‘ अनमोल प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंAnmol Prerak Prasang(अनमोल प्रेरक प्रसंग)