Panchtantra ki kahani .युधिष्ठिर कुम्हार ने सच कहा., लेकिन
Panchtantra ki kahani .युधिष्ठिर कुम्हार ने सच कहा., लेकिन

किसी नगर में एक कुम्हार रहता था । उसका नाम था युधिष्ठिर । एक बार की बात, वह कहीं जा रहा था । अचानक उसका पैर फिसला और वह गिर गया । नीचे एक सख्त और धारदार घड़े का टुकड़ा पड़ा था । वह उसके माथे पर जा लगा । बहुत सा खून बह आया । उसने उस घाव पर पड़ी बँधवाई । फिर भी माथे पर पक्का निशान बन गया जो दूर से ही नजर आता था ।

एक बार की बात, उस राज्य में भीषण अकाल पड़ा । युधिष्ठिर कुम्हार किसी दूसरे राज्य की ओर चल दिया । वहाँ राजा के पास जाकर उसने काम माँगा । राजा का ध्यान उसके माथे पर लगी चोट पर गया । सोचने लगा, ‘यह तो जरूर कोई वीर और पराक्रमी राजपूत है । माथे पर किसी अस्त्र का गहरा निशान दिखाई पड़ता है । लगता है, युद्ध-कला में इसका कोई सानी नहीं है । ऐसे वीर की तो हमें कद्र करनी चाहिए ।’

सोचकर रजा ने उसी समय उसे सेना की एक टुकड़ी का नायक बना दिया । अब युधिष्ठिर के दिन हँसी-खुशी बीतने लगे ।

एक दिन शत्रु राजा ने उस राज्य पर आक्रमण कर दिया । राजा ने संकट के समय अपनी सेना की सभी टुकड़ियों के प्रमुख सरदारों को बुलाया । फिर युधिष्ठिर को अलग से बुलाकर पूछा, “देखो भाई, यों तो तुम्हारे माथे पर लगा निशान तुम्हारी वीरता की कहानी कह रहा है । फिर भी बुरा न मानो तो अपना परिचय दो कि तुम कहाँ के हो? और किस युद्ध में तुम्हें माथे पर यह भयानक घाव लगा था ।”

युधिष्ठिर ने सोचा कि राजा ने मुझे आश्रय दिया है । इसलिए मुझे राजा को सब कुछ सच-सच बताना चाहिए । बोला, “महाराज, सच बात तो यह है कि मैं कोई वीर राजपूत नहीं, बल्कि बरतन बनाने वाला कुम्हार हूँ । एक दिन मैं गिर गया तो एक टूटे हुए घड़े का टुकड़ा मेरे माथे पर चुभ गया । उसी से यह चोट लगी ।”

सुनकर राजा का चेहरा उतर गया । अपनी मूर्खता पर उसे बड़ी लज्जा आई । बोला, “ठीक है, अब तुम तुरंत यहाँ से दूर जाने की तैयारी कर लो । तुम जिस काम के लिए रखे गए थे, उसके लिए योग्य नहीं हो ।”

युधिष्ठिर बड़ा दुखी हुआ । बोला, “महाराज, आप एकबार मुझे आजमाकर देख लीजिए । मेरी स्वामीभक्ति में कोई कसर नहीं है । मैं आपके लिए खुशी-खुशी जान देने के लिए भी तैयार हूँ । मुझे युद्ध-क्षेत्र में अपनी बहादुरी का प्रदर्शन करने का एक अवसर आप दें ।”

राजा बोला, “हमें तुम्हारी स्वामिभक्ति पर कोई संदेह नहीं है । पर स्वामिभक्त होना अलग बात है और युद्ध में शत्रुओं की सेना से लड़ना और शत्रु-सेना का मुकाबला करना अलग बात है । मुझे लग रहा है, तुम लड़ नहीं पाओगे । हाँ दूसरे सैनिकों का मनोबल भी गिराओगे । इसलिए यह बेहतर है कि तुरंत यह राज्य छोड़कर चले जाओ ।”

युधिष्ठिर उसी समय उस राज्य को छोड़कर चल दिया । उसके दुख का कोई अंत नहीं था ।

रास्ते में वह यह सोचता जा रहा था, ‘लगता है, मैंने खुद अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार ली । मैं अपने माथे की चोट की कोई कल्पित कहानी भी तो सुना सकता था । लेकिन मैंने बेकार सच बोलकर अपने लिए आफत मोल ले ली ।’ सच्ची बात तो यह है कि कभी-कभी जहाँ थोड़ी सी होशियारी की जरूरत हो, वहाँ सच बोलना भी उलटा पड़ जाता है, जैसा कि युधिष्ठिर कुम्हार के साथ हुआ । अब तो जो भी उसकी कहानी सुनता, बरबस मुसकरा देता । और वह कुम्हार युधिष्ठिर भी अपमान का घूँट पीकर रह जाता ।