namuchiya mard
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

राधनपुर के राजा को जचे, ऐसा अद्भुत स्वागत-सम्मान वाव के राणा सवजी ने किया। अबील-गुलाल की आंधी में धूल का तो मानो राज ही लुट गया। धीबांग..धीबांग बज रहे ढोल की आवाज में गानेवालियों के गाने मानो कहीं पर फंस गये। सफेद दाढी के फरफरते …….पर गुलाल के थर जम गये। इसके साथ ही मानव-समुद्र ने एक ही आवाज में राधनपुर महाराज की जय-जयकार गुंजा दी। लेकिन राधनपुर के राजा सवजी के प्रधान को देखता रहा। फूल की माला उन्हें भी पहनाई गई तब तो राजा को भी कुछ गुदगुदी-सा हुआ। पहले तो राजा को ऐसा लगा कि यह कोई औरत है! एकदम सफेद चेहरा, मुंह पर थोड़े से भी रोंगटे नहीं! राजा ने देखा कि वाव के सभी लोग उसके साथ अदब से पेश आ रहे थे। खुद वाव के राणा भी उनके वचन की उपेक्षा नहीं करते थे। ऐसे अजीब आदमी को देखकर एक बार राजा ने पूछ भी लिया।

  • “ये नमूछिये चाचा कौन हैं?” राणा वाव सवजी ने खुशी से अपने प्रधान का परिचय देते हुए कहा- “ये हैं केरो सोलंकी! हमारे वाव के प्रधान हैं!”
  • “क्या? ऐसे प्रधान?” राजा ने आश्चर्य से पूछा।

राणा सवजी तो इस बात को हजम कर गये लेकिन केरो सोलंकी भीतर से जल उठा। गुस्से से वे मानो कांपने लगे। ‘नमुछिया’ जैसे अपशब्द से केरो की आंखों में मानो लाल-लाल अंगारे भर दिए। उनकी धमनी की रगें मानो टूटने लगी। लेकिन मेहमान का मान रखने के लिए केरो सोलंकी अपमान को गले के नीचे उतार गये।

वाद्ययंत्रों के नाद के साथ राजा को महल में लाया गया। तब राधनपुर के राजा ने काम के लिए केरो सोलंकी को बुलाया।

  • “नमुछिया चाचा! यहां आईए!” अब करो सोलंकी के लिए सह पाना मुश्किल था। उस ने खून धंस आने से लालघूम हुए चहेरे पर हाथ फेरते हुए कहा- “महाराज! जो चीटक सके तो शेर की ही मूछे चीटकाऊ!”
  • “ऐसी बात है? इतनी ताकत है तो ले आओ शेर की मुछे! मैं भी तो देखू!” राधनपुर के राजा ने केरो सोलंकी की वीरता की हंसी ही उड़ाई। केरो सोलंकी की काया तपाये हुए तांबे जैसी हो गई। उसके रोम-रोम में अपमान के कारण मानो घाव उठे थे। अपने म्यान में से तेजी से तलवार निकाल कर वे बोले- “राजाजी! आपके देखते ही अगर शेर की मूछे न ले आऊं तब तक मेरे लिए अन्नजल अग्राज!”

सवाजी और वाव के भायात …हां..हां… करते रहे और केरो सोलंकी खुली तलवार लिए राजदरबार में से चल दिए।

केरो सोलंकी याने वीरता का अवतार! वाव के स्थापक वजाजी ने केरो सोलंकी को खास तालीम देकर तैयार किया था। वजाजी एक बार शिकार करने गये थे तो एक लड़का वटवृक्ष पर आराम से बैठ कर वजाजी का शिकार करने का कौशल्य देख रहा था। ऐसे भीषण जंगल में मौत की परवा किए बिना वट की डाल पर झूल रहे आठ-दस बरस के उस लडके को देखकर चौहाण को अचरज हुआ। उन्होंने लडके से पूछा- “यहां क्यों बैठा है?”

  • “तुम शेर को किस तरह से मारते हो यह देखणे!”
  • “तुझे डर नहीं लगता?”
  • “किसका? शेर का?” और वह लडका किलकारी करने लगा“राणाजी! उससे तो मेरा कुत्ता ज्यादा ताकत रखता है!”

वजाजी के आश्चर्य का पार न रहा। उन्होंने लडके से उसका नाम पूछा तब उसने बताया-” मैं डुंगर सोलंकी का लडका हूं! मेरा नाम केरो! यहां भैंस चराने आया था!”

वजाजी इस छोटे से लडके की हिम्मत पर फिदा हो गये और उसे वाव ले आकर बडा किया। वजाजी की मृत्यु के बाद सवाजी गद्दी पर बैठे, तब केरो प्रधान हुआ।

लगभग तेरहवीं सदी के काल में वाव के चारों ओर भयानक जंगल था। केरो सोलंकी उस जंगल में घुसा और एक शेर को पकड़ भी लाया और उसे पिंजरे में रखा। भूखे शेर के आगे केरा ने एक बकरे को धर दिया और कुछ देर के बाद वह खुद तलवार लेकर पिंजरें में घुसा। शेर ने सर ऊंचा किया। राधनपुर के राजा, सवाजी और बाहर खडे लोग की सांसे मानो गले में ही अटक गई। भोजन कर रहे शेर को छेडने का मतलब, मौत को सामने से ही भेटना! सबको लगा कि चंद क्षणों में ही शेर कूदकर केरो सोलंकी को घायल कर देगा। सब लोग कांप रहे थे। उस वक्त केरा ने जरा भी डरे बिना शेर का जबडा पकड लिया। और शेर की मंछ के बाल काट ही लिए और उसे जोर से एक धक्का देकर बाहर निकल गये। छलांग लगाने ऊंचे हुए शेर के पैर वहीं रुक गये। शेर का सर पिंजरे से टकराया। वह भयानक गर्जना करता हुआ पिंजरे में ही कूदा। पिंजरे का दरवाजा बंद हो चुका था। पिंजरा शेर के अधैर्य से डोलने लगा था। शेर ने सिर्फ कायरतापूर्ण रोना रोया और खुद-ब-खुद चुप हो गया। केरा ने बाहर आकर राधनपुर के राजा के हाथ में मूंछ रखते हुए कहा- “लिजिए बापू! अब आप ही मेरे नमुछिये होंठ पर ये मूछे चिटकाइए!”

वाव की प्रजा केरा सोलंकी के नाम का जयनाद कर रही थी। राधनपुर के राजा की छाती भी गजगज फूल उठी- “धन्य-धन्य केरा! मांग ले जो चाहे वह!”

  • “नहीं बापू! आपकी कृपा चाहिए बस!”
  • “नहीं केरा! तू नहीं मांगेगा तब भी मैं तुझे देता हूं! जा, पीपली की गद्दी आज से तेरी। मैं जागीर में बारह गांव देता हूं। तेरे जैसे वीर नर मेरे पास होंगे तो राधनपुर का राज अमर रहेगा!”
  • “बापू! मेरे लिए तो मेरा वाव ही भला। जिसका नमक खाया है, उसका बदला इस अवतार तक भी दे सकू तो भी बहुत!” केरा ने कहा।

राधनपुर के राजवी ने केरा को बहुत समझाया। लेकिन वह सम्मत नहीं हुआ। केरा सोलंकी जब तक जिया, तब तक वाव की राजगद्दी की रक्षा करता रहा। वाव के ऊपर जब फौजे आई, तब लडते-लडते वह वीरगति को प्राप्त हुआ! केरा सोलंकी का सिर कट कर जहां पर पडा था वहां पर आज भी एक तालाब है, जिसे केरा तलावडी के नाम से जाना जाता है!

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’