भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
नरा गोहिल की कनपट्टियां सफेद बास्ता जैसी हो गई। आंखों में पीलापन दिखने लगा। और उसकी भंवर और सर में भी एक भी काला बाल खोजने से मिले, ऐसी स्थिति नहीं थी। फिर भी मौत अभी भी बारह योजन दूर थी। नरा चाइडिया के मन में एक ही बात का अफसोस रह गया था कि- जीतवा! तुझे इतने रण मैदानों में भी शरीर को कुतरने वाले असंख्य घाव पड़े फिर भी मौत नहीं आई और अब इस बुढ़ापे में भी कायर की तरह खटिया में मरणा पड़ेगा?
नरा चाइडिया के कलेजे में जरा-सा भी चैन नहीं था। मांगने से मौत थोड़ी ही मिलती है? मरना तो है लेकिन खाट में नहीं, रणमैदान में। लेकिन युद्ध के मैदान में मौत न मिली। इतने में वाव के कारेली गांव में सिंधियों ने काले करतूत किए।
सिंध से उतर आये सिंधियों ने कारेली गांव की मिट्टी पलित कर दी। चार जितने सिरफिरे आदमियों को मार कर गांव को लूटा। धन और सोना-चांदी के ऊंट भर कर सिंधी चले गये। लोभ का तो भला अंत होता है क्या? नहीं तो इतना कुछ लूट लेने के बाद भी धन के भूखे सिंधियों ने गायों को भी हर लिया और सिंध की ओर भागे। गांव से छटक कर दो-चार बहादुरों ने वाव के राणा के आगे फरियाद की। राणा ने उसी वक्त पच्चीस असवारों को तैयार किया। अभी ये असवार वाव से प्रस्थान करे इससे पहले नरा गोहील पीठ में तलवार बांध कर आ गया।
- “राणा जी। इन जवानों को रहने दो। मै अकेला ही वे सिंधियों को भारी पडूंगा!”
- “अरे चाचू! तुमने राज की क्या कम सेवा की है? अब इस बुढ़ापे में यह दौड़-धूप कहां करेंगे?”
- “अरे, मेरे राणाजी! मेरे को तो धारातीर्थ करणा है! नरा चाइडिया सोते-सोते मर जावें इ ठीक नाहीं मेरे मालिक! मुझे तो तलवार चलाते-चलाते मरणा है!” नरा गोहिल ने कहा।
वाव के राणा नरा गोहिल को ना न कह सके। जिसे धारातीर्थ जाना हो उसे ना भी कैसे बोल सके? राजपूतों में ऐसी मान्यता थी कि जो रणमैदान में परोपकार के काम करते-करते मरे, उसे धारातीर्थ करने के बराबर का पुण्य मिले। खाट में मरना यह तो राजपूत वीर के लिए कलंक के समान गिना जाता था और जिंदगी भर वीरोचित जीवन जीने वाला आदमी तो रणमैदान में मरना ही चाहे ना!
वाव के राणा की अनुमति लेकर नरा गोहिल अकेला ही घोड़ी पर सवार होकर निकल पड़ा और केरा तालाब के पास दुश्मनों को रोक कर खड़ा रहा। नरा गोहिल का नाम सुनकर सिंधी घबरा गये। नरा गोहिल का नाम मारवाड राजपूताना कच्छ और सिंध में भी प्रख्यात था। नरा ने ललकार की। इसके साथ ही सारे सिंधियों ने मानो हार स्वीकारते हुए कहा- “नरा भा। सारा माल आप को सुपुर्द करते है। हमें जीवित छोड दो।”
- उफ्फ!…. कायर सिंधी! क्या बकते हो? मुझे मुश्किल से धारातीर्थ का लाभ मिला है और तम लोग ये क्या कहते हो? सिंधी! मै तो मरणे आया हूं। लेकिन तुम जैसे पापियों को ठिकाने लगा कर ही। जिससे धरती पर पाप का इतना भार तो कम!”
और सिंधी अभी कुछ समझे, इससे पहले नरा ने सिंधी के सरदार का मस्तक धड से अलग कर ही दिया। भाग जाने को उत्सुक बने सिंधियों को नरा ने फिर से ललकारा। रास्ता रोके खडा रहकर नरा उन्हें लड़ने को उत्तेजित करता रहा। फिर भी जो भाग खड़े हुए उनके सिर नरा काट ही लेता था। सिंधियों को लगा कि इस तरह से कट जाने से तो बेहतर होगा कि एकजुट होकर सामना किया जाये। फिर तो भागने की पैरवी कर रहे सिंधियों ने एक होकर नरा पर हमला किया। जान बचाने के लिए सिंधियों ने घमासान लड़ाई की। लगभग एक घण्टे तक यह लड़ाई चली। नरा ने दस से भी ज्यादा सिंधियों को हमेशा-हमेशा के लिए सुला दिया। इतने में उसकी तलवार के दो टुकड़े हो गये। उसकी देह तलवार के घावों से छलनी हो चुकी थी। नरा घोड़ी पर से गिर पड़ा। बाकी रहे सिंधी जान बचा कर भाग गये। नरा के पीछे आ रही राज की कुमक को सिंधियों ने लूटा माल सुपुर्द कर नरा ने हमेशा के लिए आंखें बंद कर ली।
इस देश में मौत का भी मातम मनाया जाता था। उम्र पक जाये तो खुद ही मौत को स्वीकार लेना। और वह भी परोपकार के लिए। खाट में मरने के बजाय एक वीर की हैसियत से हंसते-हंसते रण मैदान में अपने आप ही मौत को आलिंगन देने वाले नरा गोहिल की खांभी आज भी केरा तालाब के पास खड़ी है। शायद धारातीर्थ की पावनकारी महिमा इसके कारण ही उज्जवल होगी। एक चारण ने तो नरा गोहिल की प्रशस्ति करते हुए गाया
भगारो भैस भावारो भत्रीजो
शादुळ रो दीकरो देह चावो
बख्तरां पाखरां भीडियां जुज बोले
खोडियो अने खा खेल खेले
नहीं नरारो जोडियो….
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
