nadi kinare santa claus
nadi kinare santa claus

“ओह!” सांताक्लाज ने अपनी लाल टोपी उतारकर फिर करीने से पहन ली। माथे का पसीना पोंछा और धीरे से मुसकरा दिया।…

नदी किनारे बरगद के एक पुराने पेड़ के नीचे बैठा सांता अपनी थकान उतार रहा था। यहाँ का शांत वातावरण और दूर-दूर तक छाई हरियाली उसे पसंद थी। आम, जामुन, शिरीष, नीम और पीपल के दरख्तों की लंबी कतारें भी, जिनके कारण यहाँ दिन में भी काफी ठंडक औऱ अँधेरा रहता था।

उसके होंठों पर एक मीठी गुनगुनाहट सी थी। बड़ी भली-भली। जैसे मन ही मन कुछ गा रहा हो।

धीरे-धीरे उसकी आवाज हवा की लहरों के साथ सुर में सुर मिलाते हुए, नदी के शांत सोए जल में भी हलचल भरने लगी—

गाए जा, मन तू गाए जा,

मीठी सी एक तान उठा जा।

सोया है जल शांत नदी का,

सोई-सोई आज हवाएँ,

सोए-सोए पेड़ ओढ़कर

मधुर चाँदनी की यह चादर।

थर-थर, थर-थर मन के भीतर

थर-थर, थर-थर देखो बाहर,

सोया-सोया आसमान है,

तू उसमें भी भर जा हलचल।

भर जा हलचल,

भर-भर हलचल,

चल-चल सांता, चल तू चल-चल…!

चल रे मन तू,

चल-चल, चल-चल…!

गुनगुनाते हुए सांता फिर अपनी उसी दुनिया में चला गया, जहाँ आजकल बड़ी हलचल मची हुई थी।…

“तो जल्दी ही आने वाला है वो दिन…! हर बार की तरह इस साल का भी मेरा सबसे व्यस्त और हलचलों भरा। पूरी दुनिया के बच्चों के लिए रंग-बिरंगे उपहारों, प्यार-दुलार और…और तमाम जादू वाली चीजों का दिन, जब कि हर बच्चे को मेरा इंतजार रहता है। पूरी रात अजब सी भागमभाग…! अजब सी उत्सुकता, रोमांच और प्यारे-प्यारे उपहारों का मेला…! ओह, कितना अनोखा है यह दिन… !” कहते-कहते सांता के चेहरे पर एक निर्मल उजास सी छा गई।

सच्ची बात तो यह है कि क्रिसमस वाले दिन यहाँ से वहाँ दौड़ते और दुनिया भर के बच्चों की इच्छा पूरी करते, सांताक्लाज एकदम थककर चूर हो जाता था। पर मन में इस बात की खुशी छलछला रही होती कि न जाने कितनों को उसने खुशियाँ बाँटीं, न जाने कितनों के आँसू पोंछे! न जाने कितने बच्चों के सपनों में खिलखिलाए उजली हँसी के फूल…!

पर…उसके लिए सांता को अभी से कितनी तैयारियाँ करनी थीं। कितनी अधिक तैयारियाँ, इसे कोई क्या जाने? अपना विशाल पिटारा उसे सुंदर-सुंदर, रंग-बिरंगे और लुभावने उपहारों से भरना था। और फिर ये सुंदर उपहार क्रिसमस की रात को ही सब बच्चों तक पहुँचाने भी थे। बस, एक ही उसूल था उसका, कि जिसकी ज्यादा जरूरत हो, उसे पहले। और फिर इस बात की चिंता तो उसे थी ही कि कहीं कोई बच्चा, जिसे उसकी जरूरत है, छूट न जाए।

बरसोंबरस से चला आता था यह सिलसिला। और अब तो उसे इसी में सुख मिलता था। दुनिया के हजारोंहजार बच्चों से दोस्ती का सुख। “सांता…सांता…सांता…!” वह जिधर भी जाता, हवाओं में गूँजती बस यही पुकार सुनाई देती। नन्हे-नन्हे होंठों की भोली सी पुकार। भला उसे कौन अनसुना कर सकता है?

सो क्रिसमस के आने से पहले ही सांताक्लाज की व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी। वह खुश था, बहुत खुश…कि अपने हजारोंहजार दोस्त बच्चों की आँखों में खुशी की चमक भरने के लिए वह कुछ तो कर पाया। पर सुबह से शाम तक यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ दौड़ते-भागते हुए उसका बरसों पुराना खूबसूरत लाल लबादा और लंबी सफेद दाढ़ी भी कुछ धूल-धूसरित और अस्त-व्यस्त हो गई थी। कभी-कभी माथे पर हलकी शिकन और उदासी भी आ जाती थी। पर फिर ध्यान आता कि कोई कुछ भी कहे, उसे तो बच्चों को ढेर सारी मुसकान और खिलखिलाहटें बाँटनी हैं। हर हाल में…!

और यह बात मन में आते ही उसके दाढ़ीदार होंठों पर बड़ी मीठी, प्यारी मुसकान सज जाती। वह धीरे से ‘जिंगल…जिंगल…’ जैसा अपना कोई मनपसंद गीत गुनगुनाने लगता था।

“ओह!” सांताक्लाज ने अपनी लाल टोपी उतारकर फिर करीने से पहन ली। माथे का पसीना पोंछा और धीरे से मुसकरा दिया।…

नदी किनारे बरगद के एक पुराने पेड़ के नीचे बैठा सांता अपनी थकान उतार रहा था। यहाँ का शांत वातावरण और दूर-दूर तक छाई हरियाली उसे पसंद थी। आम, जामुन, शिरीष, नीम और पीपल के दरख्तों की लंबी कतारें भी, जिनके कारण यहाँ दिन में भी काफी ठंडक औऱ अँधेरा रहता था।

उसके होंठों पर एक मीठी गुनगुनाहट सी थी। बड़ी भली-भली। जैसे मन ही मन कुछ गा रहा हो।

धीरे-धीरे उसकी आवाज हवा की लहरों के साथ सुर में सुर मिलाते हुए, नदी के शांत सोए जल में भी हलचल भरने लगी—

गाए जा, मन तू गाए जा,

मीठी सी एक तान उठा जा।

सोया है जल शांत नदी का,

सोई-सोई आज हवाएँ,

सोए-सोए पेड़ ओढ़कर

मधुर चाँदनी की यह चादर।

थर-थर, थर-थर मन के भीतर

थर-थर, थर-थर देखो बाहर,

सोया-सोया आसमान है,

तू उसमें भी भर जा हलचल।

भर जा हलचल,

भर-भर हलचल,

चल-चल सांता, चल तू चल-चल…!

चल रे मन तू,

चल-चल, चल-चल…!

गुनगुनाते हुए सांता फिर अपनी उसी दुनिया में चला गया, जहाँ आजकल बड़ी हलचल मची हुई थी।…

“तो जल्दी ही आने वाला है वो दिन…! हर बार की तरह इस साल का भी मेरा सबसे व्यस्त और हलचलों भरा। पूरी दुनिया के बच्चों के लिए रंग-बिरंगे उपहारों, प्यार-दुलार और…और तमाम जादू वाली चीजों का दिन, जब कि हर बच्चे को मेरा इंतजार रहता है। पूरी रात अजब सी भागमभाग…! अजब सी उत्सुकता, रोमांच और प्यारे-प्यारे उपहारों का मेला…! ओह, कितना अनोखा है यह दिन… !” कहते-कहते सांता के चेहरे पर एक निर्मल उजास सी छा गई।

सच्ची बात तो यह है कि क्रिसमस वाले दिन यहाँ से वहाँ दौड़ते और दुनिया भर के बच्चों की इच्छा पूरी करते, सांताक्लाज एकदम थककर चूर हो जाता था। पर मन में इस बात की खुशी छलछला रही होती कि न जाने कितनों को उसने खुशियाँ बाँटीं, न जाने कितनों के आँसू पोंछे! न जाने कितने बच्चों के सपनों में खिलखिलाए उजली हँसी के फूल…!

पर…उसके लिए सांता को अभी से कितनी तैयारियाँ करनी थीं। कितनी अधिक तैयारियाँ, इसे कोई क्या जाने? अपना विशाल पिटारा उसे सुंदर-सुंदर, रंग-बिरंगे और लुभावने उपहारों से भरना था। और फिर ये सुंदर उपहार क्रिसमस की रात को ही सब बच्चों तक पहुँचाने भी थे। बस, एक ही उसूल था उसका, कि जिसकी ज्यादा जरूरत हो, उसे पहले। और फिर इस बात की चिंता तो उसे थी ही कि कहीं कोई बच्चा, जिसे उसकी जरूरत है, छूट न जाए।

बरसोंबरस से चला आता था यह सिलसिला। और अब तो उसे इसी में सुख मिलता था। दुनिया के हजारोंहजार बच्चों से दोस्ती का सुख। “सांता…सांता…सांता…!” वह जिधर भी जाता, हवाओं में गूँजती बस यही पुकार सुनाई देती। नन्हे-नन्हे होंठों की भोली सी पुकार। भला उसे कौन अनसुना कर सकता है?

सो क्रिसमस के आने से पहले ही सांताक्लाज की व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी। वह खुश था, बहुत खुश…कि अपने हजारोंहजार दोस्त बच्चों की आँखों में खुशी की चमक भरने के लिए वह कुछ तो कर पाया। पर सुबह से शाम तक यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ दौड़ते-भागते हुए उसका बरसों पुराना खूबसूरत लाल लबादा और लंबी सफेद दाढ़ी भी कुछ धूल-धूसरित और अस्त-व्यस्त हो गई थी। कभी-कभी माथे पर हलकी शिकन और उदासी भी आ जाती थी। पर फिर ध्यान आता कि कोई कुछ भी कहे, उसे तो बच्चों को ढेर सारी मुसकान और खिलखिलाहटें बाँटनी हैं। हर हाल में…!

“ओह!” सांताक्लाज ने अपनी लाल टोपी उतारकर फिर करीने से पहन ली। माथे का पसीना पोंछा और धीरे से मुसकरा दिया।…

नदी किनारे बरगद के एक पुराने पेड़ के नीचे बैठा सांता अपनी थकान उतार रहा था। यहाँ का शांत वातावरण और दूर-दूर तक छाई हरियाली उसे पसंद थी। आम, जामुन, शिरीष, नीम और पीपल के दरख्तों की लंबी कतारें भी, जिनके कारण यहाँ दिन में भी काफी ठंडक औऱ अँधेरा रहता था।

उसके होंठों पर एक मीठी गुनगुनाहट सी थी। बड़ी भली-भली। जैसे मन ही मन कुछ गा रहा हो।

धीरे-धीरे उसकी आवाज हवा की लहरों के साथ सुर में सुर मिलाते हुए, नदी के शांत सोए जल में भी हलचल भरने लगी—

गाए जा, मन तू गाए जा,

मीठी सी एक तान उठा जा।

सोया है जल शांत नदी का,

सोई-सोई आज हवाएँ,

सोए-सोए पेड़ ओढ़कर

मधुर चाँदनी की यह चादर।

थर-थर, थर-थर मन के भीतर

थर-थर, थर-थर देखो बाहर,

सोया-सोया आसमान है,

तू उसमें भी भर जा हलचल।

भर जा हलचल,

भर-भर हलचल,

चल-चल सांता, चल तू चल-चल…!

चल रे मन तू,

चल-चल, चल-चल…!

गुनगुनाते हुए सांता फिर अपनी उसी दुनिया में चला गया, जहाँ आजकल बड़ी हलचल मची हुई थी।…

“तो जल्दी ही आने वाला है वो दिन…! हर बार की तरह इस साल का भी मेरा सबसे व्यस्त और हलचलों भरा। पूरी दुनिया के बच्चों के लिए रंग-बिरंगे उपहारों, प्यार-दुलार और…और तमाम जादू वाली चीजों का दिन, जब कि हर बच्चे को मेरा इंतजार रहता है। पूरी रात अजब सी भागमभाग…! अजब सी उत्सुकता, रोमांच और प्यारे-प्यारे उपहारों का मेला…! ओह, कितना अनोखा है यह दिन… !” कहते-कहते सांता के चेहरे पर एक निर्मल उजास सी छा गई।

सच्ची बात तो यह है कि क्रिसमस वाले दिन यहाँ से वहाँ दौड़ते और दुनिया भर के बच्चों की इच्छा पूरी करते, सांताक्लाज एकदम थककर चूर हो जाता था। पर मन में इस बात की खुशी छलछला रही होती कि न जाने कितनों को उसने खुशियाँ बाँटीं, न जाने कितनों के आँसू पोंछे! न जाने कितने बच्चों के सपनों में खिलखिलाए उजली हँसी के फूल…!

पर…उसके लिए सांता को अभी से कितनी तैयारियाँ करनी थीं। कितनी अधिक तैयारियाँ, इसे कोई क्या जाने? अपना विशाल पिटारा उसे सुंदर-सुंदर, रंग-बिरंगे और लुभावने उपहारों से भरना था। और फिर ये सुंदर उपहार क्रिसमस की रात को ही सब बच्चों तक पहुँचाने भी थे। बस, एक ही उसूल था उसका, कि जिसकी ज्यादा जरूरत हो, उसे पहले। और फिर इस बात की चिंता तो उसे थी ही कि कहीं कोई बच्चा, जिसे उसकी जरूरत है, छूट न जाए।

बरसोंबरस से चला आता था यह सिलसिला। और अब तो उसे इसी में सुख मिलता था। दुनिया के हजारोंहजार बच्चों से दोस्ती का सुख। “सांता…सांता…सांता…!” वह जिधर भी जाता, हवाओं में गूँजती बस यही पुकार सुनाई देती। नन्हे-नन्हे होंठों की भोली सी पुकार। भला उसे कौन अनसुना कर सकता है?

सो क्रिसमस के आने से पहले ही सांताक्लाज की व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी। वह खुश था, बहुत खुश…कि अपने हजारोंहजार दोस्त बच्चों की आँखों में खुशी की चमक भरने के लिए वह कुछ तो कर पाया। पर सुबह से शाम तक यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ दौड़ते-भागते हुए उसका बरसों पुराना खूबसूरत लाल लबादा और लंबी सफेद दाढ़ी भी कुछ धूल-धूसरित और अस्त-व्यस्त हो गई थी। कभी-कभी माथे पर हलकी शिकन और उदासी भी आ जाती थी। पर फिर ध्यान आता कि कोई कुछ भी कहे, उसे तो बच्चों को ढेर सारी मुसकान और खिलखिलाहटें बाँटनी हैं। हर हाल में…!

और यह बात मन में आते ही उसके दाढ़ीदार होंठों पर बड़ी मीठी, प्यारी मुसकान सज जाती। वह धीरे से ‘जिंगल…जिंगल…’ जैसा अपना कोई मनपसंद गीत गुनगुनाने लगता था।

ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंBachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)