Mulla Nasruddin
Mulla Nasruddin

Mulla Nasruddin ki kahaniya: धूल, धुआँ और बदबू से भरी सिपाहियों की एक गंदी बैरक में पहरेदार एक घिसे-पिटे नमदे पर बैठे हुए थे, जो पिस्सुओं का अखाड़ा बना हुआ था। अपने जिस्मों को खुजाते हुए वे नसरुद्दीन के पकड़ने की सँभावनाओं पर विचार-विमर्श कर रहे थे।

तीन हज़ार तके ज़रा सोचो तो । तीन हज़ार तंके और जासूस ख़ास का ओहदा ।’

‘कोई-न-कोई तो क़िस्मत का धनी होगा ही । ‘
काश, वह कोई मैं ही होता।’ एक मोटा आलसी पहरेदार बोला। यह सबसे ज़्यादा बेवकूफ़ पहरेदार था। उसे नौकरी से इसलिए बर्खास्त नहीं किया गया था कि उसने छिलके समेत कच्चे अंडे खाने का हुनर सीख लिया था। अक्सर यह हुनर दिखाकर वह अमीर का मन बहलाया करता था और उससे बख़्शीश पाता रहता था। यह अलग बात है कि बाद में उसे पेट के दर्द से तड़पना पड़ता था ।

चेचक के दागों वाला जासूस तूफ़ान की तरह वहाँ पहुँचा, ‘यहीं है नसरुद्दीन-यहीं है-बाज़ार में जनाने लिबास में यहीं है। यहीं है बाज़ार में। ‘
सिपाही फाटक की ओर लपके और अपने हथियार उठाकर बाहर निकल गए।
वे कहते जा रहे थे, ‘इनाम मेरा है। सुन रहे हो ना, सबसे पहले मैंने देखा है। इनाम मुझे मिलना चाहिए।’ जासूस कह रहा था ।
बाज़ार में सिपाहियों के पहुँचते ही लोग तितर-बितर होने लगे। और फिर चारों ओर घबराहट और भगदड़ मच गई। सिपाही भीड़ में घुस गए, जो सबसे ज़्यादा जोश में था और आगे-आगे दौड़ रहा था, उसने एक और को पकड़ लिया और उसका नकाब फाड़ डाला। औरत का चेहरा भीड़ में नंगा हो गया।
वह ज़ोर से चीख़ उठी। तभी दूसरी ओर से एक चीख़ और सुनाई दी। फिर तीसरी औरत की चीख सुनाई दी, जो सिपाहियों से जूझ रहीं थी और फिर चौथी – पाँचवीं । पूरा बाज़ार औरतों की चीखों और रोने-चिल्लाने की आवाज़ों से भर गया।

हक्की-बक्की भीड़ चुपचाप खड़ी देखती रह गई। इससे पहले बुखारा में ऐसी वहशियाना हरकत कभी देखी-सुनी नहीं गई थी। कुछ लोग भयभीत होकर पीले पड़ गए। कुछ गुस्से से लाल हो गए। हर एक के दिल में बगावत जाग उठी थी। सिपाही औरतों को पकड़ने, उन्हें इधर-उधर धकेलने, मारने पीटने और
उनके कपड़े फाड़ने की क्रूरता – भरी हरकतें करते रहे।

‘बचाओ- बचाओ!’ औरतें चिल्ला रही थीं। यूसुफ लुहार ने भीड़ पर काबू पाकर ऊँची आवाज़ में कहा, ‘ऐ मुसलमानो, तुम क्यों झिझक रहे हो? क्या तुम दिन-दहाड़े अपनी औरतों की बेइज़्ज़ती बर्दाश्त करते रहोगे?’

‘बचाओ, बचाओ।’ औरतें चीख उठीं।

भीड़ में गुर्राहट सुनाई देने लगी। बेचैनी आ गई? एक भिश्ती ने अपनी घरवाली की आवाज़ पहचान ली। वह उसे बचाने दौड़ा। सिपाहियों ने उसे धकेल दिया लेकिन दो जुलाहे और तीन ताँबागर उसकी मदद के लिए दौड़ पड़े और सिपाहियों को खदेड़ दिया।

झगड़ा शुरू हो गया। धीरे-धीरे हर आदमी उसमें शामिल हो गया। सिपाही तलवारें लहराने लगे और उन पर हर ओर से बर्तनों, तश्तरियों, घड़ों, केतलियों, लकड़ी के टुकड़ों और पत्थरों की बौछारें होने लगीं। पूरे बाज़ार में लड़ाई फैल गई।

अमीर आराम से महल में ऊँघ रहे थे। अचानक वह उछले और खिड़की की ओर दौड़े, उसे खोला। लेकिन दूसरे ही पल भयभीत होकर फाटक बंद कर दिया ।

बख़्तियार दौड़ता हुआ आया। वह पीला पड़ रहा था। उसके होंठ काँप रहे थे।

अमीर ने भिनभिनाकर पूछा, ‘क्या बात है ? क्या हो रहा है वहाँ ? अर्सला बेग कहाँ है? तोपे कहाँ हैं?’

अर्सला बेग दौड़ता हुआ आया और मुँह के बल गिर पड़ा, ‘आका! मेरे आका! मेरा सिर धड़ से अलग करने का हुक्म दें।’

” हुआ क्या?”
ज़मीन पर पड़े-पड़े ही अर्सला बेग ने उत्तर दिया, ‘ऐ सूरज के मानिंद मेरे आका, मेरे… ।’
गुस्से से पैर पटकते हुए अमीर ने कहा, ‘ख़ामोश ! यह तेरे-मेरे फिर कर लेना। बता वहाँ क्या हो रहा है?”

मुल्ला नसरुद्दीन मेरे आका ! मुल्ला नसरुद्दीन ! वह औरत के वेश में आया है। सारी बदमाशी उसी की है। यह सब उसी की वजह से हो रहा है। मेरा सिर कलम करवा दीजिए।

‘लेकिन अमीर के सामने दूसरी परेशानियाँ थीं।

ये कहानी ‘मुल्ला नसरुद्दीन’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Mullah Nasruddin(मुल्ला नसरुद्दीन)