aur ghadee ruk gaee moral story
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जब से मुनमुनलाल ने घड़ी बनाई, उसका तो सिर ही फिर गया है। किसी से सीधे मुँह बात तक नहीं करता।

एक छोटे से कस्बे माणिकपुर का है मुनमुनलाल। उस छोटे से कस्बे में भला घड़ियाँ किसने देखी थीं? बल्कि आसपास के गाँवों-कस्बों के लोग भी कुछ न जानते थे। खुद मुनमुनलाल एक दफे किसी की बारात में कलकत्ता गया था, तो उसने पहलेपहल घड़ी देखी थी। देखकर हैरान रह गया था, ”अच्छा, ऐसी शै भी है इस धरती पर!’

तभी उसने निश्चय किया था कि कभी मौका मिले, तो वह भी ऐसी घड़ी बनाकर दिखा देगा।

मुनमुनलाल का तब ताले ठीक करने का काम था। औजारों की थोड़ी बहुत जानकारी थी। कुछ औजार हाथ से भी बना लेता था। ताले ठीक करते-करते उसने दिमाग लगाया और बहुत सारे पुर्जे बनाने के बाद उन्हें जोड़कर एक दिन घड़ी बना डाली।

घड़ी चल पड़ी—टिक-टिक, टिक-टिक! और मुनमुनलाल का दिल बल्लियों उछलने लगा, ”अरे वाह, मैंने तो घड़ी बना ली। वाह रे वाह, यारो, मैंने तो घड़ी बना ली!’

पूरे माणिकपुर के लोग आए और यह घड़ी देखकर गए। सब हैरान थे कि आखिर मुनमुनलाल ने घड़ी कैसे बना ली!

मुनमुनलाल ने मुसकराकर कहा, ”पिछले पूरे पाँच साल पुर्जे तैयार करने में लगाए हैं। तब बनी है यह घड़ी। कोई खेल नहीं है।”

लेकिन पाँच साल की मेहनत से बनी घड़ी पूरे पाँच दिन भी नहीं चली और बंद हो गई। घड़ी थी भी बेडौल, कलकत्ते वाली घड़ी भला कितनी सुंदर थी!

अब तो मुनमुनलाल और सारे काम छोड़कर बस घड़ी सुधारने में जुट गया। सारे-सारे दिन वह कमरे में बंद रहता और उसके एक-एक औजार को तराशता। उसकी घिर्री में तेल डालता। उसकी कमानी को और ज्यादा चुस्त-चौकस बनाने की तरकीब सोचता। वह यह भी सोचता था कि घड़ी का पेंडुलम इतना सुंदर हो और हर घंटे बाद ‘टन्न’ करने वाली उसकी आवाज इतनी प्यारी हो कि लोग अश-अश कर उठें!

आखिर दो-ढाई महीने की मेहनत के बाद मुनमुनलाल ने ऐसी घड़ी बना ली और अपनी दुकान में टाँग ली। घड़ी थी भी सुंदर, और ‘टन्न’ की आवाज तो ऐसी मधुर जैसे कोई बुलबुल बोल रही हो!

सारे माणिकपुर में फिर से हल्ला हो गया कि मुनमुनलाल ने तो भाई, घड़ी बना ली। बड़ी ही सुंदर घड़ी बना ली!

और उस दिन के बाद से मुनमुनलाल की दुकान पर बस मेला ही लगने लगा। खासकर बच्चे तो इस तरह उमड़ते कि उन्हें हटाना ही मुश्किल।

माणिकपुर के सेठ घनश्याम दास ने कहा, ”भाई मुनमुनलाल, ऐसी एक घड़ी तो तुम हमारे लिए भी बना दो।”

मुनमुनलाल ने कहा, ”बना दूँगा सेठ जी, जरूर बना दूँगा। लेकिन देख लीजिए, पूरे पचास रुपए लगेंगे।”

सेठ घनश्याम दास ने फौरन दस-दस के पाँच नोट मुनमुनलाल की हथेली पर रख दिए। बोले, ”ठीक है, लेकिन बनाना थोड़ा जल्दी।”

मुनमुनलाल ने कोई महीने भर में उन्हें घड़ी बनाकर दे दी। इसके बाद तो मुनमुनलाल के पास फरमाइशों का ढेर लग गया। माणिकपुर के ही नहीं, आसपास के गाँव-कसबों के लोग भी आते और जिद करते, ”मुनमुनलाल, पहले हमें घड़ी बना के दो।”

मुनमुनलाल कहता, ”पहले पैसे जमा करने होंगे। जिसके पैसे पहले आएँगे, उसकी घड़ी पहले बनाकर दूँगा।”

अब तो हालत यह थी कि लोग लाइन लगाकर खड़े होते मुनमुनलाल की दुकान के आगे, घड़ी के पैसे जमा कराने के लिए। उनमें एक से एक अमीर लोग, बड़े से बड़े अफसर होते। वे आग्रह करते, ”मुनमुनलाल, हमारी घड़ी पहले बना दो।” पर मुनमुनलाल सख्ती से कहता, ”जिसके पैसे पहले आएँगे, घड़ी उसी को पहले मिलेगी।”

सुनकर सब चुप रह जाते। सोचते, ”मुनमुनलाल बात तो सही कह रहा है।’

पर कुछ दिन बाद मुनमुनलाल इतना घमंडी हो गया कि किसी से भी सीधे मुँह बात नहीं करता था। हर किसी को फटकार देता। कहता, ”मैं कोई मामूली आदमी हूँ। मैंने घड़ी बनाई है, कोई मामूली बात है ये? कोई और बनाकर तो दिखा दे!”

अब लोग मुनमनुलाल से बात करने से कतराते। पर उसकी बनाई घड़ी इतनी सुंदर होती थी कि उसे लेने के लिए लोगों को उसकी दुकान पर जाना ही पड़ता था।

मुनमुनलाल ने अब हर चीज से अपने को काट लिया। कस्बे में किसी से भी उसकी बोलचाल नहीं थी। बस, रात-दिन कमरे में बंद रहता। हर वक्त घड़ियाँ बनाता रहता।

एक-दो लोगों ने सुझाया, ”भाई मुनमुनलाल, ऐसे कब तक चलगा? यों घड़ियाँ बनाते-बनाते तो तम पागल हो जाओगे। अपनी मदद के लिए एक-दो कारीगर रख लो।”

पर मुनमुनलाल को डर था, ”अगर कारीगर रख लूँगा, तो वे घड़ी का भेद न पा जाएँगे!’ पर मन का यह भाव छिपाकर ऊपर-ऊपर से कहता, ”भाई, यह घड़ी बहुत नाजुक चीज है। कोई हँसी-ठट्ठा थोड़े ही है। उसे तो कोई मुनमुनलाल ही बना सकता है।”

सुनकर लोग चुप हो जाते। मुनमुनलाल पर उन्हें दया आती। पर मुनमुनलाल का घमंड तो जैसे सातवें आसमान पर पहुँच गया था।

मुनमुनलाल ने एक बड़ी सी घड़ी बनाकर माणिकपुर के मुख्य चौराहे पर भी लगा दी थी। खूब ऊँचाई पर, ताकि दूर-दूर से लोगों को दिखाई दे और समय का पता चलता रहे।

एक दिन एक छोटा सा बच्चा भागता-भागता आया। बोला, ”मुनमुन चाचा, तुम्हारी घड़ी तो रुक गई।”

”कौन सी घड़ी?” मुनमुनलाल चिल्लाया।

”अरे वही, चौराहे वाली!” बच्चे ने जवाब दिया।

मुनमुनलाल ने अपने औजारों का डिब्बा उठाया और भागा चौराहे की ओर। देखा, घड़ी रुकी हुई थी और लोग उसे देख-देखकर मुनमुनलाल पर फब्तियाँ कस रहे थे।

पर मुनमुनलाल ने किसी की बात नहीं सुनी। सीढ़ी लगाकर सीधा घड़ी तक पहुँचा और घड़ी के पुर्जे खोलकर उसे सुधारने में जुट गया।

घंटा बीता, फिर दो घंटे, चार घंटे, आठ घंटे बीत गए। पूरा दिन बीत गया, लेकिन घड़ी ठीक होने में नहीं आ रही थी। उधर लोग चिल्ला रहे थे, ”मुनमुनलाल, यह तुम्हारे घमंड का नतीजा है। इसीलिए घड़ी चल नहीं रही।”

जब रात का अँधेरा घिर आया, तो मुनमुनलाल ने चुपके से घड़ी उतारी और उसे कंधे पर टाँगकर घर ले आया।

रात भर मुनमुनलाल घड़ी को सुधारने में जुटा रहा। आखिर यह उसकी इज्जत का मामला था। मगर घड़ी थी कि सुधरने में ही नहीं आती थी। मुनमुनलाल बुरी तरह खीज गया। एक बार तो उसका मन हुआ कि हथौड़ी उठाकर घड़ी पर दे मारे और फिर सुबह होने पर एक नई घड़ी बनाकर वहाँ टाँग आए।

पर मुनमुनलाल ने खुद को किसी तरह समझाया। उसने सोचा, ”आधी रात से ज्यादा हो चुकी है। अब सो जाना ठीक है। सुबह उठकर फिर से काम में लगूँगा। तब हो सकता है, कोई नई बात सूझ जाए।”

मुनमुनलाल अभी घंटा-आध घंटा ही सोया होगा कि उसे लगा, उसकी बाँहों पर कोई चीज उछली है। झट से उसकी नींच खुल गई। एक छोटी चुहिया थी, जो किसी तरह उसकी बाँह पर चढ़ आई थी।

मुनमुनलाल ने जोरों से हाथ झटका, तो चुहिया उछली और ‘धम्म’ से उसी घड़ी पर जा गिरी। वह ऐन उस घड़ी की कमानी पर गिरी थी।

”ओह! सत्यानास! अब तो यह घड़ी ठीक होने से रही।” कहते-कहते मुनमुनलाल ने फिर से हाथ को झटक दिया, तो डर के मारे चुहिया फिर से उछली और कमरे के दरवाजे के पीछे गायब हो गई।

मुनमुनलाल को उस चुहिया पर बेहद गुस्सा आया। अभी वह डंडा उठाकर उस चुहिया को मारने के लिए दौड़ना ही चाहता था…कि अचानक उसके पाँव अपनी जगह ठिठके रह गए। उसे एक सुरीली टिक-टिक-टिक की आवाज सुनाई दी।

”अरे, यह तो इसी घड़ी की आवाज है!” मुनमुनलाल ने सोचा और तेजी से घड़ी को उठाकर सीधा किया, तो देखकर हैरान रह गया कि घड़ी मजे में चल रही थी, टिक-टिक, टिक-टिक…टिक!

मुनमुनलाल तो जैसे भौचक्का रह गया। सोचने लगा, ‘अरे! जिस घड़ी को ठीक करने में मैंने अपनी पूरी जान लगा दी, वह मुझसे नहीं, एक चुहिया से ठीक हुई…एक छोटी सी चुहिया से!’

मुनमुनलाल सिर पकड़कर बैठ गया और अपने आप से पूछने लगा, ”मैं घमंड किस बात का करता हूँ? मैं खुद को बड़ा तीसमार खाँ समझता हूँ। लेकिन यह छोटी सी चुहिया तो मुझसे भी ज्यादा होशियार निकली।”

अगले दिन सुबह-सुबह मुनमुनलाल चौराहे पर घड़ी टाँगने जा रहा था, तो उसकी चाल में अकड़ नहीं थी। उसने चौराहे पर खड़े लोगों को रात की घटना के बारे में बताया और कहा, ”आप लोग मुझे माफ कर दीजिए। मैं अपने को बहुत महान समझने लगा था। सोचता था, मैंने बहुत बड़ी खोज की, इसलिए घड़ी बनाने की कला अपने तक ही रखूँगा। किसी और को नहीं पता चलने दूँगा। पर नहीं, आज मुझे अपनी गलती पता चल गई। आज से मैं घड़ियाँ बनाऊँगा नहीं, आप लोगों को घड़ियाँ बनाना सिखाऊँगा।”

और सचमुच मुनमुनलाल ने इतने लोगों को घड़ी बनाना सिखा दिया कि माणिकपुर में घर-घर घड़ियाँ बनने लगीं। पूरी दुनिया में माणिकपुर में बनी घड़ियों की माँग होने लगी। लोग अब मुनमुनलाल की तारीफ करते नहीं थकते थे।