MK. Sir
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

“एम.के. सर दिखे क्या?” मयंक ने अपने से आगे वाली सीट पर बैठे राहुल से पूछा।

“अभी तक तो नहीं दिखे।” राहुल ने स्कूल बस की खिड़की से बाहर देखते हुए कहा।

“क्या बात हो गई आज? या तो वे लेट हैं या हम!” मयंक बोला।

“एम.के. सर ने तो क्या लेट होना है। हमारी स्कूल बस ही एक-दो मिनट लेट है।” राहुल उसी तरह खिड़की से बाहर देखते हुए कह रहा था। तभी वह एकदम जोश में आकर कहने लगा, “वो देखो, वे जा रहे एम.के. सर!”

राहुल की बात सुनते ही बस में बैठे अनेक बच्चों के चेहरे सड़क की बाईं तरफ वाले फुटपाथ की ओर घूम गए। फुटपाथ पर उनके स्कूल के गणित के अध्यापक, दिनेश सर, तेजी से चलते हुए स्कूल की ओर जा रहे थे।

सड़क पर पैदल चलते दिनेश सर को देखकर कुछ बच्चे मुस्कराने लगे और कुछ बच्चों की हँसी छूट गई।

“हर रोज पैदल स्कूल आने-जाने में थक नहीं जाते होंगे एम.के. सर?” बस में बैठा नीरज बोला।

“चाहे थक जाते हों, पर स्कूल आना-जाना तो मुफ्त में ही हो जाता है न इससे! न बस का खर्चा, न रिक्शा का!” मयंक मजाक उड़ाने के अंदाज में कहने लगा।

“और नहीं तो कम-से-कम एक साइकिल तो खरीद ही सकते हैं न एम.के. सर! इतना ज्यादा चलना तो नहीं पड़ा करेगा न हर दिन!” बस में बैठे बच्चों की ओर देखते हुए राहुल ने कहा।

“साइकिल खरीदने पर रुपए क्यों खर्च करेंगे एम.के. सर? जिस चीज के बगैर काम चल सकता हो, चलाना चाहिए।” मयंक ने गंभीर-सा मुँह बनाते हुए कहा तो बाकी बच्चों की हँसी फूट पड़ी।

“इतना पैसा बचाकर करेंगे क्या वे?” मयंक का सहपाठी, शिवम बोला।

“उनके घिसे हुए जूते फट जाएँगे तो नए नहीं खरीदने पड़ेंगे क्या? नए जूतों के लिए ही करते होंगे इतनी कंजूसियाँ!” नीरज की इस बात पर बस में बैठे दूसरे बच्चे हँसने लगे।

सुबह बस में बैठकर स्कूल जाते समय उन बच्चों को दिनेश सर हर रोज पैदल जाते दिखाई दे जाते थे। बच्चों को उन्हें पैदल स्कूल जाते हुए देखने की ऐसी आदत हो गई थी कि कुछ बच्चे तो टकटकी लगाकर फुटपाथ की ओर देखते रहते जब तक कि दिनेश सर उन्हें दिख नहीं जाया करते।

इतना तो उन बच्चों को समझ आ गया था कि खर्च बचाने के लिए ही दिनेश सर पैदल स्कूल आया-जाया करते थे। बच्चों ने यह भी देखा था कि दिनेश सर के कपड़े बड़े साधारण-से होते थे। उनके पास सिर्फ दो-तीन जोड़ी कपड़े ही थे और वे सब बड़े पुराने-पुराने-से दिखते थे। उनके जूते घिसे हुए होते थे। उनकी कलाई घड़ी भी बहुत पुरानी थी। मोबाइल फोन तो वे रखते ही नहीं थे। बच्चों को इधर-उधर से यह भी पता चला था कि दिनेश सर किराए के एक छोटे-से कमरे में अपने परिवार के साथ रहा करते थे।

इन्हीं सब बातों की वजह से बच्चों ने उनका नाम एम.के. सर रख दिया था। एम.के. यानी महा कंजूस।

“आज टीचर्स डे है। एम.के. सर कम-से-कम आज तो अच्छे कपड़े पहनकर आते स्कूल!” शिवम बोल उठा।

“और कम-से-कम आज तो पैदल मार्च न करते, बस या रिक्शा में आ जाते स्कूल!” राहुल बोला।

“अगर ऐसा होता तो फिर हमें उनका नाम एम.के. सर के बदले कुछ और नहीं रखना पड़ता क्या?” मयंक ने जैसे ही यह कहा, बाकी बच्चे हँसने लगे।

तभी बस स्कूल के सामने पहुँचकर रुक गई और बच्चे बस से उतरने लगे।

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी शिक्षक दिवस के मौके पर स्कूल में एक कार्यक्रम रखा गया था। इस वर्ष के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। वहाँ के जिलाधीश महोदय। स्कूल के विद्यार्थी और अध्यापक गण कार्यक्रम स्थल पर पहुँचकर कुर्सियों पर बैठने लगे। कुछ देर बाद कार्यक्रम शुरू हो गया।

कार्यक्रम के दौरान जब मुख्य अतिथि महोदय के भाषण का समय आया तो उन्होंने माइक के सामने खड़े होकर अपना भाषण देना शुरू किया। भाषण की शुरूआत करते हुए वे कहने लगे, ‘‘मैं इस स्कूल में कई सालों बाद आया हूँ। आप सोच रहे होंगे कि मैं इस स्कूल का छात्र रह चुका हूँ, मगर ऐसा नहीं है। मैं इस स्कूल का विद्यार्थी कभी नहीं रहा, पर इस स्कूल में एक-दो मिनटों के लिए आने का मौका मुझे अनेक बार मिला है। दरअसल, मैं इस स्कूल के गणित के अध्यापक दिनेश सर से मिलने बहुत बार इस स्कूल में आ चुका हूँ। यह कहने में मुझे गर्व हो रहा है कि आज मैं जो कुछ भी हूँ, वह दिनेश सर के कारण ही हूँ। अगर ये मेरी स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई के खर्च में मेरी मदद न करते तो मैं तो कभी पढ़ ही नहीं पाता और अपने पिताजी की तरह मजदूर बनकर रह जाता। इस स्कूल में मैं दिनेश सर से अपनी फीस और किताबों के लिए रुपए लेने ही आया करता था।” इतना कहकर मुख्य अतिथि महोदय कुछ देर के लिए रुके।

फिर उन्होंने आगे कहना शुरू किया, “आप लोग शायद इस बात को नहीं जानते, पर मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि दिनेश सर ने जैसे मेरी मदद की, वैसे ही उन्होंने दूसरे कई बच्चों की भी मदद की और ऐसा ही आज भी कर रहे हैं। इसी कारण ये इतने साधारण तरीके से रहते हैं और बड़ा सोच-समझकर घर का खर्च चलाते हैं ताकि ज्यादा-से-ज्यादा पैसा बचाकर ज्यादा-से-ज्यादा बच्चों की मदद कर सकें।”

यह सब कहते-कहते मुख्य अतिथि महोदय फिर थोड़ी देर के लिए रुके। सामने मेज़ पर पड़े पानी के गिलास से उन्होंने एक घूँट पानी पिया और उसके बाद आगे कहने लगे, ‘‘आप सोच रहे होंगे कि आज के जमाने में जब कोई किसी दूसरे को एक पैसा भी बगैर मतलब के नहीं देता, तो फिर दिनेश सर अपने खर्च में से बचत कर-करके गरीब बच्चों की मदद क्यों करते हैं। इसकी भी एक वजह है जो दिनेश सर ने कभी मुझे बताई थी। दरअसल, दिनेश सर बहुत गरीब घर में पैदा हुए थे। इनके पिता जी के पास थोड़ी-सी जमीन थी जिस पर खेती करके घर का गुजर-बसर होता था, फिर भी दिनेश सर के पिताजी इन्हें किसी तरह स्कूल में पढ़ने भेजा करते थे।”

कार्यक्रम में उपस्थित सभी लोग मुख्य अतिथि महोदय का भाषण बड़े ध्यान से सुन रहे थे। महोदय आगे कहने लगे, ‘‘दुर्भाग्य से किसी बीमारी के कारण दिनेश सर के पिता जी का देहान्त हो गया। अब सर के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं था कि वे पढ़ाई छोड़कर अपनी माता जी के साथ अपनी जमीन पर खेती करने का काम करें। पढ़ाई छोड़ने का फैसला करने के बाद जब दिनेश सर अपनी किताबें बेचने के लिए किताबों की एक दुकान पर गए तो बातों-बातों में दुकानदार को किताबें बेचने की वजह मालूम पड़ गई। वह दुकानदार इतना भलामानस था कि उसने दिनेश सर से वादा किया कि वह उनकी स्कूल और कॉलेज की फीस तब तक भरता रहेगा, जब तक सर की पढ़ाई पूरी नहीं हो जाती। इस तरह उस दुकानदार की मदद से दिनेश सर की पढ़ाई हुई। इसी कारण दिनेश सर भी जितना हो सके, गरीब बच्चों की मदद करते हैं।”

मुख्य अतिथि महोदय के मुँह से यह सब सुनकर कार्यक्रम स्थल बड़ों और बच्चों की तालियों से गूँज उठा।


अगले दिन यानी छ: सितम्बर की सुबह के समय वही स्कूल बस स्कूल की तरफ जा रही थी। बस में बैठे बच्चों को जब रास्ते में दिनेश सर फुटपाथ पर पैदल चलते दिखाई दिए तो कोई बच्चा उन पर नहीं हँसा, उल्टा बच्चों के सिर दिनेश सर के सम्मान में झुक गए।

तभी मयंक कहने लगा, ‘‘दोस्तों, हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि दिनेश सर जैसे महान अध्यापक हमें पढ़ा रहे हैं।”

“बिलकुल सही बात है।” राहुल ने मयंक की बात का समर्थन किया और फिर जोर से नारा लगाया, ‘‘दिनेश सर की जय हो!”

बस में बैठे दूसरे बच्चों ने भी यही नारा दोहराया। बच्चों की आवाज इतनी ऊँची थी कि उसे सड़क पर आते-जाते दूसरे लोगों के साथ-साथ दिनेश सर ने भी सुना। दिनेश सर ने मुस्कराकर बच्चों की ओर देखते हुए अपना हाथ हिलाया और फिर दुगने उत्साह से स्कूल की ओर बढ़ने लगे।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’