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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

शकुन शहनाई की आवाज सुनकर बेचैन हो जाता है। उसके पैर अनायास तेज चलने लगते है। दिल की धड़कन तेज हो जाती है, यह आवाज जिस अतीत को वह भुला देना चाहती है। बरबस ही सामने लाकर पटक देती है। आंख और नाक में जलन के साथ-साथ गले में अवरोध उत्पन्न हो जाता है।

शायद इन्हीं सुरों ने कभी उसे भी गुदगुदाया था शुभकामनाएं दी थीं। परन्तु आज उसे चिढ़ा रहे हैं या उसके दर्द को कुरेद रहे हैं। उसे जीवन में कुछ भी हासिल नहीं हआ था। न बुजर्गों के आशीर्वाद और न ही शहनाई की शुभकामनाओं ने ही साथ दिया।

शिक्षित परिवार की प्रथम संतान थी, शकुन के जन्म के समय माता-पिता अत्यन्त प्रसन्न थे। उसे चलना, बोलना, खेलना सब कुछ उन्हें एक अद्भुत आनंद देता था परन्तु उसका यह सौभाग्य अधिक दिनों तक बना नहीं रह सका जब पुत्र की प्रतीक्षा में लगातार दो अन्य पुत्रियां सरिता और सरला का जन्म हो गया और बहुप्रतीक्षित पुत्र मधुर का जन्म हुआ तो तीनों बेटियां बोझ बन गई।

शकुन पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ घरेलू काम-काज में भी कुशल थी उसने कभी किसी प्रकार की सुविधा की अपेक्षा नहीं की। इसके बावजूद अच्छा परीक्षा फल मिलता रहा। हमेशा उसे अपने ही घर में अपनेपन की कमी का अनुभव होता रहता था। जिसके कारण अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए भी कुछ प्रस्ताव रखने में भी हिचकिचाती थी। अपना मन मारकर रह जाती। क्योंकि अक्सर मां उससे कहती-लड़कियों को बड़े-बड़े सपने नहीं देखना चाहिए अपने घर जाकर चाहे जो करो यहां हमसे जो बनता है कर देते हैं। दोनों छोटी बहनें तो लड़ झगड़ कर अपने मन की कर लेतीं परन्तु शकुन कुछ न कह पाती। दिन-रात मेहनत के पश्चात शकुन ने हाईस्कूल परीक्षा अच्छे अंकों से पास किया तो घर खुशी से भर गया कई लोगों ने माता-पिता को भी आकर बधाई दिया बस उसी समय शकुन ने पापा से कहा-पापा मैं डॉक्टर बनाना चाहती हूँ। पापा कुछ कहें इसके पहले ही मां ने कमान हाथ में ले ली और कहा-कौन यहां खजाना रखा हुआ है। शादी ब्याह भी फोकट में थोड़ी हो जायंगे। सीधे-सीधे बी.ए. करो और जाओ अपने घर वहां जाकर जो करना हो वह करना। उसकी कल्पना, महत्वाकांक्षा प्रतिभा सब के पर कट गए उसका मन भी पढ़ाई से उचटने लगा फिर भी बी.ए. में उसने अच्छी सफलता प्राप्त की। मधुरभाषिता, मितभाषिता उसके गुणों में गिने जाते थे। माता-पिता ने वर की तलाश शुरू कर दी थी जब कभी नकारात्मक उत्तर मिलता घर में तनाव की स्थिति बन जाती थीं और शकुन स्वयं को ही उस स्थिति के लिए जिम्मेदार समझती।

दो-चार दिन पहले मां से मिलने उनकी एक सहेली आई तब शकुन कपड़े सुखा रही थी-गौर वर्ण एकहरा बदन देखकर एकाएक बोल उठी-बिमला। बड़ी गुणी और सुन्दर है रे तेरी बेटी जिस घर जायगे घर जगमगा उठेगा। मां ने एक गहरी सांस ली और कहा-सुन्दर और गुणी होने से क्या होता है….है तो करम जली किसी से कुण्डली ही नहीं मिलती…..हमारे लिए तो छाती का पीपल हो गई है, इसकी शादी हो तो दूसरी दो और है उनके लिए कोशिश करेंगे। ऐसी उपेक्षापूर्ण बातें उसे अंदर तक आहत कर देती लेकिन उसने भी नियति के साथ सामंजस्य स्थापित कर ही लिया था। जब भी कोई मेहमान या अड़ोसी-पड़ोसी भी मां या पिताजी से मिलने आते उलाहना मिश्रित दया दिखलाकर चल देते।

शकुन रातों को तकिया गीला करने के सिवा और कुछ नहीं कर सकती थी। हर सुबह एक भय लेकर ही आती थी। कहीं कोई और ताना न मिलें। जैसे-जैसे दिन बीतते बोझ और अधिक बढ़ता जाता था। एक दिन शकुन ने सुना पिता जी मां से कह रहे थे-लड़का वकील है। अभी तक ठीक से जम नहीं पाया है। धीरे-धीरे जम ही जायेगा कहते हैं कुछ बुरी आदतें भी हैं। शादी के बाद जब जिम्मेदारी बढ़ती हैं तो सारी आदतें आप ही आप छूट जाती है। मां ने कहा-ठीक ही तो है। जो कुछ उसके भाग्य में होगा वही होगा। जहां-तहां तो प्रयास कर ही चुके है। कुण्डली ही नहीं मिलती। वैसे कुछ मांग तो नहीं है? पिता-मांग……अभी तक तो कुछ नहीं कहा है। अगले सप्ताह आने वाले हैं, तब शायद कुछ कहें।

शकुन सब कुछ सुनते-सुनते ही भावना से ग्रसित हो चुकी थी। चाहे जो जैसा कह दे कर देती थी ।

घर में मेहमानों के स्वागत की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थी। मिठाईयां बनवाई गईं कुछ बाहर से भी मंगवाई गईं। पर्दे बदले गए यहां तक की कोना-कोना चमकाया गया। वह समय भी आ गया जब मेहमानों ने घर में कदम रखा। मां-पिता जी भाई बहन यहां तक की दादी भी उनकी सेवा में लग गई। शकुन सोच रही थी यह सब वास्तव में अतिथि सत्कार न होकर चापलूसी है। सभी यही सोचकर सब कर रहे थे, कहीं छोटी सी भी गलती इन्हें नाराज न कर दे और ये विवाह के लिए मना करके चल दें।

मेहमानों में वकील साहब मिलिंद तो नहीं आए थे। उनके दो मित्र अनिकेत और पराग, मम्मी कमला देवी और पिता चन्द्रशेखर ही आए थे। औपचारिक स्वागत के पश्चात बातचीत का सिलसिला प्रारंभ हुआ। कमला देवी अपने पुत्र की तारीफ करते नहीं थक रही थी। वहीं पापा चुप-चाप बैठे रहे। अनिकेत और पराग ने जब कुछ कहना चाहा मम्मी बीच में बोल पड़ती और बात अन्य दिशा की ओर बढ़ जाती। शायद मम्मी कुछ तथ्यों को छुपाकर ही रखना चाहती थी बातचीत का सारांश लगभग यही निकल रहा था कि यद्यपि मिलिंद ने वकालत की डिग्री तो ले लिया है परन्तु काम नहीं करते अपनी ही गलतियों के कारण गुमसुम से रहने लगे हैं। इसके अलावा माता कमला देवी से घर का काम-काज संभल नहीं रहा है ऊपर से नौकरानियों के नखरे इन सभी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिया गया कि मिलिंद का विवाह किसी सीधी-सादी भारतीय संस्कृति में पली-बढ़ी लड़की से कर दिया जाये। खोज प्रारंभ हुई। उसी समय चक्रधर जी की बड़ी बेटी शकुन के बारे में पता चाला और उनकी समस्या की जानकारी भी मिल ही चुकी थी। अतः मिलिंद के चाल-चलन नौकरी पेशा वगैरह के बारे में खोजबीन होने की संभावना भी कम ही थी। विवाह तय हो गया। वह शुभ दिन आ पहुंचा आंगन में मंगल गीत गूंजने लग शहनाई गूंजने लगा शहनाई गूंजने लगी और माता-पिता के कन्यादान कर शकुन का हाथ मिलिंद के हाथों में सौंप दिया। शकुन पराई हो गई। उसे सती कथाओं से सिंचित किया गया था। कहा गया था लड़की की डोली मायके से उठती है और ससुराल से अर्थी। शकुन इन कथा कहानियों से उब चुकी थी। उसके अपने विचार थे परन्तु उन विचारों को प्रकट करना या उन पर अमल करने की स्वतंत्रता उसे कभी मिली ही नहीं थी। ससुराल पहुँच कर भी उसे अनुभव हुआ कि उसका अपना कोई अस्तिव ही नहीं है। यहां के दिनों में थोड़ा सा परिवर्तन आ गया था। छोटी-छोटी गलतियों में लोग कहते-लाओ तुम्हारी डिग्री यहां फ्रेम कराके टांग दें। पता नहीं मां ने क्या सिखाया है इत्यादि-इत्यादि। बस ऐसे ही दिन गुजर जाते।

मिलिंद रोज समय पर तैयार होकर कचहरी के लिए निकल जाते थे। परन्तु अधिकतर देर रात लौटकर चुप-चाप सो जाते। शकुन को उसका व्यक्तित्व बड़ा रहस्मय-सा लगता था वह सिर्फ उससे ही नहीं घर के किसी भी सदस्य से बातचीत नहीं करता था। यहां तक की तीज-त्यौहारों में भी शामिल नहीं होता था। अन्य सदस्य भी उसके किसी भी क्रियाकलाप में हस्तक्षेप नहीं करते थे सच तो यह है कि लोग इतने परेशान हो चके थे कि उस ओर ध्यान देना भी छोड़ दिया था कोई उनका हाल-चाल तो दूर की बात है खाने-पीने के लिए भी नहीं पूछते थे। शकुन का मन हमेशा दहशत से भरा रहता था। उसके अंदर जिज्ञासा तो बहुत थी परन्तु पूछने की हिम्मत ही नहीं थी खैर! उसने भी इस हालात से सामंजस्य बना लिया बस! घर के काम में ही व्यस्त रहती थी।

अभी कुछ दिनों से मिलिंद की दिनचर्या में बदलाव आने लगा था। वह अक्सर घर पर ही रहता कचहरी जाना भी कम कर दिया था। कभी-कभी ही कचहरी जाता। लोगों ने इसे एक अच्छा परिवर्तन समझा इसलिए उसकी समस्या पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। एक दिन जब वह बिस्तर से उठ ही नहीं सका तो डॉक्टर को दिखाया गया और अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। टोने टोटके, ज्योतिष पंडितों का भी सहारा लिया गया। परन्तु कुछ फायदा नहीं हुआ और वह चल बसा। शकुन को लग रहा था जैसे सभी इस परिणाम के लिए आश्वस्त थे फिर भी कछ हद तक तो उसे ही जिम्मेदार ठहराया गया, क्योंकि स्त्री का सौभाग्य केवल पुरुष ही होता है सावित्री ने तो सत्यावान को मौत से छुड़ा लिया था शकुन वह नहीं कर सकी इसलिए उसे अभागिन करार दिया गया, सहानुभूति दिखलाते हुये भी लोग उसे चुभती-सी कोई न कोई बात जरूर कह देते थे लेकिन वह खामोश रहती। समय बीतता गया जल्द ही वातावरण सामान्य हो गया परन्तु शकुन की स्थिति नहीं बदली। जब कभी वह घर में अपने लिए कुछ काम या नौकरी के बारे में कहती तो लोग उसे झिड़क देते और कहते-घर में क्या कमी है? जो बाहर जाकर काम करोगी। बस वह चुप हो जाती। मां पिताजी का दायित्व तो सिर्फ विवाह तक ही था। उसके बाद उन्होंने उसके जीवन में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा। कभी-कभार हालचाल ले लिया करते थे। वह इतनी समस्या ग्रस्त थी कि मां पिताजी ने कभी उसे मायके बुलाना भी उचित नहीं समझा। इसी बीच सरला और सरिता का भी विवाह हो गया। पता नहीं उनका जीवन कैसा है? सरिता ने तो मन से माता-पिता की अनुमति के बिना विवाह कर लिया था इसलिए मां-पिता ने उसे कभी भी घर नहीं बुलाया बल्कि उसे भुला ही दिया। शकुन मिलिंद की खामोशी और अपनी जिम्मेदारियों के कारण घर नहीं जा पायी थी।

समय बीतता गया। मधुर का विवाह तय हो गया। माता-पिता बहुत खुश थे। पिता जी स्वयं शकुन के घर विवाह का निमंत्रण देने आये थे। विशेष आग्रह भी किया था। सभी जाने के लिए उत्साहित थे, कपड़े-जूते सभी तैयार कर लिये गए। शकुन के मन में किसी प्रकार का उत्साह नहीं था और न ही वह विवाह में सम्मिलित होना चाहती थी। फिर भी वह चली गई। इतने उत्साहपूर्ण वातावरण में भी वह अपने आपको अकेला ही पाती थी। जब भी वह किसी काम के लिए आगे बढ़ती लोग उसे शामिल होने से मना कर दिया गया। उसे वह माहौल उपेक्षापूर्ण अपमान जनक लग रहा था। उसे लगातार अपना अतीत याद आ रहा था। मंगल गीत, शहनाई सभी उसे चिढ़ाते हुये से लग रहे थे। मन बहुत बेचौन हो उठा था और इसी बेचैनी या छाती का पीपल होकर जीवन नहीं बितायेगी बल्कि जियेगी अपनी जिन्दगी जियेगी।

सभी नेग चार समाप्त हो चुके थे। मेहमान अपने-अपने घर लौटने लगे। सभी को विदाई दी जाने लगी। मेहमानों के साथ आये हुये नौकर-चाकरों को यथा योग्य विदाई दे दी गई।

चलने का समय हो गया, गाड़ी आ गई। आज पहली बार शकुन ने दृढ़तापूर्वक कहा-मैं वापस नहीं जाऊंगी और न ही मैं किसी पर बोझ या छाती का पीपल बनकर खड़ी रहूंगी। उसकी दृढ़ता को देखकर सभी भौंचक्के रह गये। कुछ देर तो जैसे सन्नाटा छा गया तभी पिताजी ने सलाह दिया-जब तक कुछ काम नहीं है, तब तक तो वहां जाकर रहो जैसे ही काम मिल जाये चले जाना। सास-ससर, देवर-जेठ सभी ने यही सलाह दिया पर वह नहीं मानी निकल पड़ी वह काम की तलाश में कुछ ने जोर जबरदस्ती भी किया अकेली महिला और दुनिया का डर घर की इज्जत सभी वास्ता दिया उसने जो कदम बढ़ा दिया था वह बहुत मजबूत था। वह हर छोटा मोटा काम करने को तैयार थी। उसी दिन उसे दर्जी की दुकान में बटन हुक फाल इत्यादि का काम मिल गया गया जिससे उसे तुरंत पैसे मिले रात वह मंदिरों के सरायों में बिता देती और दिन में काम करने चली जाती इस तरह एक डेढ़ महीने में ही उसने सराय छोड़ दिया और एक छोटा-सा किराया का कमरा लेकर उसमें रहने लगी। सुनते हैं शीघ्र ही उसने उस कमरे में ही अपना कार्य प्रारंभ कर दिया।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’