avshesh naad
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

विचारों का झंझावात उसे दूर, बहुत दूर उड़ाए लिए जा रहा था। अंतर्मन में भयंकर आंधी-तूफान चल रहा था। वह किसी निर्णय पर पहुंचना चाहती थी, किसी ठोस निर्णय पर। भीतरी घमासान आंसुओं की रिमझिम के जरिए उसके जख्मों को हरा किए जा रहा था।

कल ही की बात लग रही थी जब—

“शाबास मैडम! आप बहुत बहादुर हो। आपने पुलिस वाले को पटखनी दी है।” आत्मरक्षा कैंप के पुलिस प्रशिक्षक ने उसकी पीठ थपथपाई। उसका चेहरा प्रशंसा सुनकर चमचमाने लगा। उसमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा था, तभी अन्य सहकर्मियों की तुलना में अकेले उसने साहस का परिचय दिया था। स्त्री-अधिकारों की हिमायती वह सातवीं-आठवीं की छात्राओं को इतिहास पढ़ाते हुए ऐतिहासिक स्त्री-पात्रों के अदम्य साहस का जिस संजीदगी से वर्णन करती वह इतना प्रभावी होता कि छात्राओं के चेहरों पर कठोरता छा जाती। उनकी आंखें वीरता की लहरें झलकाती और वे अतीत, वर्तमान और भविष्य के प्रिज्म से निकले इन्द्रधनुष को अपने व्यक्तित्व के आकाश में टांकती वीर बालाएं प्रतीत होतीं।

उस दिन घर पहुंची तो मां ने बताया, बुआ ने रिश्ता भेजा है और लड़के वाले उसे देखने आ रहे हैं। उसने मां-बाप पर छोड़ दिया, उसके लिए जिसे वे पसंद करेंगे उससे चुपचाप शादी कर लेगी।

देखने-दिखाने की औपचारिक रस्म के बाद उसका रिश्ता पक्का हो गया। खाता-पीता परिवार, ग्रेजुएट प्रॉपर्टी डीलर लड़का, अपना फ्लैट, एक विवाहित भाई। उसे देखने के बाद आम लड़कियों की तरह उसने भी सपने संजोने शुरू कर दिए। अभी तो बात पक्की हुई है। सगाई-शादी में अभी समय था। इस बीच एक बार भी लड़के ने उससे मिलने की कोशिश नहीं की।

‘असीम सारा दिन बिजी रहते होंगे शायद। असीम-सीमा-असीम की सीमा, सीमा का असीम।’ वह प्यार में खोने लगी। तीन महीने में उसका विवाह हो गया। वे लोग बहुत जल्दी मचा रहे थे। उसे विदा करते हुए मां ने शिक्षा दी- ‘कभी लड़कर घर मत आना, अपनी सेवा से सास-ससुर का दिल जीतना, कभी किसी से ऊंचा मत बोलना। सार यह कि बेटी! तेरी डोली मायके से उठी है तो अर्थी ससुराल से उठनी चाहिए। दहेज के सामान के साथ हिदायतों की पोटली थामे सीमा ससुराल आ गई।

वह खुश थी… बहुत-बहुत खुश। सुने-सुनाए और देखे-दिखाए के आधार पर उसने भविष्य का जो राजमहल बनाया था वह आज उसकी आंखों के सामने था। बंगले की ख्वाहिश उसे नहीं थी बस प्यार करने वाला पति चाहिए था, वह उसे मिल गया। प्रोपर्टी डीलर और वह भी ऐब रहित। असीम खाता-पीता नहीं था यानि कीचड़ में कमल।

मध्यमवर्ग के सपने भी मध्यम होते हैं। कोई ऊंची उड़ान नहीं। दो अजनबी एक ही छत के नीचे सारा जीवन गुजार देते हैं सिर्फ प्रेम की कच्ची डोर थामे। मशीनी युग में पैसे की हाय-हाय आदमी को मशीन बना रही है, अशांति और अविश्वास इसी की देन है। वह इन सबसे परे संतुष्टि से अपने परिवार के साथ जीवन बसर करेगी सिर्फ असीम के प्यार के सहारे।

खुशबू वाली रात, दोस्तों से घिरा असीम उनसे बड़ी मुश्किल से पिण्ड छुड़ाकर अपने कमरे तक पहुंचा। अभी वह नई-नवेली के पास बैठा-भर था कि रूपाली ने चूड़ियां खनकाते हुए प्रवेश किया- ‘अच्छा जी! देवरजी को बड़ी जल्दी है दुल्हन के पास पहुंचने की। आज हमें भूल गए? गपियाने की भी फुर्सत नहीं है आज जनाब के पास। लगता है अब हमारी छुट्टी हो गई। हां भई, नई-नई बीवी है और उस पर आज की रात कयामत भी ढा रही है। बिजलियां तो आप पर टूट ही रही होंगी।’

“न–नहीं भाभी। ऐसी कोई बात नहीं। मैं उधर ही आ रहा था। चलो, चलो, वहीं चलते हैं आता हूं अभी।”

बिना उसकी इच्छा की परवाह किए वह रूपाली की बाजू थामे कमरे से चला गया।

‘लगता है देवर-भाभी में गाढ़ी छनती है। मैं भी भाभी को दीदी बना लूंगी। अपनी सेवा से इनका दिल जीत लिया तो समझो असीम को जीत लिया।’

वह गृहस्थी को विचारों में सजाने लगी। एकाएक उसे भाइयों की याद सताने लगी। दोनों उसे याद कर रहे होंगे। मां-बाऊजी, दादी, भाभी, मुन्नू सब उसे याद कर रहे होंगे। शायद सब सो रहे होंगे। इतनी बड़ी जिम्मेदारी को बोझ जो उतर गया।

वह सेज पर अलसाई-सी लेट गई। न जाने कब उसकी ऊँघती आंखें ढलक गईं।

असीम उसे झकझोर रहा था। वह अकबकाई उठ बैठी। उसने घड़ी देखी–रात के साढ़े तीन बज रहे थे।

‘क्या अब तक असीम भाभी के साथ गप्पें मार रहे थे!’

असीम ने दो-मिनट इधर-उधर की बात की और पीठ फेरकर सो गया। उसे मिला सिर्फ एक चुंबन-एक गहरा चुंबन-जैसे बच्चे को चॉकलेट का एक टुकड़ा थमा कर चांद कहकर बहला दिया जाए। उसकी आंखों से दो बूंदें टपकी–यादों और ख्वाबों के नाम।

वह अपनी सेवा से घर-भर का दिल जीत लेना चाहती थी। दिन-भर कामों में उलझी रहती। जेठजी अक्सर टूर पर रहते, ससुरजी अपने कमरे में और असीम मां-भाभी के साथ दूसरे कमरे में। वह जब उन तीनों के लिए चाय-नाश्ता ले जाती जो वे एकदम खामोश हो जाते ज्यूं कोलाहल की प्रचण्ड धारा की नकेल शांति ने कस दी हो। उसे महसूस होता कि उससे कोई बात छिपाई जा रही हो। रूपाली बनी-ठनी नित-नए वेष बदलकर पर्स झुलाती घर से निकलती और अक्सर देर से लौटती। वह सिर्फ सोचकर रह जाती पर पूछने की हिम्मत न जुटा पाती।

असीम ने एक दिन बड़े प्यार से उसे अपने पास बिठाया-

“सीमा! तुम्हें इस घर में कोई तकलीफ तो नहीं? इतने दिन परेशानी में रहा तो तुमसे पूछ भी नहीं पाया। क्या करूं, परेशानी है कि जाती नहीं, तभी रोज का पीना-पिलाना। मैं जानता हूं, तुम्हें यह सब अच्छा नहीं लगता पर मैं क्या करूं। मेरा बिजनेस ठीक नहीं चल रहा। तुम तो जानती हो, हमारे काम में लाखों की डील होती है। कभी एक साथ ढेर-सा रुपया, कभी दूर तक एक कौड़ी की उम्मीद नहीं होती। मैं सोच रहा हूं, अगर मुझे कहीं से चार-पांच लाख रुपए उधार मिल जाएं तो बात बन जाए। तुम ऐसा करो-पापा से मांग लो। और हां, मम्मा कह रही थी कि तुम्हारे पापा ने शादी में कार देने का वादा किया था। हो सके तो–सैंट्रो ठीक रहेगी। तुम भी कार चलाना सीख लेना।”

पति की मीठी बातों का मंतव्य उसे देर से समझ आया। चुप्पी तोड़ते हुए उसने साहस बटोरा- ‘असीम! तुम तो जानते हो कि पापा छह लाख पहले ही शादी के अच्छी आवभगत में खर्च कर चुके हैं। अब तुम उनसे गाड़ी-रुपए चाहते हो! तुम बताओ, मैं किस मुंह से पापा से मांगू। तुम आज तक मुझे अपने आफिस नहीं ले गए। क्या कहूं पापा से? मैं नहीं मांगूगी।”

“तो तू अपने बाप से रुपए नहीं मांगेगी?” आवेशित असीम क्रोध में कांपने लगा।

वह उसका रौद्र रूप देख अचंभित थी। ऐसा क्या कह दिया उसने? असीम ने उसे जोरदार धक्का देकर पलंग पर गिरा दिया और दो थप्पड़ मारे। मारकर वह गालियां बकता वहां से चला गया। उसके लिए यह अपमान और मार असहनीय थे। वह जोर-जोर से रोने लगी। उसकी आवाज सुनकर जेठानी और सास दौड़े चले आए। रोते-रोते उसने असीम की शिकायत की।

“ठीक ही तो कह रहा है असीम। ला दे अपने बाप से रुपए और गाड़ी। वैसे भी तेरे बाप ने दिया क्या है? अरे, गिरे-बुच्चे भी अपनी बेटी को शादी में गाड़ी देते हैं। मंगतों के खानदान की लड़की ब्याही है हमारे घर में। हम तो रिश्तेदारी में फंस गए। तू कहीं की महारानी है क्या? कमाती-धमाती एक पैसा नहीं और नखरे दिखाती है हीरोइनों से। देख अपनी जेठानी को। सुंदर है, पढ़ी-लिखी है, चार पैसे भी कमा लाती है। तू क्या करती है दिन-भर? तुझे जीवन-भर पालने का ठेका लिया है मेरे बेटे ने तो बदले में वसूलेगा ही।” सास उल्टा उस पर गुर्राई।

‘हे भगवान! यह सब क्या है? अंधों के आगे रो रही हूं?’ वह चुप हो गई। दोनों पैर पटकती चली गई।

‘तो क्या- जेठानी का गौरव नाम के लड़के के साथ उस दिन घर आना, गौरव की गाड़ी की चाबी और क्रैडिट कार्ड जेठानी के पर्स के पास पड़े होना, ढेर सारी शॉपिंग-। क्या सब सच है? कहां फंस गई? क्या मां को सब बता दे? क्या जेठजी को या ससुरजी को?’ असमंजस की दीवारों से सर टकरा कर रह गई।

उस दिन के बाद से वह उनसे कटी-कटी रहती। थोड़े दिन बाद ही-सास-ससुर किसी रिश्तेदारी में गए। वह, असीम और रूपाली घर पर थे। उसने खाना बनाया। चाय-नाश्ता बनाकर वह रूपाली के कमरे की ओर बढ़ी। दरवाजा खोलते ही उसका सिर चकराने लगा। उसका पति और जेठानी! उसकी आंखें, सांसें और दिल धौंकनी-से चल रहे थे। वह तूफान के बीच घिरी थी। इससे पहले कि वह वापस मुड़ती, रूपाली की दृष्टि उससे मिली।

“आओ सीमा! चलो अच्छा हुआ, तुमने अपनी आंखों से सब देख लिया। कभी-न-कभी तो तुम्हें पता चलना ही था।” अस्त-व्यस्त कपड़ों को दुरुस्त करती बेशर्म हंसी हंसते वह बाली।

“छी! मुझे आपसे ये उम्मीद नहीं थी। मैंने हमेशा आपको बड़ी बहन का दर्जा दिया और आप मेरा ही घर…? सब बताऊंगी मां-पिताजी को। आने दो उन्हें।”

असीम उठा और जोरदार थप्पड़ उसके गाल पर मारा- ‘जा बता हरामजादी, जिसे बताना है बता। खुद तो ऐश करती नहीं, हमें भी नहीं करने देती। ज्यादा चूं-चपड़ की तो अभी इसी बारहवीं मंजिल से नीचे फेंक दूंगा। कह दूंगा, खिड़की साफ करते हुए फिसल कर गिर पड़ी। समझी!” उसकी गर्दन दबाते हुए बोला।

सीमा के गले से गो-गो की आवाज निकली। वह हाथ-पैर पटकने लगी। असीम ने उसे छोड़ दिया। खांसी का जोरदार धसका उसके गले से निकला। वह हांफ गई। जेठानी की विद्रूप हंसी उसे चीर गई। असीम लगभग उसे धकेलते हुए बाहर निकल गया।

बड़ी मुश्किल से उसने अपने-आप को संभाला और घसीटती हुई अपने कमरे में आ गई।

शाम को उसने सास को बताया मगर…

“तो क्या हुआ? देवर-भाभी हैं और धंधे में पार्टनर भी। अरे, अगर तेरी जेठानी न हो तो इस घर को चलाना मुश्किल हो जाए। शुकर मना उसका कि वो तेरे पति का साथ देती है। लड़कियों की मार्केट में, पता है तुझे? सबको पहुंचानी पड़ती हैं। नेता–व्यापारी सब हिस्सा मांगते हैं। तेरे पति का ऑफिस तो है नहीं कि ठाठ से वहां बैठकर काम करे। तुझे तेरे बाप से रुपए लाने को कहा तो तूने मना कर दिया। अब तू बता, स्ट्टेस तो बनाना पड़ेगा। तेरा पति पढ़ा-लिखा तो है नहीं कि कोई नौकरी कर ले। इंटर पास को कौन नौकरी देता है? ये तो हमारी बहू रूपाली है जो घर चला रही है। और हां, खबरदार जो घर की बात बाहर निकाली। तू जानती नहीं, असीम बहुत गुस्से वाला है। तेरे भाइयों को एक मिनट में गायब करवा देगा और पता भी नहीं चलेगा। चुपचाप पड़ी रह इस घर में। मैं तो कहती हूं, तू भी रूपाली के साथ इस धंधे में उतर जा। दोनों मिलकर कमाना।”

सास की बात सुनकर उसे लगा किसी ने जलता अंगारा उसके दिल पर रख दिया हो। ‘इतनी घिनौनी बात कोई सास अपनी बहू से कैसे कह सकती है? छि: क्या यही हैं इस घर के संस्कार?’

सास की घटिया मानसिकता और डरावना चेहरा उसे भयभीत कर रहा था। प्याज के छिलकों की तरह आज कई सच उसके सामने अनावृत खड़े थे और उसे शर्म आ रही थी।

‘तो क्या असीम का कोई ऑफिस नहीं? वह पढ़ा-लिखा नहीं? भाभी गलत काम करती है? ये लोग रैकेट चलाते हैं? जेठजी जानते हैं? ससुरजी भी अनजान नहीं?’ पिंजरे की मैना-सी फड़फड़ाने लगी। किस दलदल में आन पड़ी?

कुछ दिन यूं ही गुजर गए, अनमनाए-से। अब जब भी मायके से फोन आता सास उसके साथ चिपकी बैठी रहती। उसने एकाध बार मायके जाने की इच्छा जताई जिसे उसकी सास ने बहाने से टाल दिया। किससे कहे? किससे? कौन सुनेगा, कौन मानेगा?

हिम्मत करके एक दिन उसे मौका मिल गया। उसने जेठजी के सामने घर में चल रहे घृणित खेल का पर्दाफाश किया। वे एक शब्द नहीं बोले। नि:शब्द। उनके चेहरे पर खामोशी समन्दर की तूफान मचाती लहरों समान थी जिसे पढ़कर वह सिमट गई।

समय के साथ असीम की बदतमीजियां सहने पर वह मजबूर हो गई। असीम अक्सर उसके कामों में मीनमेख निकालता, बात-बात पर उस पर हाथ छोड़ देता, उसे हर तरह से जलील करता। वह सिर्फ अपने भाइयों की चिंता करती और घरवालों की इज्जत का सोचती।

इसी बीच असीम का जन्मदिन आया। वह सोच रही थी कि इस बार वह उसे खुश करके ही दम लेगी। उसने अपने हाथों से केक बनाया। बड़े चाव से केक को सजाया और शाम होने पर मुस्कराते हुए असीम से केक काटने को कहा। इतने में रूपाली आई। ताने बाजी करते हुए उसने केक उठाया और कूड़ेदान में डाल दिया। यह देख दर्द का एक सोता आंखों के रस्ते बह निकला। इतना अपमान–इतनी बेकद्री–! रूपाली, उसकी सास और असीम तीनों उसे उसके हाल पर छोड़ डिनर के लिए बाहर निकल गए। किसके लिए रहे यहां? किसके लिए? आंसुओं का झरना झार-झार बह निकला। दिल के आंगन में जाने कब तक सीलापन रहेगा? वह भूखी-प्यासी ही सो गई।

गमों को पीने की उसने आदत बना ली। असीम के सुधरने की उसे उम्मीद थी इसीलिए वह वहां पड़ी थी। जाने कब तक उसे इस नरक में रहना होगा? पड़ोसियों से जेठानी के विषय में कई नई और चौंकाने वाली जानकारियां मिलीं। मसलन उन लोगों का प्रेम विवाह था, वह शादी से पहले प्रेग्नेंट हो गई थी, उसके मां-बाप का कुछ अता-पता नहीं था, दादा-दादी ने उसे पाला था। उसे अफसोस हुआ कि क्यों उसने उसे दीदी का दर्जा दिया।

वह हमेशा डरती रही। मुंह सिलने का उसे आदेश मिला हुआ था। रो-रोकर उसने चार महीने गुजार दिए, यह चार महीने उसे चार साल के बराबर लगे। दिल में उम्मीद की हल्की सी किरण रह-रह कर फूट पड़ती। जाने कितने वर्षों से वह यातनागृह में बंदी थी। कृष्ण जन्माष्टमी के दिन उसने बड़े चाव से व्रत रखा। उस रात इन्सानियत की सारी हदें पार करते हुए असीम ने उसके मुंह में चिकन का टुकड़ा ठूंसा और जबरदस्ती शराब पिलाई। सिंक पर झुकते हुए कई बार उसने कै की। झूठ की बुनियाद पर खड़ी विवाह की इमारत हिलने लगी। उस दिन पहली बार वह ससुर के सामने रोई, हिलक-हिलक कर रोई मगर उन्होंने उसके सिर पर सांत्वना-भरा हाथ नहीं रखा। कोई इतना पत्थर कैसे हो सकता है?

वह घुट-घुट कर जी रही थी। उसके जी में आता, वह भागकर मायके जाए और बुक्का फाड़कर रोए, जोर-जोर से रोए और मां की गोद में सो जाए। अपने पर हुए जुल्मों की दास्तान चीख-चीखकर हर नवविवाहिता के मां-बाप को सुनाए ताकि वे अपनी बेटियों की सुध-बुध लेते रहें। वह मायके जाने के लिए तड़प उठी।

उस शाम जब सब लोग उसके शहर में एक विवाह समारोह में शामिल होने के लिए तैयार हो रहे थे, उसने उनसे हाथ जोड़कर साथ ले जाने की विनती की ताकि वह थोड़ी देर के लिए सही अपने मां-बाप से मिल तो लेगी। कलेजे की आड़ में पत्थर को सीने में दबाए लोग कब संवेदनाओं की रगड़ को महसूस पाते हैं, कब धड़कनों की भाषा उनके कानों तक पहुंचती है और कब आंसुओं की नमी से आर्द्र होते हैं?

“रहने दे। हम तुझे साथ नहीं ले जाएंगे। तूने हमारी बात मानी? न पैसे लाती है न कमाती है। चुपचाप घर में पड़ी रह।” एक लात जमाते हुए सास बोली।

जाते-जाते असीम ने भी उसे जोरदार ठोकर मारी। रूपाली की वही चिरपरिचित जहरीली मुस्कान उसे तोड़ने के लिए काफी थी। उसे छोड़कर वे लोग चले गए। कितनी देर आंसुओं से भीगा चेहरा लिए फर्श पर सिसकती रही। इन बंद दरवाजों के पीछे दीवारों से मिलकर वह रो रही थी। दूसरा कोई नहीं था उसके आंसू पोंछने वाला। थोड़ी देर बाद वह उठी, बाथरूम गई, चेहरा धोया, कंघी की और पर्स उठाकर बाहर आ गई।

“टैक्सी ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन चलो।”

वह बैठ गई। टैक्सी वाले ने मीटर डाऊन किया।

एकाएक झटके से टैक्सी रुकी।

“मैडम! आ गया आपका स्टेशन।”

उसने भाड़ा चुकाया और प्लेटफार्म टिकट खरीदा। निरुद्देश्य यहां-वहां घूमती रही। क्या करे? जीने का क्या फायदा? मां-बाप के घर जा नहीं सकती। जीवन-भर उन पर बोझ नहीं बन सकती। क्या करे? अपनी सोचो से लड़ती वह पटरियों के बीचो-बीच चलने लगी। उसके अगल-बगल से रेलगाड़ियां निकली जा रही थी। चलते-चलते वह दूर निकल आई। बहुत दूर। सामने से द्रुत गति से ट्रेन आ रही थीं। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। क्या करे? वह घबरा गई। फिर कुछ सोचकर उसने अपने-आप को उसके हवाले कर दिया। कचर-कचर, फचर-फचर। उसके बाद उसे नहीं पता क्या हुआ।

पिछले तीन महीनों से वह अस्पताल के बैड पर है। रोते हुए मां-बाप, गुमसुम भाई, खामोशी से देखती भाभी। असहनीय दर्द सहती वह। वह बहुत रोई जब उसने अपनी बाईं बाजू को झूलते पाया। उसकी रीढ़ की हड्डी चूर-चूर हो चुकी थी जिसकी वजह से कमर से नीचे का हिस्सा संवेदनहीन हो चुका था। जर्जर देह लिए अवशेष मात्र रह गई।

एक बार सिर्फ एक बार असीम अपने घरवालों के साथ उसे देखने अस्पताल आया। उन लोगों ने वहां भी उसे धमकाते हुए नीचता दिखाई। वह चुप रही और पुलिस वालों के सामने बयान दिया कि वह दुर्घटना मात्र थी। फिजियोथेरेपिस्ट ने कहा कि अब वह कभी अपने सहारे पर बैठ नहीं पाएगी। कमर में पेशाब की थैली उसे हमेशा लटकानी होगी। वह टूट गई, बेइंतेहा टूट गई।

वह अस्पताल से घर आ गई। कहां वह इस घर में हंसती-खेलती थी, खुशियां बटोरती थी और कहां आज दूसरों पर निर्भर हो कर रह गई। मां अलग रोती, पिता अलग आंसू बहाते। सहेलियां, रिश्तेदार, पड़ोसी सब मिलने आते और गम की चादर उघाड़ कर जख्मों पर फूंक मार जाते। वह सिहर कर रह जाती। रोज फिजियोथेरेपिस्ट घर आती और पैरों की मालिश कर जाती। उसका जीवन ट्रॉमा सेंटर से होते हुए आयुर्वेदिक मालिश पर आकर ठहर गया।

अब तक वह अपना मनोबल समेट चुकी थी। उसने मां-बाप को अपने पर हुए जुल्मों की पूरी दास्तान सुनाई। उनसे कहकर बिरादरी की पंचायत बुलाई और ससुराल वालों को बुलवाया। भरी पंचायत में उनके काले कारनामों का पर्दाफाश किया और वहीं ऐलान किया-

“मैं तुम तीनों के खिलाफ घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत केस करने जा रही हूं। जितनी चालें चलनी हैं चल लेना। मैं भी देखती हूं तुम कानून के पंजे से कैसे बचते हो।”

तकिए का सहारा लेकर बैठने की कोशिश करते हुए उसने हुंकार भरी।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’