main shanta nahin hoon
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

सुमन रसोई में सबके लिए नाश्ता बना रही थी कि तभी बिंदू की आवाज कानो में पड़ी ‘मम्मी मम्मी जल्दी चलो रामायण आ रही है।’

‘जाओ तुम लोग देखो मुझे काम करने दो’ सुनकर बिंदू लौट गई

‘अरे बिंदू मम्मी नही आयी नहीं?’

‘पापा पता नही क्यों वो रामायण देखने से कतराती है। वैसे तो वो बहुत आस्तिक हैं, खूब पूजा पाठ करती हैं पर रामायण की बात पर चुप्पी लगा जाती है।

वर्मा साहब ने कभी सुमन से इस बारे में पूछा नही पर समझ गए कि कुछ ऐसा है जो सुमन को चुभता है। रात जब बिंदू मम्मी के पास लेटी बोली ‘माँ आप रामायण क्यों नहीं देखती?’

‘कुछ नही, तू सो जा’

‘नही मम्मी मैं अब बच्ची नही जो तुम्हारा अव्यक्त दुख न महसूस कर सकूँ। मैंने आज तक अपने नाना-नानी को भी नहीं जाना। क्या मेरे ननिहाल में कोई नहीं था?’

बात बदलते हुए सुमन ने कहा,-‘बिन्दू क्या रामायण में राम की बहन को भी दिखाया जाता है?’

‘क्या??? राम के कोई बहन भी थी’-चौंकते हुए बिंदू बोली।

‘हाँ राजा दशरथ व कौशल्या की पहली सन्तान बेटी थी। नाम था शान्ता। वह बड़ी योग्य, कुशल, पाक कला, युद्ध कला में निपुण थी। पर थी तो बेटी ही, उससे तो वंश-बेल बढ़नी नही थी। एक बार अयोध्या में अकाल पड़ा। कहा गया ये सब शान्ता के कारण पड़ा है। राजा दशरथ ने उसे त्यागने का मन बना लिया था। उसी समय अंग देश के राजा रोमपद अपनी पत्नी वर्षिनी के साथ आए। वे निसंतान थे। राजा दशरथ ने उन्हें शान्ता दे दी। शान्ता उनके साथ अंग देश चली गयी। कौशल्या चाहकर भी बेटी को न रोक पायी इसी बात से वह नाराज व दुखी थी। दशरथ कौशिल्या से कहते ‘पुरोहितों ने शांता को अकाल का कारण बताया था इसलिए प्रजाहित में मैंने उसे भेज दिया है।’ कौशल्या कहती ‘उसकी दुखती आत्मा की हाय, हमें कभी चैन नहीं देगी’। अंग देश की राजकुमारी होने के बाद भी शांता का मन अयोध्या के लिए रोता था।

‘ये तो बहुत बुरा किया उसके साथ’

‘लोग न सतयुग में पुत्री चाहते थे न कलयुग में। सतयुग में तो धर्म था पर वहाँ भी कन्या की कीमत नहीं। शान्ता का कभी किसी ने नाम भी नहीं लिया मानो वो घोर अपराधिनी थी। कौशल्या उसकी याद में रोती थीं पर पारिवारिक बन्धन के कारण चुप थी। तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में उसका जिक्र नहीं किया कि कहीं सूर्यवंशियों पर इस कारण कलंक न लग जाये। हाँ वाल्मीकि जी ने जरूर अपनी रामायण में शान्ता का वर्णन किया है पर वो रामायण संस्कृत में है उसे पढ़ते बहुत कम लोग है। शान्ता अकेले में रोती कहती ‘प्रभु मेरा कसूर क्या है? तुमने मुझे वंश-बेल न बढ़ाने वाली कन्या क्यों बनाया?’

‘मम्मी तुम क्यों रो रही हो?’

‘बेटा सुन कर तुम्हें दुख नहीं हो रहा’

‘बहुत हो रहा है। मैं होती तो विद्रोह करती, उन्हें श्राप दे देती।

‘सुन आगे एक बार रोमपद शान्ता से वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय एक ब्राह्मण खेतो की जुताई के लिए मदद माँगने आया था। पर बातों में मशगूल होने के कारण राजा सुन न सके। वह क्रोधित हो कर अंगदेश छोड़कर चला गया। वह इंद्र का भक्त था। भक्त का अपमान देख इंद्र कुपित हुए। उन्होंने वर्षा नहीं की। रोमपद घबराये कि इससे तो अकाल पड़ सकता है। वे श्रृंगी ऋषि के पास गये और उनसे उपाय पूछा। श्रृंगी ऋषि ने यज्ञ कराया जिससे इंद्र देव प्रसन्न हुए और खूब बारिश हुई। राजा ने शान्ता का विवाह श्रृंगी ऋषि के साथ कर दिया।’

‘मम्मी ये श्रृंगी कैसा नाम है?’

‘उनके माथे पर सींग थी इसलिए शृंगी नाम था’।

‘मम्मी शान्ता ने फिर भी उनसे विवाह कर लिया?’

‘हाँ…शान्ता ने इसे अपनी नियति मान स्वीकार कर लिया यही तो भारतीय नारी है जो चाहा अनचाहा वर के साथ पूर्ण निष्ठा से उसे देवता मान जीवन काट देती है। राजा दशरथ पुत्र के लिए व्याकुल थे। किसी ने बताया श्रृंगी ऋषि के पास जाओ वो पुत्रयष्टि यज्ञ करा सकते है। राजा दशरथ अपनी रानियों के साथ श्रृंगी ऋषि के आश्रम में गए, ऋषि से प्रार्थना कर पुत्रयष्टि यज्ञ के लिए कहने लगे। ऋषि ने स्वीकार कर लिया और कहा ‘मैं अपनी पत्नी के साथ यज्ञ कराने आपके यहाँ आऊंगा’। दशरथ ने ऋषि की बात स्वीकार कर ली। श्रृंगी ऋषि अपनी पत्नी के साथ यज्ञ कराने पहुंचे तो आकाश से पुष्प वर्षा हुई। दशों दिशाएं महक उठी। दशरथ और कौशल्या ने प्रणाम करते हुए कहा देवी आप कौन हैं? आपके आगमन से बसंत रितु आ गई। ऋषि पत्नी ने कहा ‘मैं आपकी पुत्री शांता हूँ।’ राजा दशरथ डर गए कि यदि इस बात का सबको पता चल गया तो पुत्री छोड़ने के कारण समाज में उनकी निंदा होगी। दशरथ ने कौशल्या से कहा वह ऐसा कुछ भी ना करें जिससे समाज में उनकी निंदा हो। कौशल्या का हृदय रो रहा था। वो अवसर देखकर, शांता को महल के अंदर ले गई और हृदय से लगाकर खूब रोई। यज्ञ के बाद जब शांता विदा हो गयी तो कौशल्या ने दशरथ से कहा कैसे पिता हैं आप? बेटी को देख कर भी आपका कलेजा नहीं फटा। हमें इसका दंड अवश्य भोगना पड़ेगा। सारा सुख होते हुए भी हमें आत्मिक शांति नहीं मिलेगी। यज्ञ से निकली खीर से दशरथ को तीनों रानियों से चार पुत्रों की प्राप्ति हुई। जब शांता ने सुना बहुत खुश हुई। तीज त्योहारों पर शान्ता भाइयों को याद करती।

‘मम्मी क्या वह अपने भाईयों से कभी नही मिल पाई?’

‘नही… जब राम वन जाते समय श्रृंगी ऋषि के आश्रम में रुके तब भी स्वाभिमानी शान्ता यह सोच कर नहीं मिली कि यदि भाइयों को पिता के बारे में पता चलेगा तो पिता के प्रति उनकी धारणा बदल सकती है’।

‘सच मम्मी बड़ी महान थी शान्ता।’ इस मौन तापसी को लोग नहीं जानते तक नहीं। मम्मी हमारे नाना-नानी कहां है? दोनों के बीच एक मौन छा गया।

‘मैं भी शान्ता हूँ। मेरे बाप ने बेटी जानकर, मुझे माँ से छीन कर झाड़ियों में फेंक दिया था। जहाँ से एक दयालु विधवा स्त्री ने मुझे जीवनदान दिया। मेरे साथ मेरी माँ का एक झुमका आ गया था जिसे वह पहचानती थी। उसने वह झुमका मेरी माँ को दिया। माँ ने रोते हुए उसे दूसरा झुमका देते हुए कहा ‘आप मेरी एक विनती मान लो कभी किसी को मत बताना की मेरी बेटी जिन्दा है। नहीं तो उसे ये लोग मरवा देंगे।’ वह दयालु महिला मुझे ले कर दूसरे शहर आ गई। बहुत लाड़-प्यार से मुझे पाला। अन्तिम समय आने पर मुझे मेरे माता-पिता और गाँव के बारे में भी बताया। मैं स्वाभिमानी थी जानकर भी मैंने संपर्क नहीं किया। मैं एक स्कूल में पढ़ाती थी। एक बार बाजार जाते समय एक मोटरसाइकिल से टकरा कर बेहोश हो गयी। होश आने पर देखा कि एक युवक यानि तुम्हारे पापा मेरी सेवा कर रहे थे। ठीक होने पर भी, हमारा मिलना होता रहा। एक दिन मैंने कहा कि ‘हमे विवाह कर लेना चाहिए लोग ऐसे मिलने पर जाने क्या सोचेंगे?’ इन्होंने कहा ‘मैं भी चाहता हूँ, लेकिन तुम सच सुन कर उत्तर देना। सुमन एक दुर्घटना में मेरी कोई नस कट गई है जिससे मैं आजीवन पिता नही बन पाऊँगा। मैं इसे छुपा कर नये जीवन की नींव नहीं रख सकता। मुझे उनकी साफगोई भा गयी। हमारा विवाह हो गया।

एक बार तुम्हारे पापा के साथ उसी गाँव मे जाना हुआ जहाँ मेरे असली माता-पिता थे। वहाँ मेरा घर ही सबसे सम्मानित व अच्छा था। वो इन्हें आमंत्रित करने आये और कहने लगे ‘सर मेमसाहब को भी साथ लाइएगा।’ मेरा मन नहीं था पर ये कहने लगे चलो बड़े पुराने रईस है, काफी मानदान है। बिन्दू स्त्री के हृदय में मायका का स्थान अमिट होता है। मैं भी लोभ संवरण न कर सकी। एक बार तो देहरी आँगन जननी-जनक के दर्शन कर आऊँ। घर पहुंचते ही पता नहीं क्यों एक अजीब-सा सुखद एहसास होने लगा? समझ नहीं पा रही थी शांता तो बड़े में गई मैं तो जन्मते ही हट गई फिर यह मोह कैसा? शायद ममता का आंचल खींच रहा था। मैंने ठाकुर साहब के पैर छुए, उन्होंने खुश होकर कहा सदा खुश रहो बेटी। अंदर उनकी पत्नी पूर्णिमा जी के पास गई तो उन्होंने सीने से चिपका लिया। मैं भी ऐसी तृप्त हो रही थी मानो मरुस्थल में सुखद वर्षा हो रही हो। हम दोनों ने खूब बात की। तभी उनकी निगाह मेरे कान पर गई, वह अपना झुमका पहचान गई। क्या तुम सोनारीन की बेटी हो? जी हाँ… वह मेरी यशोदा माँ थी और आप मेरी देवकी मां हो। सुन कर माँ व्यथित हो उठी। उन्होंने बैठक से ठाकुर साहब को बुला कर बताया। पिता ने सीने से चिपका लिया और कहा ‘हमे माफ कर दे बेटी हम तेरे व तेरी माँ के गुनाहगार है। तेरी माँ एक रात भी चैन से नहीं सोई तेरी याद में। लेकिन अगर हम अब तुझे स्वीकारेंगे तो लोग मुझे धिक्कारेंगे।’ मैंने कहा, ‘आप चिंता न करें मैं किसी से कुछ न बताऊँगी और न कभी यहाँ आऊँगी। मैं वहां दुबारा कभी नहीं गयी।

वहां से आकर मैं थोडा उदास रहती थी। इन्होंने सोचा शायद बच्चे की कमी खल रही है। हम अनाथालय गए। मेरे मन में था बेटा लूँगी पर पता नही ये क्या चाहे? लेकिन वहाँ पहुँच कर इन्होंने कहा ‘सुमन मुझे तो बेटी चाहिए पर जो तुम चाहो।’

‘आपने तो मेरे मन की बात कह दी’- और तुम आ गयी खुशियाँ ले कर हमारे जीवन मे।

‘सो गई क्या बिन्दू?’

‘नहीं मम्मी….मैं सोच रही हूँ’

‘क्या? सुमन का दिल धड़क उठा कहीं गोद लेने की बात बता कर मैंने गलत तो नही किया। इसके कोमल मन को ठेस लगी हो। लेकिन बिंदू गले लग कर बोली ‘मम्मी मैं भाग्यशाली हूँ। मै तो माँ-बाप न होने के कारण अनाथालय में थी। मुझे तो इतने प्यारे आप और पापा मिले। आप लोग पूजने योग्य हैं जिनके लिए बेटा-बेटी एक समान हैं। मैं शान्ता नहीं हूँ। बैंक्यू मम्मी’ कहकर बिंदु अपनी माँ से लिपट कर सो गई।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’