यह कथा द्रौपदी और पांडवों के जन्म से जुड़ी है, जो शापवश मनुष्य योनि में जन्मे। केतकी ने द्रौपदी, धर्मराज ने युधिष्ठिर, वायुदेव ने भीम, इंद्र ने अर्जुन तथा अश्विनी कुमारों ने नकुल एवं सहदेव के रूप में जन्म लिया। यह कथा इस प्रकार है-
केतकी दक्ष प्रजापति की पुत्री थी। अपनी सुंदरता व सदाचार के कारण वह तीनों लोकों में प्रसिद्ध और प्रशंसनीय थी। दक्ष ने उसका विवाह करना चाहा तो वह बोली-“मैं तीनों लोकों में किसी पुरुष को अपने योग्य नहीं पाती। अतः मैंने निर्णय किया है कि मैं भगवान शिव की छत्रछाया में हिमालय पर रहूं।” यह कहकर वह हिमालय पर चली गई और समाधि में लीन रहने लगी।
एक बार पार्वती ने उसकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। वे एक गाय का रूप बनाकर समाधि में लीन केतकी के निकट पहुंचीं और जोर-जोर से रंभाने लगीं। इससे उसकी तपस्या में विघ्न उत्पन्न हो गया और उसने क्रोधित होकर गाय को बुरा-भला कहना शुरू कर दिया। तब पार्वती अपने वास्तविक रूप में आ “गईं और केतकी को शाप देते हुए बोलीं-“तू पृथ्वी पर पांच पतियों की पत्नी बनेगी, क्योंकि तुझे तीनों लोकों में कोई पुरुष स्वयं के योग्य नहीं लगता।”
केतकी भयभीत होकर पार्वती के चरणों में गिर पड़ी और क्षमा मांगने लगी। उसकी करुण प्रार्थना सुनकर पार्वती बोलीं-“मेरा शाप अटल है, किंतु वह शाप भी तुम्हारे लिए वरदान हो जाएगा। उस रूप में भी तुम्हारा यश तीनों लोकों में होगा। पांच पतियों की पत्नी के बाद भी तुम्हारा पतिव्रत धर्म अखंड रहेगा।” यह कहकर पार्वती वहां से चली “गईं।
केतकी गंगा के तट पर बैठकर रोने लगी। उसके आंसू स्वर्ण कमल में परिवर्तित होकर गंगा जल में बहने लगे। इन स्वर्ण-कमलों पर इंद्र की दृष्टि पड़ी। उन्होंने वे स्वर्ण कमल इंद्राणी को भेंट में दे दिए।
तब इंद्राणी बोलीं-“भगवान ! ये स्वर्ण-कमल अत्यंत दुर्लभ हैं। ये तो इंद्रलोक के सरोवर में खिलने चाहिए। आप पता लगवाएं कि ये कहां उगते हैं।”
इंद्र ने इस खोजबीन के लिए धर्मराज को भेजा। बहुत समय बीतने पर भी जब वे नहीं लौटे तो उन्होंने वायुदेव को भेजा। वे भी वापस नहीं आए। तत्पश्चात् उन्होंने अश्विनी कुमारों को भेजा। वे भी लौटकर नहीं आए। तब इंद्र स्वयं स्वर्ण-कमलों का पता लगाने के लिए चल पड़े।
कुछ दूर चलने पर उन्होंने केतकी को गंगा-तट पर बैठे देखा। वे उसकी सुंदरता पर मोहित हो गए और उससे उसका परिचय पूछा। केतकी बोली-
“मैं दक्ष प्रजापति की पुत्री केतकी हूं और यहां तपस्या करने आई हूं।”
इंद्र बोले-“सुंदरी ! तपस्या करना ऋषि-मुनियों और वनवासियों का काम है। तुम्हारी सुंदरता तप की अग्नि में जलने के लिए नहीं हैं। इसके लिए तो स्वर्ग के भोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसलिए तुम मुझसे विवाह करके स्वर्ग चलो।”
यह सुनकर केतकी क्रोधित होकर बोली- “देवेंद्र ! आपसे पहले भी चार देवता मुझसे यह कहने का दंड भुगत चुके हैं। इसलिए यदि अपना भला चाहते हो तो यहां से लौट जाओ।”
इंद्र समझ गए कि वे देवता धर्म, वायु और अश्विनी कुमार ही हैं। तब इंद्र के पूछने पर केतकी उन्हें एक गुफा में ले गई। वहां सभी देवता बंधे पड़े थे। उनकी दुर्दशा देख इंद्र क्रोधित होकर बोले- “दक्ष-कन्या ! तुम स्वयं को तपस्विनी कहती हो, किंतु तुम्हारा हृदय राक्षसों की भांति कठोर है। इन्हें बंदी बनाने का परिणाम जानती हो तुम?”
केतकी बोली-“देवेंद्र ! इन्हें मेरे रक्षक ने बंदी बनाया है। आप उनके भी दर्शन कर लें।”
गुफा के अंदर एक जटाधारी मुनि तप में लीन थे। केतकी ने उन्हें प्रणाम किया, लेकिन इंद्र शक्ति के अहंकार में भरकर उन्हें बुरा-भला कहने लगे। तभी वे अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गए। वे कोई और नहीं, भगवान शिव थे। उन्हें देखकर इंद्र लज्जित हो गए और भय से कांपने लगे।
शिवजी क्रोधित होकर बोले-“इंद्र ! यह इंद्रलोक की अप्सरा नहीं, बल्कि मेरी पुत्री के समान है। तुमने इसका अपमान किया है। इसका दंड भोगना होगा। तुम पांचों पृथ्वी पर मनुष्य-रूप में जन्म लोगे।”
भगवान शिव का रुद्र रूप देखकर इंद्र भयभीत हो गए और उनसे क्षमा मांगने लगे।
तब शिव बोले-“देवेंद्र ! तुम्हें अपने अपराध का दंड तो भुगतना ही होगा, अन्यथा न्याय की व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। द्वापर में जब भगवान विष्णु पृथ्वी पर कृष्णावतार लेंगे, तब तुम पांचों देवों को पृथ्वी पर मनुष्य बनकर रहना होगा। उस समय यही केतकी तुम पांचों की पत्नी बनेगी। इस प्रकार इसे पाने की तुम्हारी इच्छा भी पूरी होगी और पापियों का नाश करने व धर्म की स्थापना में तुम श्रीविष्णु के सहभागी भी होंगे।”
इस प्रकार द्वापर में वे पांचों देव पांडवों के रूप में उत्पन्न हुए। केतकी द्रौपदी के रूप में उत्पन्न होकर उनकी पत्नी बनी।