hundred Dates
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Hindi Love Story: “गोलगप्पे खाएँ?” “नहीं यार, बताया तो था; आज सोमवार है।” “ओओओ…शानदार दूसरा सप्ताह। तो मैडम किसी बड़े मनोरथ के लिए, मेरी छोटी प्यारी सी ख़्वाहिश का खून बहा देंगी आज?” मैंने मज़ा लिया।

“अरे ऐसा कुछ नहीं यार। मम्मी की ज़िद में करना पड़ रहा है।”

“तो क्या मनोवांछित वर चाहिए कन्या? अथवा किसी अन्य मनोरथ की तृष्णा से वशीभूत होकर, तुमने विरक्ति का यह मार्ग चुना है?” मैंने वज़नदारी से कहा और हम दोनों खिलखिला उठे।

“तुम्हारी विरक्ति की तो न…” उसने पानी की बॉटल उठा कर मेरे कंधों पर मारी।

“दुष्ट पति ना मिल जाए इस डर से तो महादेव की मख्खन पॉलिस नहीं चल रही?” मैंने उसका चेहरा ग़ौर से देखा।

“इसमें क्या मख्खन पॉलिस, यह तो अपनी-अपनी श्रद्धा है।”

“चुप बे…लोभियों की ढ़ोंगी श्रद्धा…और आत्मप्रवंचना का शिकार तुम्हारा भगवान…”

“ऐसा मत बोलो, सोलह सोमवार के व्रतों की बहुत महिमा है। तुम्हें नहीं पता।”

“तुम्हें जाहिल कहूँगा, तो तुम्हें बुरा लगेगा। व्रत कथा सुनो, तो जरा दिमाग की खिड़कियाँ भी खोल लेना। कथाओं पर भरोसा है और जो सामने है वह सब झूठा। कितने बेचारे इस कन्फ्यूज़न में अपना जीवन बर्बाद कर बैठे।”

“पगला गए हो तुम तो, कुछ भी कहते हो। माफ़ करना बाबा इसे।” कहते हुए उसने आँखें आसमान की ओर उठाईं और छाती पर हाथ रखकर,आँखें बंदकर कुछ बुदबुदाई।

“अच्छा एक बात तो बता ही दो। ईमानदारी से बताना…” मैंने उसे छेड़ते हुए कहा।

“मैं ईमानदार ही हूँ। बोलो ना क्या पूछना है?”

“तुम्हें इतनी श्रद्धा और विश्वास है गंजेड़ी-भंगेड़ियों पर, तो अब तो तुम अपने लिए ना लड़का देखने जाओगी; ना उससे मिलने। सर्वश्रेष्ठ देना तो अब तुम्हारे जटाधारी का काम है। है न?” शायद उसे कभी आश्चर्य होता हो, इतने सच से जीभ जल क्यों नहीं जाती।

इतनी धूर्त तो वह नहीं हो पायी थी कि, मुखड़े पर तैरते भाव छिपा पाती। मैंने देखा अंधी श्रद्धा की लाश,शक्ल पर अब भी नाच रही थी।

थोड़ी ही देर हुए कि मेरा दैत्य जाग उठा। मैं उसे ‘आओ’ कहते हुए गोलगप्पे के ठेले पर ले गया और, तीखा बढ़वाकर चटखारों के साथ खाते, सी-सी की ज़्यादा तेज़ ज़ालिमाना आवाज़ें निकालने लगा।

“हद इन्सान हो यार। पाप पड़ेगा तुम्हें।” उसके मुँह में आते पानी से थोड़ी लड़खड़ाई ज़बान मैं ना पहचान पाऊँ, ऐसा तो नहीं था।

“कन्या, मैं भगवान का ही भेजा दूत हूँ और भगवान ने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए मुझे इस धरती पर भेजा है।” मैंने सिसियाते हुए उसका भरपूर मज़ाक उड़ाया।

“मैं वहीं बेंच पर बैठी हूँ, तुम्हारे नाटक पूरे हो जाएँ, तो आ जाना वहीं।” कहते हुए उसने मेरी ओर देखे बग़ैर वापसी का रुख़ किया।

मैं भी एक आईसक्रीम कोन लेता हुआ उसी बेंच की ओर चल दिया, क्योंकि अब गोलगप्पे अपना स्वाद खो चुके थे।