Krishna Janam: आसन्न प्रसव, देवकी सती
थी भाद्रमास की घनी रात,
संयुक्त,अभिजीत अश्विनी पल
अष्टमी तिथि, रोहिणी गात।
दूसरा प्रहर वह रात्रि का था
मनोहारिणी छबि पृथ्वी की थी,
स्रोतस्वाति जल दर्पण से
दस ओर दिशा भी पुलकित थी।
तारिका राज्य उज्ज्वल हो उठा
खिल उठे पुष्प असमय ऐसे
मलयानिल आकर दिव्य श्लोक
गुंजित कर, चला गया जैसे।
यह विजय मुहूर्त रात्रि का था
चहुं ओर कृष्ण चंद्रमा भास
देवकी गर्भ से प्रादुर्भृत
भूमिष्ठ हुआ नव शिशु प्रभास।
अद्भुत था अलौकिक, आकर्षक
नव शिशु का वह लावण्य रूप,
वसुदेव देख रहे विस्मित से
वैकुंठ से आई प्रथम धूप।
अपलक ही देखते रहे, शिशु
श्रीवत्सचिन्ह वक्षस्थल पर,
वह चतुर्भुजी, लिए पद्म, गदा
और शंख, चक्र हाथों मे धर।
ध्वज वज्राकुश चिन्हित, कोमल
पदतल थे सुशोभित, रक्तवर्ण,
वसुदेव निहार रहे अपलक
स्पर्श किया फिर तुरत, चरण।
साधारण रूप लिया हरि ने
श्यामल, भूमिष्ठ, मधुर क्रंदन,
एक मधुर गंध चहुंदिक फैली
हो गया व्याप्त दैविक चन्दन।
तब महाकाल की नूपुर ध्वनि
बज उठी कंस के कारागार,
“किस तरह बचाएं यह बालक”
वसुदेव हुये चिंतित अपार।
“उस कंस कराल के हाथों मे
किस तरह समर्पण करूँ तुम्हें,
हे ईश्वर! शिशु बना दो मुझे
और कंस के हाथ मे दे दो हमे।
है तुम्हें समर्पित, हृदय रत्न
हे ईश्वर! इसकी रक्षा करना,
यदि तुम्हें चाहिए मृत्यु एक
तो प्राण मेरे ही, तुम हरना।
कह नतमस्तक हुये वसुदेव
स्मृति मे आ गए नन्द राज,
“गोकुल पहुंचा दूँ, यदि इसको
बच जाएगा मेरा पुत्र आज।
और सद्यजात शिशु मिले वहाँ
उसको मैं साथ ले आऊँगा,
फिर कंस दुराचारी का क्रोध
के संशय से बच जाऊंगा।“
वसुदेव मनोरथ पूर्ण हेतु
गिर गईं बेड़ियाँ, खुले द्वार
सो गए थे सारे द्वारपाल
निष्कंटक हो गया कारागार।
घनघटा जाल फैला नभ मे
हर दिशा घनेरी अंधकार,
प्रहरी थे अचेतन निद्रा मे
लीला थी शिशु की अपरंपार।
यह कृष्ण की थी पहली लीला
हो गए अचेतन जड़ चेतन,
स्तब्ध देव, स्तब्ध प्रकृति
आरंभ हुआ हरि लीला जीवन…