Summary: माँ की मुस्कान
आदित्य की व्यस्त जिंदगी में जब परिवार के लिए समय लौट आया, तो सविता जी के घर में फिर से हंसी और अपनापन लौट आया। यह कहानी बताती है कि सच्ची खुशियां वही हैं, जो अपनेपन और परिवार के साथ मिलती हैं।
Hindi Short Story: सुबह की पहली किरण जैसे ही आसमान में फैली, आदित्य की मां, सविता, पूजा-पाठ करने लगी। सविता जी की ये आदत बरसों पुरानी थी। आजकल हर दिन वह यही सोचती थी की कभी उनका यही घर हंसी ठहाकों से गूंजता था, पर अब दीवारों पर सन्नाटा चिपका था। आदित्य, जो कभी मां के बिना थोड़ा समय भी नहीं रह पाता था, अब महानगर की भागदौड़ में इतना खो गया था कि महीने में बस एक-दो बार ही फोन करता। उसकी पत्नी नंदिनी भी अपने ऑफिस और सोशल मीडिया की दुनिया में व्यस्त रहती। दोनों के बीच बातचीत अब सिर्फ “क्या खाना है” या “कितने बजे लौटोगे” तक सीमित रह गई थी। सविता जी कई बार बेटे से कहतीं, “बेटा, रविवार को आ जाओ, थोड़ा समय साथ बिताएंगे। आदित्य जवाब देता,
माँ, इस हफ्ते बहुत काम है, अगली बार ज़रूर आएंगे। लेकिन वो “अगली बार” कभी आता ही नहीं था।
एक दिन मोहल्ले की शर्मा आंटी आईं, बोलीं, सविता जी, आपका घर तो इतना सुंदर है, पर लगता है इसमें कोई रहता ही नहीं। सविता जी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, घर तब तक घर रहता है, जब तक उसमें अपने रहते हैं।
उसी रात आदित्य के ऑफिस में अचानक बिजली चली गई। अंधेरे में बैठा वो खिड़की से बाहर झांकने लगा। नीचे पार्क में बच्चों के साथ उनके माता-पिता खेल रहे थे। उनके चेहरे पर जो सुकून था, वो आदित्य को अंदर तक सुकून दे गया। उसे याद आया जब वो छोटा था, पापा के साथ क्रिकेट खेलना, माँ के साथ खाना बनाना अब तो वो पल बस यादों में रह गए थे।
अगले दिन उसने बिना बताए घर जाने का फैसला किया। दरवाज़े की घंटी बजी तो सविता जी चौंक गईं। सामने आदित्य था, हाथ में फूलों का गुलदस्ता और चेहरे पर सच्ची मुस्कान लिए। माँ, मैंने ऑफिस से कुछ दिनों की छुट्टी ले ली है। साथ में समय बिता पाने का ख्याल मन में आते ही सविता जी की आँखों में आँसू आ गए।
उस शाम सबने साथ खाना खाया आदित्य, नंदिनी और सविता जी। बीच-बीच में हँसी के ठहाके गूंजते रहे। आदित्य के बचपन की शरारत बताकर माँ खूब खुश हो रहीं थी और नंदिनी खिलखिला रही थी, सालों बाद सविता के घर में वो पुरानी रौनक लौटी।
डिनर के बाद आदित्य ने कहा, माँ, मुझे माफ़ कर दो। मैंने सोचा था काम ही ज़िंदगी है, पर अब समझ आया—ज़िंदगी तो परिवार है। सविता जी ने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, बेटा, घर की गर्मी कभी ऑफिस की लाइटों में नहीं मिलती। धीरे-धीरे आदित्य और नंदिनी ने अपनी दिनचर्या बदली। हर रविवार परिवार के नाम हुआ। कभी सब मिलकर खाना बनाते, कभी पुराने एल्बम देखते। नंदिनी ने सास के साथ मिलकर बागवानी शुरू की। घर अब सिर्फ दीवारों का ढांचा नहीं रहा वो फिर से एक “घर” बन गया।
एक शाम आदित्य ने माँ से पूछा, माँ, क्या अब आप खुश हैं? सविता जी ने मुस्कुराकर कहा, जब परिवार साथ हो, तो खुशी खोजनी नहीं पड़ती, वो अपने आप चली आती है।
सविता जी के साथ अब आदित्य और नंदिनी को भी रविवार का इंतज़ार रहता था। ऑफिस की छुट्टी या किसी त्यौहार पर सबसे पहले नंदिनी और रवि माँ के पास जाते और खूब सारी बातें करते। माँ को लेकर कभी-कभी वो लोग दूर तक घूमने निकल जाते थे, इस तरह तीनों के जीवन में खुशियां लौट आयीं थी ।
