hema didi ka school
hema didi ka school

Kids story in hindi: उस दिन भी मजदूर बस्ती में सारे बच्चे एक पेड़ के नीचे इकट्ठे हुए और हेमा दीदी के स्कूल की पढ़ाई शुरू हो गई।

बच्चे दौड़-दौड़कर हेमा दीदी के इस स्कूल में आते थे, जिसमें पढ़ाई का अजब तरीका था। दीदी मजे में एक से एक मजेदार कहानियाँ-किस्से सुनातीं, खुद गा-गाकर सुंदर गीत और कविताएँ याद करातीं। सब बच्चों से उनके घर-परिवार और आसपास की दुनिया के बारे में ढेर सारी बातें करतीं। बहुत-सी नई और अचरज भरी बातें बतातीं और खेल-खेल में लिखना पढ़ना भी सिखा देतीं। तो भला कौन न जाएगा हेमा दीदी के स्कूल में?

हेमा दीदी भी खुश और बच्चे भी खुश। पर एक दिन हेमा दीदी थोड़ा चकराईं। इसलिए कि नन्ही-सी छुटकी ने मजे में गरदन मटकाते और आँखें गोल-गोल घुमाते हुए एक नन्हा सा सवाल पूछकर उन्हें तंग कर दिया था। हेमा दीदी उस समय बच्चों से ढेर सारी बातें करने के बाद कहानी सुनाने के मूड में थीं। बस तभी पूछ लिया छुटकी ने, “हेमा दीदी, आपका स्कूल तो वाकई बहुत अच्छा है। हमें यहाँ पढ़ाई में बहुत मजा आता है। पर दीदी, आपके मन में इस स्कूल का आइडिया कहाँ से आया?”

सुनकर हेमा दीदी एक पल को तो चुप ही रह गईं, क्योंकि छुटकी के इस सवाल के साथ ही उनके भीतर पूरी एक फिल्म चल पड़ी और उन्हें एक साथ इतना कुछ याद आ गया कि बस सँभाले सँभल ही नहीं रहा था। एक बार तो उन्होंने सोचा कि यों ही कोई गोलमोल-सी बात कहकर टाल दें और फिर गोगा परी वाली मजेदार कहानी सुनाना शुरू कर दें, जो कल ही उन्होंने बच्चों की एक पत्रिका में पढ़ी थी।… पर फिर लगा, नहीं, कहानी तो सुनानी होगी। पर गोगा परी वाली नहीं, एक सच्ची कहानी। एकदम सच्ची!

और सचमुच, देखते ही देखते उनकी कहानी शुरू हो गई थी और बच्चे इस तरह सुन रहे थे, जैसे हेमा दीदी परीकथाओं से भी मजेदार कोई किस्सा-कहानी सुना रही हों। …

एक छोटी-सी लड़की थी। बहुत छोटी। समझो, सामने बैठी छुटकी जितनी ही। नाम था उसका हेमा।… नाम तो देखो, कितना सुंदर था! पर घर की हालत अच्छी नहीं थी। यहाँ तक कि वह स्कूल पढ़ने भी नहीं जा सकती थी। इतने पैसे ही कहाँ थे उसके मम्मी-पापा के पास। दोनों मजदूरी करते थे। जो पैसे आते, उनसे घर चल जाए, यही बहुत था।

फिर एक दिन की बात। मम्मी काम के लिए घर से निकली तो नन्ही हेमा भी साथ चल पड़ी। उसे सारे दिन घर में अकेला बैठना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। मम्मी-पापा न हों तो मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलने में भी ज्यादा मन नहीं लगता था। लिहाजा मम्मी सुबह-सुबह घर से मजदूरी के लिए जाने लगी तो हेमा ने कहा, “मम्मी-मम्मी, मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।”

मम्मी हँसकर बोली, “तू क्या करेगी हेमा? मुझे तो वहाँ ईंटें ढोनी पड़ती हैं। दीवार में ईंटों की चिनाई के लिए मसाला बनाना पड़ता है। तू भी बनाएगी क्या?”

हेमा जिद में आकर बोली, “मम्मी, जो तुम करोगी, मैं भी कर लूँगी, मगर रहूँगी तुम्हारे साथ ही।”

और उस दिन हेमा भी रती के साथ आ गई। रती को आते ही काम में लग जाना पड़ा। उसने हेमा को एक कोने में बैठा दिया और प्यार से बोली, “देख मेरी प्यारी बेटी, तू यहीं बैठी रहना। ज्यादा शरारतें मत करना और भागकर सड़क पर भी मत जाना। नहीं तो मोटर के नीचे आ जाएगी। समझ गई?”

हेमा ने धीरे से सिर हिला दिया। बड़ी समझदारी से। मगर थोड़ी देर बार रती जब ईंटें सिर पर उठाकर छत पर ले जा रही थी, तो हेमा से रहा नहीं गया और वह मम्मी के पीछे-पीछे छत पर आ गई। रती ने सिर पर रखी हुई ईंटें उतारकर नीचे रखीं, तो हैरान रह गई। उसके पीछे हेमा खड़ी हुई थी। दोनों हाथों में कसकर ईंट पकड़े हुए।

रती ने देखा तो मन ही मन उसकी हँसी छूट निकली। पर ऊपर से डाँटने के लिहाज से कहा, “ओ हेमा, तेरे को समझाया था न! मानती क्यों नहीं है? तू क्यों ईंट लेकर ऊपर आ गई?” और हेमा का चेहरा ऐसा हो गया, जैसे अभी-अभी रो देगी।

राजन बाबू देख रहे थे छोटी-सी हेमा को। यह नन्ही बच्ची इस उम्र में भी कितनी गंभीर, कितनी समझदार है! उन्होंने पास आकर हेमा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “क्यों री हेमा, तुझे भी काम करना अच्छा लगता है?”

हेमा कुछ न बोली, शरमा गई। सिर नीचा करके मुसकराने लगी।

राजन बाबू ने फिर पूछा, “हेमा, तुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता क्या?”

हेमा चुप। मानो मन ही मन कह रही हो, भला पढ़ना क्यों नहीं अच्छा लगेगा? पर मुझे पढ़ाएगा कौन? बाबू के पास इतने पैसे ही नहीं हैं। और फिर फीस, किताबें, स्कूल की ड्रेस, जूते…! मम्मी से दो-चार बार कह चुकी हूँ कि मम्मी, सारे बच्चे स्कूल जाते हैं, मुझे भी स्कूल भेज दो ना! पर मम्मी का हमेशा एक ही जवाब होता है, ‘कुछ पैसे और जोड़ लें हेमा, ताकि तेरी फीस का इंतजाम हो जाए। फिर तू स्कूल चली जाना!’

हेमा ने जो कहना चाहा, पर कह नहीं पाई, वह भी राजन बाबू समझ गए। पता नहीं कैसे? बोले, “अभी स्कूल से निम्मी आएगी, मेरी बेटी। उसके साथ खेलना। खेल-खेल में तेरी पढ़ाई भी हो जाएगी और निम्मी तुझे खूब प्यार करेगी। खूब!”

थोड़ी देर में हाथ में बैग और पानी की बॉटल लिए निम्मी स्कूल से आई तो राजन बाबू हँसकर बोले, “निम्मी, ओ निम्मी! तेरी एक प्यारी-सी सहेली आई है, हेमा। उससे नहीं मिलोगी?”

“कौन सी सहेली …? कहाँ है पापा, वह कहाँ से आई है? जल्दी बताओ न!” निम्मी ने उत्सुक आँखों से इधर-उधर देखते हुए कहा।

“मिलेगी तो तू खुद जान जाएगी। है छोटी-सी, लेकिन है वह कमाल की।” राजन बाबू ने कहा और फिर निम्मी की उँगली पकड़कर उसे वहाँ ले गए, जहाँ हेमा बेचारी अकेली बैठी झोली में पीले कनेर के पेड़ से गिरे फूल और पत्ते लिए चुपचाप उनकी गिनती कर रही थी।

“हेमा…! यह हेमा है।” राजन बाबू ने निम्मी को हेमा से मिलवाया, तो शुरू में तो निम्मी को बड़ा अटपटा लगा। एक तो हेमा के कपड़े ही बड़े मैले थे। फिर पाँव में एकदम फटी हुई चप्पलें। बड़ी फटीचर-सी हालत थी। फिर उसे अंग्रेजी भी नहीं आती थी। न ए फॉर एप्पल, न बी फॉर बैट, कुछ नहीं जानती थी। और न गिनती, न पहाड़े… पर मन की थी सरल। होशियार भी थी। यह निम्मी को जल्दी ही पता चल गया।

*

जल्दी ही दोनों सहेलियाँ बन गई और मिलकर खेलने लगीं। खेल-खेल में निम्मी को पता चल गया कि हेमा तो बड़ी समझदार है, भले ही वह स्कूल नहीं गई। लेकिन दिमाग तो इतना तेज है कि जो कुछ सिखाओ, वह झटपट याद…!

थोड़ी देर में निम्मी को अपना प्रिय खेल याद आ गया। टीचर-टीचर…! उसने हेमा को भी समझा दिया कि यह खेल कैसे खेलना है। और फिर झटपट शुरू हो गया निम्मी का ‘टीचर-टीचर’ खेल। उसका यह सबसे प्यारा खेल था, क्योंकि इसमें इसे दूसरों पर रोब जमाने का पूरा मौका मिल जाता था। खेल में टीचर तो आखिर वही बनती थी न! बातों में सबसे तेज जो थी। मगर हेमा परेशान। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, क्योंकि उसे तो ऐसे खेल खेलने ही नहीं आते।

पर कुछ भी हो, निम्मी टीचर थी अच्छी। उसे पढ़ाना खूब आता था और दूसरे बच्चों को प्यार से खेल खिलाना भी। तो झटपट उसने हेमा को अपने खेल का जादू सिखा दिया। बोली, “देख री हेमा, मैं टीचर बनूँगी और तू बनेगी मेरी छात्रा यानी स्टुडेंट। मैं तुझे पढ़ाऊँगी। फिर जो समझ में न आए, वह बेखटके पूछना। मैं फिर बताऊँगी…फिर-फिर बताती रहूँगी, जब तक तेरी समझ में न आए। कभी-कभी थोड़ा डाँदूँगी भी, क्योंकि इसके बगैर टीचर- टीचर खेल का पूरा मजा नहीं आता। पर देख, मेरी डाँट खाकर रोने न लग जाना।”

इस पर हेमा भोलेपन से हँसी। बोली, “रोऊँगी नहीं दीदी, भला मैं क्यों रोऊँगी?”

“और अगर मैं जोर से डाँट पिला दूँ तो…?”

“तो भी नहीं।”

“क्यों?”

“तुम तो अच्छी-अच्छी निम्मी दीदी हो। मेरी मम्मी कहती हैं, जो अच्छे लोग होते हैं, वो थोड़ा-बहुत डाँट दें तो भी बुरा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि निम्मी दीदी आप डाँटेंगी तो मेरी ही भलाई के लिए ही न!” हेमा की यह भोली-सी बात सुनकर निम्मी को बड़ा अच्छा लगा। प्यार से हँसकर बोली, “ओ हेमा, मैं तुझे डाँटँगी नहीं। मैं भला क्यों डाँदूँगी इतनी प्यारी-प्यारी, समझदार लड़की को? और अगर डाँदूँ तो तू मुझसे कुट्टा कर देना।”

इस पर दोनों नन्ही सहेलियाँ वो हँसीं- वो हँसीं कि कुछ न पूछो। फिर दोनों का खेल चल पड़ा। और इतनी देर तक चला, इतनी देर तक चला कि खुद राजन बाबू हैरान हो गए। हेमा की मम्मी उसे दो-तीन बार बुलाने के लिए आई, पर हेमा को इस कदर खेल में लीन देखा तो वो भी बगैर कुछ कहे चली गई। यों निम्मी और हेमा का टीचर-टीचर खेल इतने मजे में चल रहा था, इतने मजे में कि कुछ न पूछो।

और सचमुच जैसा कि राजन बाबू ने कहा था, खेल-खेल में निम्मी ने हेमा को बहुत कुछ सिखा दिया-ए फॉर एप्पल, बी फॉर बैट…! इसी तरह इंगलिश ए से लेकर जी-एच तक और फिर वन, टू, थ्री, फोर वाली गिनती टेन तक। अ, आ, इ, ई और क, ख, ग तो हेमा को थोड़ा आता था, पर निम्मी ने उसको और पक्का कर दिया।

खेल में दोनों का मन इतना लग गया था कि अब उनका अलग होने का मन ही नहीं हो रहा था।

अगले दिन रती मजदूरी करने घर से निकली तो हेमा खुद-ब-खुद पीछे-पीछे आ गई। बोली, “मम्मी, मैं भी चलूँगी। निम्मी दीदी मुझे बहुत अच्छा पढ़ाती हैं। अब तो मैं रोजाना जाया करूँगी।”

और सचमुच अब तो निम्मी और हेमा का घरेलू स्कूल रोज-रोज लगने लगा। अपनी पूरी शान और शोहरत के साथ, जिसे रती देखती, दूसरे सारे मजदूर-मिस्त्री देखते। राजन बाबू और सुनंदा बीबी देखतीं, तो सबके सब मंद-मंद हँसते कि अरे वाह, टीचर हो तो निम्मी जैसी और प्यारी-प्यारी स्टुडेंट हो तो हेमा जैसी। दोनों की जोड़ी भी क्या कमाल है!

फिर राजन बाबू के घर जो एक छोटा-सा स्टोर टाइप कमरा बन रहा था, वह बनकर तैयार हुआ, तो राज-मिस्त्री और मजदूरों का काम खत्म। सभी दूसरी जगह काम करने चले गए। रती को भी कहीं और काम खोजना पड़ा।

पर हेमा का क्या करे वह? हेमा का मन तो निम्मी के बगैर लगता ही नहीं था और निम्मी को भी हेमा के बगैर कुछ अच्छा न लगता था।

एक दिन निम्मी की मम्मी सुनंदा ने कहा, “रती, तू रोजाना इसे यहाँ छोड़ जाया कर। थोड़ा-बहुत मेरे घर का काम कर देगी, तो मैं हर महीने दो-तीन सौ रुपए दे दिया करूँगी। फिर निम्मी स्कूल से पढ़कर आएगी तो उसके साथ-साथ यह पढ़ेगी-लिखेगी। अब तो निम्मी और हेमा इतनी अच्छी सहेलियाँ बन गई हैं कि इन्हें एक-दूसरे के साथ खेल खेलना बहुत अच्छा लगता है। दिन कैसे कट गया, कुछ पता ही नहीं चलेगा। शाम को घर जाते समय तू इसे अपने साथ ले जाया कर।”

रती को भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी? और हेमा…! उसे तो जैसे स्वर्ग मिल गया हो। निम्मी दीदी के बगैर एक दिन काटना भी उसे आफत लगती थी।

तो फिर अगले दिन से यही हुआ। रती मजूरी के लिए घर से निकलती तो हेमा को साथ लाती। उसे सुनंदा बीबी के पास छोड़ देती और खुद काम पर चली जाती। सुनंदा बीबी जी के यहाँ हेमा को इतना प्यार मिला कि उसे लगने लगा कि पराया नहीं, यह तो उसका अपना घर है।

अगले साल जुलाई में जब और बच्चों के दाखिले हो रहे थे, तो सुनंदा और राजन बाबू ने आपस में कुछ सोच-विचार किया। हेमा की मम्मी रती से भी बात की और फिर आखिर पास के एक स्कूल आदर्श विद्या मंदिर में हेमा का नाम लिखवा दिया गया। सुनंदा बीबी ने रती को समझा दिया कि “फीस और किताबों के पैसे मैं दूँगी। इसकी स्कूल ड्रेस भी बनवा दूँगी। तुम बिल्कुल चिंता न करना।”

हेमा पढ़ाई में होशियार थी। स्कूल में नाम लिखवाते ही वह चमक गई, क्योंकि उसे तो पहले ही निम्मी दीदी ने खेल-खेल में सब कुछ पढ़ा दिया था।

अब तो निम्मी और हेमा बड़े मजे में साथ-साथ पढ़तीं। साथ-साथ अपना होमवर्क करतीं। जहाँ कहीं हेमा को अपने होमवर्क में मुश्किल आती, तो निम्मी उसकी मदद करती थी। दोनों में इतना गहरा प्यार था, जितना दो सगी बहनों में भी मुश्किल से नजर आता है।

निम्मी की मम्मी भी निम्मी और हेमा में कुछ फर्क न करतीं। जो कुछ घर में बनता, दोनों साथ-साथ खातीं। और फिर रती के आने पर वे कहतीं, “आज खीर बनी थी रती, घर में। यह तेरे लिए एक कटोरी अलग से रखी थी, इसे जाना।” या “आज पकौड़े बने थे। ये तेरे लिए अलग से रख दिए थे। घर ले जाना, सब लोग मिलकर खा लेना।”

रती कभी-कभी कृतज्ञता से भरकर कहती, “आपका यह एहसान मैं कैसे उतारूंगी बीबी जी। हेमा तो हर पल बस आपके ही गुन गाती है।”

“अरे रती, बच्चे तेरे हों या मेरे, इनमें फर्क थोड़े ही है। वे तो भगवान के उपहार सरीखे हैं। जैसी निम्मी मेरी बेटी, वैसी ही हेमा भी है।”

*

धीरे-धीरे समय बीता। हेमा दिन-दिन निखरती गई। पढ़ाई में वह इतनी होशियार हो गई थी कि हाईस्कूल उसने फर्स्ट डिवीजन से पास किया था और ग्यारहवीं में गई तो उसे वजीफा भी मिलने लगा। निम्मी की मम्मी जाकर हैडमास्टर देवकीनाथ जी से मिलीं और उन्हें हेमा के घर की हालत के बारे बताया, तो उन्होंने हेमा की फीस भी माफ कर दी। हेमा का छोटा भाई निखिल भी था, जो अब तीसरी में आ गया था। उसे अब हेमा ही पढ़ाती थी। और देखते-देखते निखिल भी अच्छा चल निकला। देखकर रती की खुशी का ठिकाना न था।

एक दिन पढ़-लिखकर हेमा कपड़ों के डिजाइन वाली एक एक्सपोर्ट कंपनी में काम करने लगी। अब घर में ठीक-ठाक पैसे आने लगे थे।

पहली तनख्वाह मिलते ही हेमा मम्मी के लिए एक अच्छी-सी साड़ी लेकर आई। कहा, “मम्मी, यह आपकी बेटी का उपहार है। और हाँ मम्मी, अब आप घर पर ही आराम करो। बेटी कमाने लगी है, तो अब आपको मजदूरी करने की क्या जरूरत है?” सुनकर रती की आँखों से आँसू छलक उठे। उसने बेटी को छाती से लगा लिया।

हेमा काम के साथ-साथ खूब लिखती-पढ़ती है। उसका मन होता है कि वह ढेर सारी किताबें पढ़े। खुद भी बहुत सी कहानियाँ और कविताएँ लिखी हैं। उसकी लिखी कहानियों और कविताओं की किताबें भी छपी हैं।

इधर निम्मी चेन्नई में इंजीनियरिंग की परीक्षा दे रही है। पर हेमा और उसकी दोस्ती उसी तरह बरकरार है।

दोनों अब भी सोचती हैं, कुछ पैसे इकट्ठे हो जाएँ तो निर्धन बस्ती में एक ऐसा स्कूल खोला जाए, जिसमें किसी बच्चे से कोई फीस न ली जाए। किताब-कॉपियाँ सबको मुफ्त मिलें। पेंसिल, रबर, ड्राइंग की कॉपियाँ, रंग सबको मुफ्त मिले। एक ऐसा स्कूल, जहाँ कोई किसी को डाँटे नहीं। सब बच्चे हँसते-हँसते पढ़ें। हँसते-हँसते गाना गाएँ। गणित और विज्ञान सीखें, संगीत और नाच सीखें और चित्रकला का अभ्यास करके बड़े कलाकार भी बनें।…कितना अच्छा होगा, अगर ऐसा हो जाए तो!

“हाँ दीदी, मेरा तो यह सपना है।” हेमा कहती है, “आप जिस तरह बचपन में मुझे खेल-खेल में पढ़ाती थीं, आज उसी तरह मैं भी बच्चों को हँसी-खुशी पढ़ाऊँ, मैं तो हर पल यही सोचती हूँ। काश, मेरा यह सपना पूरा हो जाए! फिर तो मैं नौकरी छोड़ दूँगी, और पढ़ाऊँगी, बस पढ़ाऊँगी दीदी, ताकि…ताकि इनमें से हर बच्चा पढ़े!”

कहते-कहते हेमा की आँखों में अजीब-सी चमक आ जाती है।

पता नहीं, यह सपना कब पूरा होगा? लेकिन हेमा ने एक दिन मजदूर बस्ती में जाकर एक पेड़ के नीचे अपना ‘शाम स्कूल’ अभी से शुरू कर दिया है, जहाँ बच्चे दौड़-दौड़कर आते हैं और हँसते-खेलते हुए पढ़ते हैं।

चेन्नई में इंजीनियरिंग कॉलेज के हॉस्टल में निम्मी को जब हेमा की चिट्ठी से इसका पता चला तो उसने हेमा को फोन करके कहा, “हेमा, मेरी प्यारी सहेली, आज मैं खुश हूँ, बहुत खुश!…लग रहा है, आज उस स्कूल की तुमने नींव रख दी, जिसका हम दोनों ने सपना देखा था। और मेरा पक्का वादा है, जब मैं इंजीनियर बन जाऊँगी, तो अपनी तनख्वाह का आधा पैसा निर्धन बस्ती वाले तेरे स्कूल को दूँगी। तब यहाँ अच्छा-सा स्कूल होगा, जिसमें ये गरीब बच्चे पढ़ेंगे। पूरी शान से पढ़ेंगे।… आखिर ये भी इनसान हैं, किसी से कमतर नहीं!”

अब हेमा और निम्मी जब- जब मिलती हैं, दोनों एक-दूसरे से वादा करती हैं कि यह सपना हम कभी भूलेंगे नहीं।…

कहानी सुनाते-सुनाते हेमा दीदी एक पल को रुकीं। उनकी आँखें न जाने क्यों छलछला आई थीं।

चश्मे के शीशे पर आया गीलापन उन्होंने एक रूमाल से साफ किया। फिर धीरे से मुसकराते हुए बोलीं, “अरे, देखो तो! छुटकी के नन्हे से सवाल का जवाब देते-देते मैंने कितना लंबा किस्सा सुना दिया। तुम लोग बोर तो नहीं हो गए? खैर, इतना तो जान ही गए होगे कि इस कहानी की हेमा तुम्हारे सामने बैठी है। और निम्मी दीदी…? वे इस बार छुट्टियों में घर आएँगी, तो तुमसे मिलवाऊँगी। मेरा वादा है!”

“देखो, भूलना नहीं, हेमा दीदी! आप मिलवाना जरूर निम्मी दीदी से, जो आपको बचपन में ‘टीचर-टीचर’ खेल में ए फॉर एपल सिखाती थीं। अगर भूल गईं तो समझो, हम कुट्टा हो जाएँगे!” छुटकी ने फिर गरदन मटकाते और आँखें गोल-गोल घुमाते हुए अपनी बात कही। इतने मजेदार ढंग से, कि हेमा दीदी अचानक खुलकर हँसने लगीं।

इस पर पेड़ के नीचे बैठ, कहानी सुन रहे बच्चे एक साथ इतनी जोर से हँसे, कि पेड़ पर मंडली जमाए ढेरों तोते हक्के-बक्के से पंख फड़फड़ाकर उड़ने लगे। शायद वे उड़ते-उड़ते कह रहे थे, “हाँ जी हाँ! बनेगा… बनेगा, जरूर बनेगा हेमा दीदी का प्यारा स्कूल, जिसमें बच्चे हँसते-खेलते जीवन के नए पाठ पढ़ेंगे!”

ये कहानी ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं 21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)