ek ritu aisi bhi
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

स्वर्णिम किरणें सर्वत्र बिखर चुकी थीं। कार्तिक माह की धूप सृष्टि को अपने आगोश में लेने का प्रयत्न करती, वृक्षों के पत्तों पर ढंकते छपते कोहरे को चीर कर बमश्किल बाहर आती दिख रही थी। धूप जब भी कोहरे को चीर कर इस प्रकार बाहर आती है तो इसका स्पर्श अत्यन्त सुखद लगता है। कुछ उसी प्रकार जैसे दुःख के पश्चात् मिलने वाला मुट्ठी भर सुख भी असीमित खुशियों के संसार कर सृजन करता है। मौसम ने शीत ऋतु के आने की दस्तक दे दी है। उफ्फ्! तपन व गर्मी भी इस बार खूब पड़ी है। जो भी हो आज यह सबह खशनमा है और मझे कछ और नहीं सोचना है। धूप और तपिश के बारे में सोचना छोड़, नकारात्मक विचारों पर विराम लगाते हुए मैं आगे बढ़ने लगी।

मुझे बस स्टैण्ड तक पैदल चलना है। बस स्टैण्ड मेरे घर से लगभग एक किमी. की दूरी पर है। मैंने कलाई घड़ी पर दृष्टि डाली। आठ बजने वाले हैं। नौ बजे मुझे कॉलेज पहुँचना है। कुछ ही मिनटों में मैं बस स्टैण्ड तक पहुँच जाऊँगी। धनपत खेड़ा की पहली बस वहाँ खड़ी मिलेगी। बस से आधे घंटे में मैं कॉलेज पहुँच जाऊँगी।

कॉलेज में अध्यापिका की नौकरी ज्वाइन किये हुए मुझे दो माह हो गये हैं। नौकरी अभी अस्थाई है। किन्तु संतुष्ट हूँ कि मैं आत्मनिर्भर हूँ तथा वह कार्य कर रही हूँ जो मैं करना चाहती थी…. जिसको करने का सपना बचपन से देखा था। मैं बचपन से ही अध्यापिका बनना चाहती थी। आज अध्यापन कार्य करते हुए आत्मसंतुष्टि का अनुभव कर रही हूँ। मेरे पग गन्तव्य की ओर बढ़ते जा रहे हैं।

आज भी बस में भीड़ अधिक थी। ऐसा लगभग प्रतिदिन होता है। किसी प्रकार बस में मैं प्रवेश कर गयी। किन्तु बैठने की जगह कहीं नहीं थी। कुछ लोग सीटों के बीच फँस कर खड़े थे। मैंने भी एक सुरक्षित कोना देखा और खड़ी हो गयी। इस बस में मेरे कॉलेज में पढ़ने वाले अनेक विद्यार्थी थे। ये प्रतिदिन यहाँ से धनपत खेड़ा पढ़ने जाते हैं। धनपत खेड़ा शहर के बाहरी हिस्से में स्थित ग्रामीण क्षेत्र है। इसी क्षेत्र में मेरा कॉलेज है।

“मैम! आइये। यहाँ बैठ जाइये।” किसी के स्वर सुन कर पलट कर मैंने पीछे की ओर देखा । यह मेरे कॉलेज में पढ़ने वाली छात्रा थी जो अपनी सीट से उठ कर मुझे वहाँ बैठने के लिए बुला रही थी। मैं उसका नाम नहीं जानती थी। किन्तु यूनीफार्म देखकर मैंने ये जान लिया था कि वो मेरे ही कॉलेज में पढ़ती है।

“नही बेटा आप बैठो! मैं ठीक हूँ।” मना करते हुए मैंने उसे वहीं बैठे रहने का संकेत किया। बडों के प्रति उसके हृदय में सम्मान की भावना को देखकर मुझे अच्छा लगा। कुछ देर में कॉलेज आ गया और मैं कॉलेज कैम्पस की ओर चल पड़ी।

कॉलेज में शिक्षण कार्य करते हुए मुझे दो माह हो गये थे। यहाँ पढ़ने वाले छात्रों से धीरे-धीरे मेरा परिचय होता जा रहा था। आज जब मैं नौंवी कक्षा में अपना पीरियड लेने पहुंची तो बस वाली वो लड़की मुझे क्लास में दिख गयी। मेरी दृष्टि बरबस उसकी ओर उठ गयी। ‘अच्छा तो यह नाईन्थ की छात्रा है….. ।’

“क्या नाम है बेटा आपका?” मेरे पूछते ही वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गयी।

“जी. इशिता ”

“बैठो।” मैने कहा और वो सकुचाते हुए बैठ गयी।

किशोरवय में बच्चियाँ इसी प्रकार सकुचाती..हड़बड़ाती रहती हैं। यह उम्र ही ऐसी होती है। मैं पढ़ाती रही और वह मेरी ओर अपलक देखती रही। जैसे ही मेरी दृष्टि से उसकी दृष्टि टकराती वो दृष्टि झुका लेती। न जाने क्या ढूँढ रही थी वो मुझमें।

शनै-शनै उसी से उसके बारे में और जानकारी मुझे मिलती रही…कि वह उसी शहर से आती है जहाँ से मैं। वह भी सुबह की वही बस पकड़ती है जो मैं। मुझे उसके विषय में अधिक क्यों जानना? कॉलेज में पढ़ने वाली अनेक लड़कियों की भाँति वह भी पढ़ती है। सभी से मैं एक समान वात्सल्य व स्नेह का भाव रखती हैं। सभी मुझे एक समान प्रिय हैं। फिर भी उसमें कुछ ऐसा है, जो अन्य लड़कियों से उसे अलग कर रहा है। क्या? मैं नहीं समझ पा रही हूँ। बाह्य रूप से देखने में तो कुछ भी अलग व विशेष नहीं है उसमें। किशोरवय, लम्बा कद, लम्बे बालों की गुथीं दो चोटियाँ, तीखे व सुडौल नाक-नक्श व रंगत…चैत माह में खलिहानों में बिछे नये गेहूँ के दानों के समान सुनहरा गेहुँआ। हाँ, मुझे उसमें सबसे अलग कुछ लगा तो वो थीं उसकी काली बड़ी आँखें जो हमेशा उत्सुकता, चंचलता व सपनों से भरी रहतीं। उसकी वाचाल आँखें ही उसे सभी लड़कियों से अलग कर रही थीं। शेष सब कुछ तो किशोरवय में लड़कियों के अन्दर होने वाले स्वाभाविक परिवर्तन थे। आते-जाते इशिता मुझे अक्सर दिखाई देने लगी। जिस दिन वह मुझे नहीं दिखती, मैं अनुमान लगा लेती कि वह आज कॉलेज नही आयी है।

समय अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा था। इस वर्ष इस कॉलेज में मेरा दूसरा सत्र था। इशिता अब दसवीं कक्षा में आ गयी थी। किशोरवय का स्वाभाविक आकर्षण उसके व्यक्तित्व में दिखाई देने लगा था। नेत्रों में चंचलता, सपने व दुनिया को देखने-समझने की उत्कंठा कुछ अधिक दिखाई देने लगी थी। कक्षा में वह मन लगा कर पढ़ती। विषय से सम्बन्धि त प्रश्नों को पूछती। उसका जिज्ञासु स्वभाव मुझे अच्छा लगता।

कॉलेज में मेरी नियुक्ति अस्थाई थी। अनिश्चितता भरे माहौल में मैं नौकरी कर रही थी। मुझे सदैव यह भय रहता कि कहीं मेरी नौकरी छूट न जाये। संविदा पर नियुक्ति के यही नियम हैं। किन्तु मुझे शिक्षण कार्य का अनुभव हो रहा था…यह भी मेरे लिए कम महत्त्वपूर्ण नही था।

शनैशनै यह सत्र भी समापन की ओर था। बोर्ड परीक्षायें प्रारम्भ होने वाली थीं। फरवरी माह प्रारम्भ हो चुका था। शीत ऋतु के पश्चात् शनै-शनै अंगड़ाई ले कर खुलने वाला यह मनोरम माह अपने साथ वसंत ऋतु की मादकता व नवीन फुटा लेकर आता है। खेतों-खलिहानों, वक्ष लताओं पर तो इसका प्रभाव दिखाई ही देता है, मानव, पशु-पक्षी भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रहते। ऋतु तो वसंत की आती है किन्तु आज तक मैं इस तथ्य से अनभिज्ञ हूँ कि सृष्टि पर वसंत के साथ पतझड़ की ऋतु भी क्यों समाहित रहती है? एक ओर जहाँ वृक्षों से पत्ते गिरते रहते हैं, वहीं वृक्षों पर नव पल्लव, नव पुष्प भी अपनी आमद दर्ज कराते हुए प्रतीत होते हैं | प्राचीन के साथ-साथ नवीनता का यह अद्भुत समायोजन मेरे भीतर रहस्य का सृजन करता। पतझड़ के साथ वसंत का अनोखा मिलन। कदाचित् यही कारण है कि यह ऋतु वृक्ष-लतायें, पशु-पक्षी ही नहीं अपितु मनुष्यों के भीतर भी प्रेम और मिलन के साथ विरह-वेदना का संचार करती प्रतीत होती है।

मेरे जीवन में भी वसंत आया था…..उसके आने की क्षणिक अनुभूति हुई और कब दबे पांव चला गया आभास नहीं हुआ। अब धूप भरा यह अबाध पथ मेरे समक्ष है जिस पर मुझे अकेले चलना है। मेरे कॉलेज में परीक्षाएं प्रारम्भ हो गयी हैं। कॉलेज के प्रांगण में विद्यार्थियों के ग्रुप डिस्कशन और स्वाध्याय करते कुछ अधिक सक्रिय दिख रहे हैं। हों भी क्यों न? पूरे वर्ष के परिश्रम में यदि कोई कमी रह गयी है तो यही समय है उसे पूर्ण करने का। एक-दूसरे से अच्छा करने की प्रतिस्पर्धा में सभी दिख रहे हैं। शनै-शनै परीक्षाएं भी समाप्त हो गयीं। कॉलेज का प्रांगण सूना हो गया है। चन्द दिनों पूर्व जिस कॉलेज का कोना-कोना विद्याथियों के कोलाहल से स्पन्दित रहता था वहाँ अब वीरानी-सी फैली है। जब कि सब कुछ पूर्ववत् है…… कॉलेज का विशाल भवन, कर्मचारी, कार्यालय, अध्यापक सब कुछ। फिर भी कितना सूनापन व्याप्त है यहाँ । प्रवासी पक्षियों की भाँति आने-जाने वाले विद्यार्थियों के चले जाने मात्र से। यह सूनापन भी अपने भीतर कितने ऐसे शब्दों को समेटे हुए है जो कॉलेज की ही नहीं मानों किसी के सम्पूर्ण जीवन की कहानी कह रहे हों। कभी-कभी सब कुछ यथावत् होते हुए भी किसी एक वस्तु की अनुपस्थिति से सब कुछ खाली-खाली-सा लगता है। उस वस्तु की अनिवार्यता जीवन में हो या न हो। कुछ इसी प्रकार की दास्तान बयां कर रहा है कॉलेज का यह सूना कैम्पस। इन दिनों…….साथ ही साथ मुझे मेरे अतीत की ओर भी ले कर चल रहा है…..

…… मेरी स्मृतियों से कैसे ओझल हो सकते हैं अतीत के वे दिन……. जो मेरी ज़िन्दगी के सबसे महत्वपूर्ण दिन थे। युवा उम्र….युवा दिन सभी के जीवन के महत्त्वपूर्ण दिन होते हैं। मेरे भी थे। कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ थोड़ी मौज-मस्ती, थोड़ी बेफिक्री, थोड़ा खिलंदड़ापन मुझमें भी था। पढ़-लिख कर कुछ बनना चाहती थी। सबसे अलग व अच्छा । डॉक्टर या प्रशासनिक अधिकारी बनने का सपना मेरी आँखों में पोषित हो रहा था। जिसको पूरा करने के लिए मैं मन लगाकर पढ़ रही थी। निर्धन व वृद्धों की सेवा करने की भावना मेरे भीतर पहले से कहीं न कहीं मौजूद थी, जो मुझे यह मार्ग चुनने के लिए प्रेरित कर रही थी। मन लगा कर पढ़ने के उपरान्त भी मेडिकल प्रवेश परीक्षा में मेरा चयन नहीं हुआ। मैं निराश नहीं हुई। पुन: प्रयत्न किया। किन्तु परिश्रम के साथ-साथ भाग्य आवश्यक होता है, जो कदाचित् मेरे पास नहीं था। मेरे सहपाठियों द्वारा दिया गया सुझाव कि मैं अपने किसी मनपसन्द विषय पर शोध कर किसी उच्च संस्थान में शिक्षण कार्य के लिए प्रयास का सकती हूँ, उचित लगा। मैंने अपने शहर के विश्वविद्यालय में शोध कार्य हेतु आवेदन व प्रवेश परीक्षा दिया व चयनित हो गयी। मेरा अधिकांश समय पुस्तकों के साथ कभी विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में तो कभी घर में व्यतीत होने लगा। मेरे माता-पिता मेरे विवाह के लिए चिन्तित रहने लगे। उनकी चिन्ता स्वाभाविक थी। मेरी सहमति से उन्होंने मेरे लिए लड़के देखने प्रारम्भ कर दिये।

थोडे प्रयत्नों से उन्हें सम्पन्न परिवार का एक अच्छा लडका मिल गया। मेरा शोध कार्य अभी पूरा नहीं हुआ था। मैं जानती थी कि विवाह के पश्चात् शोध कार्य पूरा करना असम्भव हो जायेगा। क्योंकि यह कार्य पूरा समय व समर्पण मांगता है। मेरा शोध कार्य सम्पूर्णता के समीप था अतः विवाह करने के लिए मैंने उनसे कुछ समय की मांग की। लड़के वालों ने मुझे पसन्द कर लिया था। वे शोध के लिए मुझे समय देने के लिए भी तैयार थे। प्रसून मुझे भी ठीक लगा। वो बातें बहुत अच्छी करता था। मीठी चाश्नी में घुली बातें। मुझे प्रसून को अस्वीकार करने की कोई वजह नहीं दिखाई दी। उसके घर वालों ने बताया कि वो ठेकेदारी का कार्य करता है। मेरे पापा उसके कार्य से संतुष्ट थे। रिश्ता तय हो गया इस निर्णय के साथ कि मेरा शोध कार्य होने पर ही विवाह होगा। विवाह के बारे में सोचे बिना मैं अपने शोध कार्य पर पूरा समय व ध्यान दे रही थी। विवाह का क्या है, वो तो तय है ही एक दिन हो भी जायेगा।

“सौम्या बेटा! देखो प्रसून तुमसे बात करना चाहते हैं।” माँ की आवाज सुनकर मैंने पलटकर देखा । अपना मोबाईल फोन हाथ में लिए माँ सामने खड़ी थीं।

मैं विस्मित् थी। प्रसून का फोन? वो मुझसे क्या बात करना चाहता है? उसने माँ के नम्बर पर फोन कर मुझे क्यों बुलाया है? क्या बात हो सकती है?…. अनेक शंकायें मन में आ रही थीं। मैंने माँ की तरफ बढ़कर फोन उनके हाथ से ले लिया। मेरे हेलो कहते ही दूसरी ओर से आवाज आयी, “मैंने आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?” शब्दों में बेहद मिठास । वह मुझसे मेरा हाल पूछता रहा। मेरे शोध के अतिरिक्त कुछ इधर-उधर की बातें भी की। बातों-बातों में मेरा मोबाईल नम्बर भी लिया। मेरा विवाह उससे तय था ही अतः बिना किसी दुराव-छिपाव के अपना मोबाईल नम्बर उसे देना ही था।

….और प्रारम्भ हो गया मेरे शुष्क जीवन में प्रेम का खूबसूरत व रंगीन अध्याय। प्रसून मुझे गाहे-बगाहे फोन करने लगा। देर रात कर फोन पर प्रेम भरी बातें करता। उसकी बातें मुझे भी अच्छी लगतीं। मेरे दिन-रात प्रेम के अद्भुत संसार में प्रसून के साथ व्यतीत होने लगे। वह मुझसे मिलने विश्वविद्यालय में आने लगा। मेरे साथ लाइब्रेरी में बैठने लगा। एकान्त स्थलों व क्षणों में मुझे स्पर्श करना व शारीरिक सीमाओं का अतिक्रमण करना उसके स्वभाव में शुमार होने लगा। ये सब कभी-कभी मुझे अच्छा लगता। मेरा विवाह उसके साथ ही होना है…..ये सोच कर मैं उसका विरोध भी नहीं करती।

एक दिन उसने बताया कि, उसे लड़कों के छात्रावास में अपने किसी मित्र से मिलने जाना है। अपने साथ वह मुझे भी ले जाना चाहता है। बस! कुछ देर का ही काम है। मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी भला? मैं उसके साथ गयी। वहाँ छात्रावास के एक कक्ष के सामने जाकर वह रूक गया, किन्तु उस कक्ष में ताला लटक रहा था। मैं सोच रही थी कि कैसा मित्र है उसका, जो उससे बिना बताये ताला लगा कर कहीं चला गया है? किन्तु यह क्या? प्रसून अपनी जेब से उस कमरे के ताले की चाभी निकाल रहा था। कुछ-कुछ वस्तुस्थिति मैं समझ रही थी। प्रसून ने ताला खोला। उसके बुलाने पर मैं कमरे के अन्दर गयी। उसके बाद मुझे प्रसून का वहशियों वाला जो रूप दिखा वो मुझे स्तब्ध कर गया। मुझसे शारीरिक सम्बन्ध बनाने की उसकी तीव्र इच्छा किसी बलात्कारी से कम न थी। विवाह पूर्व इस प्रकार के सम्बन्धो के मैं विरूद्ध थी। अतः दृढ़ता से मैंने उसका विरोध किया और कक्ष से बाहर निकल आयी।

उस दिन अपने उद्देश्य में असफल प्रसून का क्रोध देख मैं मन ही मन भयभीत हो गयी थी। किन्तु अपने भय को उसके समक्ष प्रकट नहीं होने दिया। इस बात की चर्चा भी मैंने घर में किसी से नहीं की। इस लज्जाजनक घटना की चर्चा घर वालों से कर मैं उन्हें व्यथित करना नहीं चाहती थी। साथ ही मेरे भावी पति की छवि का भी प्रश्न था। मेरे माता-पिता क्या सोचेंगे उसके बारे में? बात को वहीं दबा कर मैंने अपने शोध कार्य पर ध्यान देना प्रारम्भ कर दिया। अन्ततः दिन-रात एक कर मैंने अपना शोध पूरा कर लिया। मन में कुछ करने….कुछ बनने की इच्छा पंख फैलाने लगी। इच्छाओं के विस्तृत नीले नभ में किसी परिन्दे की भाँति मैं उड़ने लगी। घर में मेरे विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। मैंने अपनी स्वीकृति जो दे दी थी। और एक दिन मेरा विवाह भी हो गया।

विवाह पूर्व मैं कभी-कभी प्रसून के साथ घूमती-फिरती थी। कभी कोई मूवी देखने, तो कभी किसी मॉल में, या किसी पार्क में। मुझे प्रसून के साथ घूमना अच्छा लगता था। यूँ मेरा विवाह था तो अरेंज्ड मैरिज किन्तु विवाह पूर्व उसके आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर मैं उससे प्रेम भी करने लगी थी। अतः कभी-कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता जैसे यह मेरा प्रेम विवाह है। देखते-देखते मेरे विवाह को एक माह व्यतीत हो गये। कुछ दिन तो विवाहोपरान्त होने वाले रस्मों-रिवाजों में निकल गये। कुछ दिन मैं मम्मी के घर पर भी रही। अब मुझे ससुराल में ही रहना था। मैं चाहती थी कि अपनी योग्यतानुसार कहीं नौकरी करूँ। किन्तु नौकरी इतनी सरलता से तो मिल नहीं जाती।

एक दिन मुझे प्रसून के साथ कहीं जाना था। उस दिन मैंने जींस-शर्ट पहननी चाही। तो प्रसून का तमतमाया चेहरा देखने योग्य था। विवाह पूर्व मैं पाश्चात्य ढंग के कपड़े पहनती थी तो प्रसून को अच्छी लगती थी। वह सार्वजनिक स्थलों पर मेरे हाथों को पकड़े हुए बड़े गर्व से मेरे साथ चलता था। अब क्रोध क्यों? जब कि हम एक बड़े शहर में रह रहे थे, जहाँ विवाह बाद पाश्चात्य ढंग के कपड़े पहनना आम बात थी। बात मात्र पाश्चात्य ढंग के कपड़े पहनने और न पहनने की ही तो थी नहीं। प्रसून की इच्छा और खशी यदि इतनी-सी बात में थी, तो मझे उसकी बात मानने में क्या आपत्ति हो सकती थी? मुझे आपत्ति तो तब होने लगी तब प्रसून बिना किसी बात पर मुझ पर चिल्लाने लगा था। ग़लती न होने पर भी कोई न कोई कमी निकाल कर मुझ पर हाथ उठाना उसका स्वभाव बनने लगा।

उसके घर में रह कर मुझे यह भी पता चला कि वह कोई ठेकेदार नहीं बल्कि बेरोजगार था। उसकी माँ के तानों से मुझे यह भी पता चला कि मुझसे विवाह करने का एक प्रमुख कारण यह भी था कि पी. एच. डी. करने के पश्चात् मुझे शीघ्र किसी कॉलेज में नौकरी मिल जायेगी। नौकरी मिलने में हो रहा विलम्ब उनकी आशाओं पर पानी फेर रहा था। मुझे प्रताड़ित करने की नियत से एक दिन प्रसून ने मुझे बताया कि विवाह पूर्व उसके सम्बन्ध कई लड़कियों से रह चुके हैं, अनेक लड़कियों से अब भी उसकी मित्रता है। वह जब चाहे बाहर किसी भी लडकी के साथ सम्बन्ध बना सकता है। उस विवाह से मैं स्वंय को ठगा हुआ महसूस कर रही थी। इसके पश्चात् भी मैं वह रिश्ता निभाना चाहती थी या कह सकते हैं निभाने के लिए विवश थी। कारण? हमारी संस्कृति में पति-पत्नी को जन्म-जन्मान्तर तक एक दूसरे का साथ देने की अवधारणा मुझे वह रिश्ता निभाने या ढोने के लिए विवश कर रही थी। ज़रा सी त्रुटि होने पर प्रसून मुझे पीटता। उसके माता-पिता दहेज कम लाने के ताने देकर मुझे मानसिक रूप से प्रताड़ित करते।

“तुम्हारी मम्मी जब देखो तब दहेज कम लाने की बात कहती हैं।” एक दिन सब्र का बाँध टूटने पर मैंने प्रसून से कहा।

“तो इसमें गलत क्या है? मेरे लिए ऐसे-ऐसे घरों से रिश्ते आ रहे थे जो मुझे व्यवसाय करने के लिए मोटी रकम दे रहे थे। किन्तु मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी। तुमसे यह सोच कर विवाह कर लिया कि पी. एच. डी. कर रही हो तो शीघ्र नौकरी मिल जायेगी। न जाने कैसी है तुम्हारी पी. एच. डी., जो तुम्हें अब तक नौकरी नहीं मिली?” ।

प्रसून की बातें सुन कर मैं आवाक् थी….. सदमे में थी। इस समस्या का समाधान इन लोभियों से झगड़ कर निकलने वाला नहीं है, ये बात मैं समझ गयी थी। एक दिन प्रसून के मारने के परिणाम स्वरूप मेरे दाहिने कान ने कुछ देर तक सुनना बन्द कर दिया। मेरे उस कान के सामान्य होने में महीनों लग गये। शारीरिक सम्बन्ध बनाते समय वह किसी दरिन्दे की भाँति व्यवहार करता। उसके पास जाने में मेरे रोंगटे खड़े हो जाते…. भय लगता।

जब सभी कछ असह्य हो गया, तब मैंने मा को अपनी पीड़ा से अवगत कराया। माँ से मैंने स्पष्ट कह दिया कि यदि मुझे यहाँ से बुलाया नहीं गया तो मैं जीवित नहीं रह पाऊँगी। माँ ने मुझे बुला लिया। प्रसून से तलाक लेना मेरे जीवित रहने के लिए आवश्यक था। मैं उस नारकीय जीवन से निकल गयी। शीघ्र ही मुझे इस कॉलेज में अध्यापन कार्य मिल गया है। अस्थाई ही सही किन्तु मैं संतुष्ट हूँ। विद्यार्थियों से जुड़ना, उनसे बातें करना अच्छा लगता है। शिक्षक मात्र शिक्षा ही नहीं देता बल्कि वह स्वंय भी सीखने की एक सतत् प्रक्रिया से गुज़रता है। मैं भी इस प्रक्रिया से रूबरू हो रही हूँ। अतीत की कटु स्मृतियों को अपने मन मस्तिष्क से बाहर ढकेलते हुए मैं वर्तमान में जीना चाहती हूँ। किन्तु कभी-कभी अतीत वर्तमान के पीछे-पीछे चलता प्रतीत होता है।

कॉलेज की वार्षिक परीक्षाएं समाप्त हो गयी हैं। ग्रीष्मावकाश प्रारम्भ हो गया है। एक दिन माँ ने बताया कि मुझसे मिलने मेरे कॉलेज से कोई लड़की आयी है। माँ उसे ड्राइंगरूम में बैठा दिया था। मैं सोच रही थी कि कौन हो सकता है? और मुझसे क्या काम हो सकता है? विचारों के उथल-पुथल को विराम देते हए मैंने डाइंग रूम में जाकर देखा तो वहाँ इशिता बैठी मिली।

“कहो क्या हाल है?’ ‘मैंने पूछा और वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गयी।

“नमस्ते मैडम’ उसने कहा। मैंने उसे बैठने का संकेत किया।

उसके चेहरे पर संकोच के भाव थे। वह दृष्टि झुकाकर चुपचाप बैठी थी। उसे चुप देख बातें मैंने प्रारम्भ कीं।

“पिछले सप्ताह तुम्हारा परीक्षा परिणाम निकल आया। कैसा रहा?”

“मैं पास हो गयी मैम ।”उसके चेहरे पर प्रसन्नता छलक उठी।

“शाबाश! बहुत अच्छी बात है।’ उसका उत्साहवर्धन करते हुए मैंने कहा। वह मुस्कुरा कर मेरी ओर देख रही थी।

“आगे भी इसी प्रकार मन लगाकर पढ़ना।” समर्थन में उसने सिर हिला दिया। उसके चेहरे पर मुस्कान कायम थी पूर्ववत् ।

बातों का तारतम्य आगे बढ़ाते हुए मैंने ही पूछा’ तुम्हे मेरे घर का पता कैसे मिला?

“मैम, हमारे कॉलेज में वो शशांक पढ़ता है न? बी.ए. में?” उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए कहा गोया मैं शशांक को जानती हूँ। जब कि मुझे शशांक नाम का कोई विद्यार्थी इस समय याद नहीं आ रहा था।

“उसने ही मुझे आप के घर का पता बताया। वो भी आपके घर से बस कुछ ही दूरी पर रहता है।” उसने मुझे समझाते हुए अपनी बात पूरी की।

कुछ देर तक वो खामोश बैठी रही। मैं भी।

“ये लीजिये मैम!” उसके हाथों में एक डब्बा था। जो सम्भवतः मिठाई का था। मैं असहज हो उठी।

“नही….नही…इसकी क्या आवश्यकता है?”तत्काल मेरे मुख से निकल पड़ा।

“मैम! मेरी प्रसन्नता के लिए रख लीजिये।” उसने हठ पूर्वक कहा।

“विद्यार्थी जब परीक्षा में सफल होते हैं तो वो क्षण किसी भी शिक्षक के लिए सर्वाधिक प्रसन्नता का होता है। उसे इन चीजों की आवश्यकता नही होती।” मैंने आग्रह व आदेश दोनों का प्रयोग करते हुए वो डिब्बा उसे वापस किया।

कछ ही देर और रुकने के पश्चात इशिता घर जाने लगी। मैं गेट तक उसे छोड़ने आयी। मैंने देखा गेट पर एक युवक बाइक लिए खड़ा है। उस युवक ने हेलमेट पहन रखी थी अतः मैं उसे पहचान नहीं पायी। छुट्टियाँ समाप्ति की ओर थी। मुझे नये सत्र के लिए भी कॉलेज से नियुक्ति पत्र मिल गया था।

प्रथम दिन कॉलेज कैम्पस में विद्यार्थियों की चहल-पहल देख मेरे भीतर कॉलेज के दिनों की स्मतियाँ दस्तक देने लगीं। कितनी उत्सकता. चंचलता, उमंग तथा मनचाहा सब कुछ पा लेने की उत्कंठा होती है उन दिनों। कुछ बच्चे सब कुछ पा लेते हैं। तो किसी को लम्बी जद्दोजहद करनी पड़ती है। कुछ मृगरीचिकाओं के पीछे भागते हैं…देर तक भागते हैं….तब जाकर स्पष्ट होता है कि यह मात्र भ्रम था….जल नहीं।

“नमस्ते मैम!’ इशिता खड़ी थी मेरे समक्ष । यद्यपि सभी विद्यार्थी नये व अच्छे लग रहे थे, किन्तु इशिता आज मुझे बहुत आकर्षक व पहले से काफी बदली हुई लग रही थी। सीधी-सादी दो चाटियों का स्थान आकर्षक ढंग से बँधे बालों ने ले लिया था। आँखें कुछ अधिक चंचल व स्वप्निल हो रही थीं। चेहरे पर किशोरावस्था से युवावस्था की ओर बढ़ता हुआ स्वाभाविक आकर्षण तथा सौन्दर्य विद्यमान था । कुल मिलाकर आज की इशिता मुझे अच्छी लगी।

शनै-शनै कॉलेज में शिक्षण कार्य में गति आने लगी। कक्षायें नियमित व समयबद्ध हो गयीं। इशिता प्रतिदिन कॉलेज आती किन्तु वो मुझे बस में नहीं मिलती। कदाचित् उसे घर से कोई छोड़ने आता हो या किसी अन्य साधन से आती हो। ठीक ही है, बस में धक्के खाने से अच्छा ही है कि उस घर से कोई छोड़ने व लेने आ जाये। एक दिन बस से उतरकर मैं कॉलेज के गेट की ओर बढ़ ही रही थी कि सहसा मेरी दृष्टि इशिता पर पड़ गयी। वह एक युवक की मोटरसाइकिल से उतर रही थी। मैंने अनुमान लगाया कि हो न हो यह वही युवक है जो उस दिन मेरे घर से इशिता को लेने आया था। चेहरा तो मैं नहीं देख पायी, किन्तु डीलडौल से कुछ-कुछ वैसा ही लग रहा था। वह युवक डिग्री सेक्शन की ओर मुड़ गया तथा इशिता इण्टर सेक्शन की ओर | मुझे समझते देर न लगी कि यह लड़का भी इसी कॉलेज का छात्र है। कुछ ही समय पश्चात् पता चल गया कि वह लड़का कोई और नही शशांक ही था।

शनै-शनै दिन व्यतीत होते जा रहे थे। छ: माह व्यतीत हो गये दिन बदले, ऋतुएं बदलीं। शीत ऋतु का आगमन हो गया। सृष्टि ने भी शीत के प्रकोप से बचने के लिए कोहरे का चादर लपेट ली थी। वो शीत ऋतु में अवकाश का ही कोई दिन था जब इशिता मेरे घर आयी। माँ ने उसे ड्राइंगरूम में बैठा दिया। इशिता दूसरी बार मेरे घर आयी थी।

“इशिता तुमसे मिलने आयी है।” माँ उसे उसी समय से पहचानती थी जब वो पहली बार मेरे घर आयी थी।

“कहो क्या हाल हैं? कैसे आना हुआ?” मेरे पूछने पर इशिता चुप रही।

“सब ठीक तो है? मेरे पूछने पर उसने स्वीकृति में सिर हिलाया किन्तु चुप ही रही। किसी संशय और उहापोह की स्थिति में लगी वो मुझे । इशिता चुप क्यों बैठी है और मुझसे क्या चाहती है? जब वो कुछ बता ही नहीं रही तो मैं क्या करूँ? इसी ऊहापोह की स्थिति में मैं भी चुप बैठी रही। कुछ देर तक लगभग…दस मिनट तक कमरे में सन्नाटा पसरा रहा।

“मैम! मैं शशांक से विवाह करना चाहती हूँ।” उसकी दृष्टि नीचे झुकी थी। उसके होठों से अस्फुट से शब्द निकल रहे थे।

“क्या?” अब विस्मय से चौंकने की बारी मेरी थी।

“मैं शशांक से प्रेम करती हूँ।” उसने पुनः धीमे स्वर में कहा।

उसकी बातें सुनकर मैं आश्चर्य चकित तो थी ही। मैं यह भी जानती थी कि इस उम्र में ऐसी नादानी व बेवकूफियाँ बच्चे कर ही जाते हैं। किन्तु इशिता के इस प्रकरण से मुझे क्या लेना-देना? मैं समझ नहीं पा रही थी कि मुझे उसके पारिवारिक जीवन से कब व कहाँ सरोकार होने लगा था? मैं उसके शिक्षण सम्बन्धी समस्याओं के लिए नियुक्त थी। मेरे घर आकर मुझसे बताने का क्या अर्थ है? ये बात उसे अपने परिवार से या शशांक के परिवार से बताना चाहिए। किन्तु इस समय मैं गुरू-शिष्य परम्परा का निर्वाह करते हुए उसे सही मार्ग दर्शन अवश्य दूंगी।

“बेटा! पहली बात ये कि तुम्हें ये सब कुछ अपने घर वालों को बताना चाहिए।” वह चुपचाप सिर झुकाये मेरी बातें सुन रही थी।

“दूसरी बात यह कि जीवन का इतना बड़ा फैसला लेने से पूर्व तुम्हें पूर्ण शिक्षित व आत्मनिर्भर होना चाहिए।” मेरी बात सुनकर ऐसा लगा जैसे मेरी बातों का कोई प्रभाव ही उस पर न पड़ रहा हो। वह उसी प्रकार सिर झुकाये मेरी बात सुन रही थी किन्तु चेहरे के भावों में कोई परिवर्तन नहीं था।

“मैं पढूँ या न पढूँ…..आत्मनिर्भर बनूं या न बनूँ। उसके साथ किसी भी परिस्थति में मैं रह लूंगी।” उसके चेहरे पर मासूमियत थी। किन्तु उसकी बातों में दृढ़ता व इरादों में ज़िद देखकर मैं मायूस थी। मेरा उससे कुछ भी कहना अब मायने नहीं रखता था।

“आपको देखकर मेरे हृदय में अपनेपन की अनुभूति होती है अतः अपने मन की बात आपसे कहना चाहती थी। इसीलिए आपके पास चली आयी।” इशिता कुछ देर तक बैठी रही। मेरे व उसके बीच पुनः कोई बात नहीं हुई। वो चली गयी।

उसके जाने के पश्चात् मैं सोचती रही….उम्र के इस अल्हड़ व नाजुक पड़ाव पर किन नादानियों में वह उलझ गयी है। इस उम्र की वो अनुभूति जिसे वह प्रेम कह रही है विवेकहीन व अन्धा होता है। कभी-कभी मात्र शारीरिक आकर्षण भी। किन्तु ये बात वो कहाँ समझ पा रही है……

शनै: शनै: दिन व्यतीत होते रहे। मैं भी घर व कॉलेज के उत्तरदायित्व में व्यस्त रही। व्यस्तता के उपरान्त भी कभी-कभी मुझे इशिता की याद आ जाती….. क्या चल रहा होगा उसके जीवन में? सब कुछ ठीक हो उसके साथ मन यही कहता। इधर कई दिनों से इशिता कॉलेज में नही दिख रही थी। पहले बस से आती-जाती थी तो प्रायः दिख जाती किन्तु इधर न जाने कब से वह कॉलेज नहीं आ रही है? मैंने ध्यान नहीं दिया। धीरे-धीरे एक माह हो गये वो नहीं दिखी। विद्यार्थियों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि वह अस्वस्थ है। यह कैसी अस्वस्थता है कि एक माह से अधिक हो गये ठीक नहीं हो रही? मन असमंजस की स्थिति में व्याकुल रहा। अंततः कॉलेज के प्रिंसिपल तक मैंने ये बात पहुंचाई। तत्पश्चात् एक दिन उसके घर गयी। दरवाजा इशिता की माँ ने खोला। मुझे उसकी माँ ही बीमार दिख रही थीं। उनकी आँखों में गहरी पीड़ा भरी थी। यह जानकर कि मैं उसके कॉलेज की शिक्षिका हूँ, उनका चेहरा क्षणिक प्रसन्नता से चमक उठा। औपचारिक अभिवादन के पश्चात् मैंने बताया कि,“मुझे कॉलेज की ओर से भेजा गया है। इशिता कई दिनों से कॉलेज नही जा रही है।” मेरे इतना कहते ही इशिता की माँ छत की ओर देखने लगीं। उनके नेत्र सजल हो उठे। बोलीं कुछ भी नहीं।

“क्या हुआ? वो ठीक तो है। घर में नही है क्या?” उनकी दशा देखकर एक साथ कई प्रश्न मैंने कर डाले। मेरे सहानुभूति पूर्ण शब्दों का स्पर्श पाते ही वो खुलने लगीं।

“क्या बताऊँ मैडम जी! वो घर में ही है। बाहर निकलने में डरती है। न समय से कुछ खाती है न पीती है। डॉक्टर के पास भी जाने को तैयार नहीं है। कोई दवा भी नहीं लेती। कहती है नींद नहीं आती। कहीं भी अच्छा नहीं लगता। अकेले रहती है। कुछ समझाओ तो रोने लगती है। हमारी बातें जहर के समान लगती हैं उसे।” इशिता की माँ धीमें स्वर में उसके बारे में बताने लगी। आवाज इतनी धीमी कि कहीं कोई सुन न ले। कदाचित् वो बातों को इशिता से छुपाना चाह रही थीं।

इशिता की माँ लम्बी साँस ले कर चुप हो गयी थीं। मैं हतप्रभ सुन रही थी।

“इकलौती लड़की है हमारी । न जाने उसके भाग्य में क्या लिखा है?” कुछ देर चुप रहने के पश्चात् उन्होने पुनः कहा। मैं ध्यान से उनकी बातें सुन रही थी।

“दिन भर मोबाइल पकड़े रहती है। न जाने उसमें क्या देखा करती है? क्या ढूँढा करती है?”

“इशिता है कहाँ?” मैंने उसकी माँ से पूछा।

उसकी माँ अन्दर गयी और कुछ देर में इशिता को ले कर आ गयीं।

मैं इशिता को देख कर आवाक् थी। उसके चेहरे से किशोरवय का आकर्षण न जाने कहाँ विलुप्त हो गया था। आँखें नींद से बोझिल थीं। वह आकर चुपचाप बैठ गयी।

“क्या हुआ इशिता?” मैंने पूछा । उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट दिखी।

“जी तबियत ठीक नहीं रहती।” कह कर चुप हो गयी। मैंने देखा उसके हाथ में मोबाइल फोन था । उसको मेरे साथ बातें करते देख उसकी माँ कमरे से स्वतः चली गयी थीं।

“मैम! मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ।” कुछ देर की खामोशी के पश्चात् उसने कहा।

“हाँ…हाँ..कहो।” इशिता मेरे समीप आकर बैठ गयी थी।

“मैम! मैं शशांक से प्रेम करती हूँ।” कह कर इशिता धीरे-धीरे सिसकने लगी।

“पहले वह दिन-रात फोन पर मुझसे बातें करता था, अब फोन नहीं उठाता। यदि एक बार भी वह मेरा फोन उठा ले तो मैं स्वस्थ हो जाऊँगी।” इशिता कहती जा रही थी तथा सिसकती जा रही थी।

“मैम! ईश्वर के समक्ष वह मुझे अपनी पत्नी स्वीकार कर चुका है। मैं कैसे उसे विस्मृत करूँ?”

“कभी-कभी मुझे लगता है कि उसे विस्मृत करने के प्रयास में मैं कहीं विक्षिप्त न हो जाऊँ?….. जितना उसे भूलने का प्रयास करती हूँ वो मुझे उतना अधिक याद आता है।” वह रुक-रुक कर कहती जा रही थी।

“मैम! मैं उसके बिना जीना नहीं चाहती। आत्महत्या करने के विचार मन में आते हैं।” कह कर इशिता रोने लगी। मैं सन्न थी उसकी बातें सुनकर। किशोरवय की नादानी में उससे जो छल किया गया है उसके कारण कदाचित वो अवसाद में है। इस उम्र में ये समस्या उसके लिए घातक हो सकती है। समस्या बढ़े उससे पहले ही उसे मनोचिकित्सक को दिखाना आवश्यक था। अब तक उसके घर वालों ने उसे किसी चिकित्सक को दिखाया नहीं था। कारण ये था कि इशिता चिकित्सक के पास जाने को कतई तैयार नहीं थी।

“बेटा! तुम परेशान न हो सब ठीक हो जायेगा।” इससे अधिक उस बच्ची से मैं और क्या कह सकती थी। मुझे उसके घर वालों को यह अवश्य बताना था कि उनका इशिता के लिए किसी चिकित्सक से मिलना कितना आवश्यक है।

इशिता को आराम करने के लिए कमरे में भेज कर मैंने उसकी माँ से इशिता की समस्या की गम्भीरता के विषय में चर्चा कर, उन्हें तत्काल किसी चिकित्सक से परामर्श करने हेतु कहा। मैं वहाँ से चली आयी।

घर आ कर मैं सोचती रही कि क्या यह प्रेम नादान उम्र के साथ-साथ कहीं न कहीं उससे अधिक मोबाइल फोन और दिन-रात चैट का परिणाम नहीं है? इशिता का आभासी दुनिया में अपना काल्पनिक प्रेम ढूँढना इसी बात की ओर ही तो इंगित कर रहा है? मैं चुपचाप कमरे में लेटी गयी। नींद नहीं आ रही थी। मन में उथल-पुथल भी। इस समय मैं स्वयं को इशिता जैसी ही नासमझ पा रही थी। जब प्रसून द्वारा मैं छली गयी, तब मैं परिपक्व थी। इशिता जैसी नही। मेरी शिक्षा पूरी हो चुकी थी। प्रसून को समझ कर भी उसे समझना नही चाह रही थी। कारण यह था कि मैं प्रसून से भावनात्मक रूप से जुड़ चुकी थी। भावनाएं कभी-कभी यथार्थ देखना नहीं चाहतीं। संवेदनशीलता स्त्री के व्यक्तित्व का प्रमुख गुण होता है। किन्तु इस विशिष्टता का ऋणात्मक बिन्दु यह है कि इसी कारण स्त्री छली भी जाती है। इसी का लाभ पुरुष उठाता है। फेसबुक, चैट बाक्स और फोन का सदुपयोग किशोर उम्र के बच्चे उतना नहीं करते जितना इसका दुरूपयोग कर मानसिक स्तर पर दुर्बल हो जाते हैं। वे इस आभासी संसार के इर्द-गिर्द दिन-रात रहना चाहते हैं। सड़कों पर चलते हुए, गाड़ी चलाते हुए और तो और भीड़ भरे व उत्सव के माहौल में भी उंगलियाँ फोन के स्क्रीन पर घूमती रहती हैं। अभासी संसार का सम्मोहन मृगमरीचिका की भाँति है। इशिता को भी यह आभासी संसार अपने सम्मोहन से बाहर नहीं निकलने दे रहा है।

इशिता ने उस वर्ष परीक्षा नहीं दी। परीक्षा देती भी तो कैसे? वह मानसिक शन्यता और अवसाद की गिरफ्त में आ गयी थी। बीच-बीच में मैं इशिता का हाल लेने उसके घर जाती रहती। यद्यपि वह उपचार नहीं चाहती थी। किन्तु उसके माता-पिता ने उसको चिकित्सक से दिखाया तथा किसी प्रकार उसको दवाएं दी गयीं। यह उनका समझदारी भरा कदम था। इशिता धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगी। शशांक आते-जाते कभी-कभी मुझे कॉलेज में दिख जाता। उसने अपनी ग्रेजुएशन की अन्तिम वर्ष की परीक्षा दी तथा आगे की शिक्षा के लिए आवेदन भी किया।

मैं शशांक को कभी गलत नहीं कहूँगी। जहाँ तक मैं समझती हूँ उसने इशिता का शारीरिक दुरूपयोग नहीं किया है। थोड़ा-सा धैर्य व नियत्रंण इशिता के लिए भी आवश्यक था। किन्तु किशोरवय अल्हड़, नादान व संवेदनशील होता है। उस उम्र में धैर्य व नियंत्रण कभी-कभी बच्चों के हाथ से कब फिसल जाते हैं, ये वो समझ नहीं पाते। मैं इशिता से मिलने उसके घर जाती रहती। मैं जानती हूँ कि इस स्थिति में उसके लिए मानसिक संबल, सान्त्वना के साथ-साथ बातचीत भी आवश्यक है। उसे एकान्त से बाहर निकालना होगा। समय के साथ सब ठीक हो जायेगा।

समय सबसे बड़ा चिकित्सक होता है। समय के साथ इशिता स्वस्थ हो गयी। अगले वर्ष उसने कॉलेज में पुन: प्रवेश लिया। कॉलेज आने लगी। उसके डगमगाये आत्मविश्वास को वापस लाने के लिए मैं उसका साथ दे रही थी। इशिता आगे बढ़ती जा रही थी। शिक्षा में भी, जीवन में भी।

………देखते-देखते छ: वर्ष व्यतीत हो गये। उसी कॉलेज में मेरी नौकरी स्थाई हो गयी। मैं अकेले अपने जीवन का सफर तय कर रही थी….किन्तु अकले कहाँ हूँ मैं? मेरा आत्मविश्वास मेरे साथ है। इशिता की शिक्षा पूरी हो चुकी थी। वह नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयार कर रही थी। मुझसे मिलने वह मेरे घर आती रहती। अपनापन का अटूट रिश्ता स्थापित कर लिया था उसने मेरे साथ।

“मैम! बहुत दिनों से मेरे मन में आपको ले कर एक प्रश्न उठ रहा है। यदि आपकी आज्ञा हो तो पूछ?” एक दिन इशिता ने मुझसे कहा। इशिता मेरे साथ गुरू-शिष्य के सम्मानजनक रिश्ते के साथ-साथ कुछ मित्रवत हो चली थी। प्रश्न पूछने के उसके इस ढंग से मैं मन ही मन मुस्कुरा पड़ी। अच्छा लगा।

“हाँ….हाँ… पूछो।” मैंने कहा।

“मैम! आपका विवाह हो चुका है? मुझे उससे इस प्रकार के अनौपचारिक प्रश्न की आशा कतई नहीं थी।

“हाँ…..” मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा।

“आप अपनी माँ के पास क्यों रहती हैं?” उसके प्रश्न सुन कर मै चकित होती जा रही थी।

“बस यूँ ही… ।” अपनी भावनाएं छुपाते हुए उसे टालने के लिए मैंने कहा।

“मैम! आपका वैवाहिक जीवन सफल नहीं है। यही बात है न?” उसके इस प्रश्न से अन्दर तक मैं हिल चुकी थी। किन्तु चुप थी।

“मैम! वैवाहिक जीवन ही तो सब कुछ नहीं होता? किसी लड़की की योग्यता को उसके सफल वैवाहिक जीवन से मापा जाना आवश्यक क्यों होता है? जब कि यही पैमाना किसी लड़के की योग्यता को नापने के लिए आवश्यक नहीं होता? आप शिक्षित व आत्मनिर्भर हैं। विद्यार्थियों को शिक्षा देती हैं। मेरे जैसे भटके हुए अनेक को मार्ग दर्शन भी ….तो आप असफल कैसे हैं?… मेरे इस प्रश्न से आपके चेहरे पर संशय व उदासी का छा जाना इस बात की ओर संकेत नहीं कर रहा कि आप भी वैवाहिक जीवन की सफलता को जीवन की सफलता मानती हैं? …..स्त्री के साथ ही पुरुष का भी वैवाहिक जीवन असफल होता है किन्तु इसकी पीड़ा का दंश स्त्री ही क्यों भोगती है?….”

मैं इशिता की ओर देखे जा रही थी। क्या इशिता इतनी समझदार हो गयी है? वह जीवन को इतने समीप व यथार्थपरक ढंग से समझने लगी है। सच उसने जीवन को कितने सुन्दर व सही तरीके से समझा है।

“मैम! आप इतनी अच्छी हैं। बिना झिझक आप कह सकती हैं कि आपका पति आपके योग्य नहीं था।”

इशिता की बातें सुनकर मैं मुस्कुरा पड़ी। मेरे चेहरे पर व्याप्त हो गयीं गर्व की रेखाओं को इशिता ने देख लिया था। मेरे साथ वह भी मुस्कुरा पड़ी।

पुनः मिलने के वादे के साथ इशिता चली जा रही थी। उसके कदमों की दृढ़ता को देखकर मैं गौरवान्वित थी। मन ही मन ऊपर वाले का आभार व्यक्त करते हुए यही प्रार्थना कर रही थी कि बच्चे जीवन में कभी भ्रमित न हों। यदि ऐसा दुर्भाग्य आ भी जाये तो निराश न हों। जीवन ईश्वर का दिया अनमोल उपहार है। उसे समाप्त करने का अधिकार किसी और को नहीं है। कोई भी परिस्थिति जीवन से बड़ी नहीं होती …… सही समय पर इशिता सब कुछ समझ गयी।

समय अपनी गति के साथ आगे बढ़ता जा रहा है। छ: माह और व्यतीत हो गये। ……एक दिन घर…घरी…घर..फोन की घंटी बज रही थी। मैं कॉलेज जाने की तैयारियों में व्यस्त थी। अतः उठा न सकी। कॉलेज पहुँच कर देखा फोन इशिता का था। न जाने क्या कहना चाहती है वो । अतः मैंने पलट कर उसे फोन मिलाया।

“हेलो मैम! प्रणाम। उधर से उसकी आवाज आयी।

“हाँ….हाँ…बताओ।”

“मैम! मैने पी.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। यह प्रसन्न्ता सबसे पहले आप से साझा कर रही हूँ।” इशिता ने पुन: मुझे स्तब्ध कर दिया था। प्रसन्नता के कारण गले से शब्द नहीं निकल पा रहे थे।

“मैम! आज ही नेट पर परीक्षा का परिणाम आया है। उसने कहा।

“खुश रहो बेटा! विकास के सोपानो पर इसी प्रकार आगे बढ़ती रहो।” मेरा हृदय इशिता के लिए अनकानेक आशीषों से भर गया।

“जी मैम! आपकी शिष्या हूँ। आपकी आशायें धूमिल न होने पायें ऐसा प्रयत्न करती रहूँगी।” मेरे नेत्र सजल होने लगे थे। ये अश्रु प्रसन्नता के थे। अमूल्य थे।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’