भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
आखिर पिछले इतवार को सबा मर गई।
न, मर तो वह दो साल पहले ही गई थी, जब तेरह साल की मासूम बच्ची को घरवालों की बंदिशों ने घुटन के समुंदर में डुबो दिया था।
शुरुआत बुरके से हुई।
‘तुम्हारे लिए यह बुरका कैसा रहेगा, सबा?’ बड़ी भाभी के मुंह से यह सुनकर दो पल के लिए तो वह जैसे भौचक्की रह गई थी।
बुरका?
और उसके लिए?
लफ्ज़ों के मायने समझने के बाद उसका जी चाहा था कि बस, हंसती चली जाए। इससे ज्यादा मजाक की बात और क्या हो सकती है कि उससे बुरका पहनने को कहा जाए । वह बुरका पहनेगी? सेंट जोसफ कान्वेंट स्कूल में आठवीं क्लास में पढ़ने वाली सबा बुरका पहनेगी? आम लड़कियों की तरह अब परदे में रहेगी?
सोचने की बात है, खुद को घर में अगर सबसे अलग और खास मानती है, तो इसमें गलत क्या है? उसे और लडकियों की तरह जरी गोटे का सलमा-सितारों से जड़ा गरारा-कुरता-दुपट्टा भाता है? कलाई भर चूड़ियां और गोरी हथेलियों पर सजी सुर्ख मेंहदी का शौक है? नए फैशन की बालियां-बुंदे खरीदने के लिए कभी जूझी है? कम्प्यूटर के माउस से खेलना, जींस-टॉप पहनना और तेज साइकिल चलाना जैसी लाइफ स्टाइल के चलते उसे बुरका पेश करना……
मुंह फुलाकर मान जताया था उसने, ‘यह बुरका-शुरका मेरे सामने से हटाओ, भाभी। मैं तो मरते दम तक इसे पहनने वाली नहीं।’
‘चुप रहो। तुम्हारे सातों भाइयों में से किसी ने भी सुन लिया तो गजब हो जाएगा।’ घबराकर भाभी फुसफुसाई थीं।
‘डरती हूं किसी से?’ ऐंठती हुई वह वहां से हट गई थी।
उस पूरे दिन उसका मन अनमना रहा। सोचती रही थी, अगर इन लोगों के लड़की को बुरका पहनाने जैसे दकियानूसी खयालात थे, तो उसे कान्वेंट स्कूल में क्यों पढ़ाया? घर की चारदीवारी में बंद रखने पर वह भी इनके इशारों पर नाचने वाली कठपुतली बनी रहती। जरूर बड़ा मनहूस रहा होगा वह दिन, जब अड़ोस-पड़ोस की बच्चियों का सेंट जोसफ में दाखिला होता देख अम्मी हुलस उठी थीं, ‘क्यों जी, हम भी अपनी सबा को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाएं?’
अब्बू की कौन-सी कम दुलारी थी वह!
अम्मी की अरजी पर फौरन अब्बू की ‘सही’ हो गई और उसे सेंट जोसफ में दाखिला दिला दिया गया।
पढ़ाई में किसी से पीछे नहीं रही वह। खटाखट सीढ़ियां चढ़ती हुई नर्सरी क्लास से आठवें दरजे में पहुंच गई। लेकिन बचपन की दहलीज पार करते ही यह बुरका पहनाने की जिद……
न, इससे कभी समझौता नहीं करेगी वह ।
पर महीना बीतते-न-बीतते शौकत भाईजान एक दिन बेतहाशा भड़क उठे, ‘सबा, हमारे खानदान में परदे का चलन है। तुम्हें भी भले घर की लड़कियों की तरह अदब–कायदा सीखना चाहिए। अपनी भाभियों की बात गौर से सुननी चाहिए। इस तरह सड़क पर बेपरदा घूमोगी, तो कल को हमारा कौन शरीफ रिश्तेदार तुम्हें अपने घर की दुल्हन बनाने को रजामंद होगा?’
‘उहं’, एक लापरवाह अंदाज में उसने गर्दन झटकी थी, ‘भाड़ में जाएं वे सारे-के-सारे शराफत के पुतले । मुझे उनमें से किसी के घर की दुल्हन बनना ही नहीं है।’
तो क्या जिंदगी भर इसी तरह हया-शर्म ताक पर रखकर, घर-बाहर घोड़ी जैसी कुदकती फिरोगी?’ सुर्ख आंखों से घूरते हुए भाईजान बाहर चले गए थे।
उसने भी उसी वक्त अब्बू के दरबार में पहुंचकर शिकायत जड़ दी थी, ‘देखिए अब्बू, शौकत भाईजान को समझा दीजिए। बिना वजह हमें इतनी खरी-खोटी सुना दी। उनका दिया खाती हूं क्या?’
‘अरे रे, क्यों नाराज हो गई मेरी छुटकी?’ अब्बू हंस दिए थे।
‘आप ही बताइए, क्या मैं घर-बाहर घोड़ी जैसी कुदान भरती हूं? ढंग की एक व्हीकल तक तो है नहीं, दौडूंगी क्या खाक |…… बस, भाईजान के इसी ताने के जवाब में आपको मुझे एक स्कूटी खरीदवानी होगी।’
अब्बू दो पल खामोश रहे।
फिर प्यार से उसकी पीठ थपकी, ‘बेटी, अब तुम बड़ी हुई हो। ऐसी कोई जिद मत करो, जिससे बिरादरी में हमारे नक्कू बनने की नौबत आ जाए।’
‘स्कूटी चलाना कोई बुरा काम है?’ वह तिलमिला उठी थी।
‘फालतू बहस नहीं। तुम्हें स्कूल ले जाने लौटा लाने के लिए आटो लगा तो दिया है। अब्बू बड़े धीरज से बोले ।
उसे गुस्से से फनफनाती देख, उन्होंने और ज्यादा प्यार से समझाया था, ‘और मैं तो कहता हूं, भाइयों के एतराज को देखकर तुम्हें साइकिल चलानी भी छोड़ देनी चाहिए। अब बड़ी हुईं, घर के काम-काज में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दो।
अब्ब की हिदायतों से सिर घम गया था उसका। कान्वेंट स्कल में आठवीं क्लास में पढ़ने वाली लड़की को ये लोग सजावटी सामान समझते हैं क्या? अलमारी के जिस कोने में सजा देंगे, वहीं सजी रहेगी। किसी दिन उसकी क्लास की लड़कियों से बात करें तो दुनिया की तेज रफ्तार के बारे में दिमाग की बंद खिड़कियां खुलेंगी। एक है मनीषा, जो फैशन डिजायनिंग का कोर्स करने का सपना देखती है। दूसरी है नीतू, जो अभी से अपनी लंबाई और वजन को लेकर इतनी कांशस है कि सुबह घंटे भर योग और शाम को घंटे भर डांस प्रेक्टिस करती है। मजाल है, एक समोसा तक कभी पेट में डाल ले। उसका मॉडलिंग की दुनिया में धमाका करने का इरादा है। और वह स्वीट-सी नीलम….फोटोग्राफी का जुनून सवार है उस पर तो। संगीता की बैडमिंटन में जान बसती है और शहनाज इंटर पास करते ही इंटीरियर डेकोरेशन की फील्ड में नसीब आजमाने का ख्वाब देख रही है। दूसरों की क्या कहें, अगर अब्बू ने कभी उसके दिल की चाहत जानने की ही कोशिश की होती, तो एयर होस्टेस बनने का जोशीला सपना क्या उनसे छिपाती? पर जिस घर में साइकिल चलाने तक पर पाबंदी लग गई हो, वहां हवा में उड़ने का सपना उसकी खामखयाली ही तो है।
दिल डूबने लगा, तो उसने खुद ही अपनी हौसला आफजाई की थी – न, ऐसी आसानी से हथियार नहीं डालेगी वह । खुली हवा में सांस लेना उसका हक है। अपने हक के लिए लड़ेगी वह । आखिरी सांस तक लड़ेगी। भले ही पिद्दी-सी लड़की है, पर पूरे घर से मोर्चा लेगी। हार या जीत इतनी मायने नहीं रखती, जितना उसका लड़ने का जज्बा मायने रखता है।
बगावत की एक तीखी लहर उसी पल उसके समूचे तन-मन में सरसराती हुई दौड़ गई। उस दिन के बाद हर बात में घरवालों की हुक्मउदूली करना जैसे उसकी आदत में शुमार हो गया। चूंकि बात लौट–फिरकर उसी बुरके पर लौट आती, इसलिए यह बुरका उसे अपनी आजादी का जानी दुश्मन नजर आने लगा।
साल बीतते-न-बीतते यह हालत हो गई कि ज्यों ही उसे बुरके की पेशकश की जाती, वह फौरन जींस-टॉप पहनकर घरवालों के सामने आ जाती। एक दिन उसे इस लिबास में देखकर अम्मी इतनी बौखलाई कि दोनों हाथों से उसका झोंटा नुचव्वल करती हुई चीखीं, ‘मैं कहती हूं, फौरन कपड़े बदल। हमारे चेहरे पर कालिख पोतने की मंशा क्या एकदम ही ठान ली है तूने?’
अगर आपको ऐसा लगता है, तो यही समझ लीजिए। लेकिन एक बात याद रखिए, अपने पहनने-ओढ़ने पर पाबंदी मैं बिलकुल बरदाश्त न करूंगी।….. और हां, मेरे बाल छोडिए। पहले ही किस कदर झड रहे हैं, उस पर आप एकदम ही गंजी बनाने पर तुल गई हैं। सर्द आवाज में बात करके, आखिर तक पहुंचते-पहुंचते वह तुनक उठी थी।
‘तुझे इस लिबास में देखकर तेरे भाइयों की आंखों में खून उतर आता है।’
‘तो क्या उनके डर से मैं अंगुल भर की चुहिया बनकर किसी बिल में समा जाऊ? सामने तो पडूंगी ही। आंखों में खून उतरता है तो उतरता रहे।’
“सबा, मैं कहती हूं कि पानी सिर से ऊपर जा चुका है, अब भी होश में आ जा।
‘चीखिए मत। बी.पी. की मरीज हैं।…… और हां, मेरे ये कपड़े आपको इतना खल रहे हैं, तो इस वक्त बदल आती हूं। पर याद रखिए, बाद में सौ दफा पहनूंगी। जब तक बुरके की बंदिश से मुझे आजादी नहीं मिलेगी, मैं इसी तरह आप लोगों के सीने पर मूंग दलूंगी। फैसला मुझे नहीं, आप लोगों को करना है।’
पर ऐसी बातों का फैसला इतनी आसानी से होता है क्या?
कभी काउन्सिलिंग तो कभी दिमागी बीमारी का इलाज तक उसके लिए तजवीज़ किया गया। तजुर्बेकार लोगों की भी राय ली गई।
और पूरे दो साल जब घर में कच-कच मची रही, तो घरवालों ने एकतरफा फैसला सुना दिया, ‘सबा, कल से तुम्हारा स्कूल जाना बंद । यह अंग्रेजी स्कूल ही सारे फसाद की जड़ है। यही तुम्हें बिगाड़ रहा है। अब तुम सिर्फ मदरसे में पढ़ाई करोगी।’
‘आप लोग…’, गुस्से के मारे उसकी आंखों से चिंगारियां झरने लगीं, ‘आप लोग मेरा स्कूल बदलवाएंगे।’
‘हां।’ अम्मी सर्द आवाज में बोलीं।
‘दो महीने बाद हाईस्कूल का इम्तहान है। इम्तहान से ठीक पहले मेरा स्कूल छुड़वाना आप लोगों के जुल्म की इंतिहा है, अम्मी।’ वह रो पड़ी थी।
पर अम्मी न पसीजीं। बोलीं, ‘ठीक है, हम तुम्हें आखिरी मौका देते हैं। इस शर्त पर इम्तहान देने की इजाजत मिलेगी, जब तुम बुरका पहनने के लिए रजामंदी दोगी।’
“ऐसी ज्यादती! यह तो सरासर ब्लैकमेलिंग है, अम्मी।’
‘जो भी समझ लो। फैसला अब तुम्हारे हाथ है।’
सुनामी का कहर उस पर टूट पड़ा था। अचानक आए इस सैलाब के लिए वह पहले से तैयार नहीं थी। कहां स्कूल में प्रैक्टिकल की डेट आने के इंतजार में पूरी क्लास एक्जाम फीवर की गिरफ्त में है और यहां उसका स्कूल छुड़वाकर मदरसे भेजे जाने की साजिश चल रही है। उफ, क्या करे वह? इन हालात से कैसे पार पाए?
दूर तक अंधेरा नजर आते ही वह आंखों में आंसू भरकर, एकदम गिड़गिड़ा उठी, ‘मुझ पर रहम करो, अम्मी। आप लोग कैसा बचपना दिखा रहे हैं। कुछ तो मेरे बारे में संजीदगी से सोचिए।’
‘तुम्हारे सिर से फैशन का भूत उतारने का यही आखिरी तरीका है हमारे पास ।’
फैशन का भूत?
एक फीकी मुस्कान उसके होंठों पर तैर गई थी अम्मी को कैसे समझाए कि किसी फैशन की वजह से नहीं, सिर्फ अपने ख्वाब और खुले हुए खयालात को घरवालों तक पहुंचाने के लिए वह इस लिबास को पहनती है। घर में कोई समझना क्यों नहीं चाहता कि जिन ऊंचाइयों पर उसे पहुंचना है, बरका उसकी राह में सबसे बडा रोडा है। परदे को तोडने की पहल अगर वह अपने पुराने और इज्जतदार घराने में कर रही है, तो यह कोई ऐब नहीं है। पर उसकी सोच को समझने के बजाए….
एक ठंडी सांस उसके कलेजे से निकली जरूर, पर अम्मी के बहरे कानों तक नहीं पहुंच सकी।
सचमुच उसके दिल का दर्द इस वक्त समुंदर की अछोर लहरें बन चुका था।
स्कूटी के नाम पर अब्बू का टके-सा जवाब।
साइकिल तक के नाम पर पाबंदी।
बुरके के लिए बढ़ता दबाव।
दूसरे दकियानूसी खयालात जबरन थोपने की जिद।
एक टीनएजर लड़की आखिर कैसे इतनी सख्तियां एक साथ बरदाश्त करती? अगर उसने बतौर हथियार जींस-टॉप को इस्तेमाल कर लिया, तो क्या आसमान फट पड़ा था?
शादी-शुदा चार बड़े भाइयों की बात जाने दो, बचे हुए तीन क्या कॉलेज में अपनी गर्ल फ्रेंड के साथ गुलछर्रे नहीं उड़ाते हैं? पर उनके लिए कोई बंदिश नहीं है। सारी पाबंदियां बदनसीब सबा के लिए ही हैं।
रोना-धोना छोड़, वह तनिक सख्त हो उठी, ‘अम्मी, पहले ही मेरे ऊपर बोर्ड के ऐक्जाम का बहुत टेंशन है। प्लीज, इस वक्त कोई नया हंगामा खड़ा मत करिए।’
‘कौन नासपीटा हंगामा खड़ा कर रहा है?’ अम्मी बौखला उठीं, ‘मैं या तुम? बस्ती में हमें मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा है।’
‘ऐसा क्या गुनाह किया है मैंने?’
‘अपने मजहबी उसूलों को न मानना कोई छोटा गुनाह है? धतींगड़ी लड़की का सड़क पर बेहयाई से डोलना हम कैसे बरदाश्त कर रहे हैं, सिर्फ हमारा कलेजा जानता है। यह आर-पार का फैसला तुम्हें आज और वह भी अभी करना पड़ेगा। बोलो, बुरका पहनने के लिए तैयार हो?’
‘अगर ऐसा है तो….. एक सर्द, भेदने वाली निगाह से उसने अम्मी की तरफ देखा ‘मैं हजार दफे बुरके पर लानत फेंकती हूं।’
बस, इसके बाद जैसे एक जलजला आ गया। शौकत भाईजान पता नहीं किस कोने से नमूदार हो गए। शायद छिपकर उसकी और अम्मी के बीच की गुफ्तगू सुन रहे थे। फौरन सामने आकर चीखे, ‘तो फिर अपने इंकार का मतलब भी जान लो।’
कमर में बंधी बेल्ट खोलकर शौकत भाई ने उस पर मानो चाबुक की बौछार शुरू कर दी।
वह पिटती रही।
खामोशी से पिटती रही।
निचले होंठ को दांतों के बीच दबा, चीख रोकने की कोशिश में लहू-लुहान तक कर चुकी थी।
‘क्या लड़की को मार ही डालोगे?’ आखिरकार अम्मी को बीच में पड़कर भाईजान का हाथ थामना पड़ा।
गुस्से में उसी जगह जमीन पर थूककर, बेल्ट फेंककर, शौकत भाई जब बाहर चले गए, तो अम्मी ने उसे संभाला, ‘तुम्हें भी ऐसी सीनाजोरी नहीं करनी चाहिए थी, सबा।’
हिकारत भरी निगाह से अम्मी को देख, उसने उनका हाथ झटक दिया और तीर की तेजी से अपने कमरे में घुसकर, भीतर से कुंडी लगा ली।
‘दरवाजा खोलो, सबा ।’
बाहर से लगातार आती आवाजें और दरवाजे पर पड़ती थापें उसके कानों में पहुंचकर भी नहीं पहुंच रही थीं। दरवाजा तोड़ने में जितना वक्त लगा, उतनी देर में वह ब्लेड से अपनी कलाई की नस काटकर, खून से सैलाब में डूब चुकी थी। घरवालों को डॉक्टर बुलाने तक की मोहलत न दी थी। हां मरते-मरते भी अपना दिमाग दुरुस्त होने का सबूत जरूर दे गई। घसीटामार लिखावट में उसके दस्तखत के साथ एक पुरजा पलंग पर पड़ा मिल गया – ‘अपनी मौत के लिए मैं खुद जिम्मेदार हूं, घरवालों को परेशान न किया जाए।’
पुलिस थाने की परेशानी से घर वाले भले ही बच गए हों, पर इस दिल दहला देने वाले हादसे का असर गहरा पड़ना ही था। पूरा महीना होने को आ गया, अम्मी किसी तरह भी उसकी मौत के सच को गले के नीचे उतार नहीं पा रही थीं। हर वक्त उन्हें लगता, हंसती-खिलखिलाती और बेले के गजरे-सी महकती सबा बस इसी पल बाहर से आई और ‘अम्मी!’ कहती हुई उनके गले से लिपट गई।
पूरा घर समझाता, इतने दिनों के लिए ही वह आपको मिली थी। उसे भूलने की कोशिश करो। उसके बगैर जिंदगी जीने की आदत डालो। पर अम्मी कुछ समझना चाहें, तब न! ।
इस वक्त भी सांझ के धंधलके में आंगन में बिछे तख्त पर गमगीन बैठी अम्मी अपनी लाडली की यादों में डूबी थीं, तभी उन्हें सुनाई दिया, ‘हमारी तरफ देखिए।’
ऐं! सबा की आवाज?
अम्मी की थरथराई पलकें मुंद गईं।
उन्होंने इस आवाज की गंध को अपने रोम-रोम में समाने की कोशिश की। अकुलाहट भरे कलेजे ने चीखकर पूछा, कब्रिस्तान में दफन हो जाने के बाद भी क्या सबा की रूह उन्हें दिलासा देने के लिए इस वक्त यहां आई है?….. या फिर एक सुहाना वहम है?
जो भी हो, सबा की आवाज सुनाई तो दी है न! आंखें खोलकर वह इस दिलकश ख्वाब को टूटने न देंगी।
लेकिन कोई वहम न था।
दुबारा यही लफ़्ज़ कानों में पड़े, तो अम्मी ने बेसाख्ता आंखें खोल दी और इसके साथ ही एक घुटी हुई चीख उनके गले से निकल गई।
जाहिर था, कब्र में भी सबा की रूह चैन से सो नहीं सकी है, तभी एक बार फिर जींस-टॉप पहनकर उनके सामने……
‘मुझे आपने पहचाना नहीं, दादी। मैं मुस्कान हूं।’ दो हाथों ने जब पकड़कर हिलाया तो अम्मी होश में आईं | गौर से नजर डाली – ओह, हां… यह तो मुस्कान है। शौकत की दस साल की बेटी, जो पता नहीं कब सबा के कमरे में घुसकर, उसकी अलमारी से कपड़े निकालकर और पहनकर, सामने आ खड़ी हुई थी।
अपनी नाप से कहीं बड़े कपड़ों से सजी मुस्कान अचानक ही जैसे सबा में तब्दील हो गई।
सिहरती अम्मी को लगा, सबा ही कह रही है, ‘बदलाव की हवा को रोक पाना किसी के लिए भी अब मुमकिन नहीं है, अम्मी। बोलो, कितनी सबाओं को दुनिया से उठाओगी? लेकिन प्लीज़, ताव खाने से पहले इसके कलेजे में झांककर जरूर देखना……. तुम्हारे सामने तैयार हो गई है एक और सबा ।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
