chodho jane do
chodho jane do

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

प्यारे बच्चों, आओ, तुम्हें एक ऐसी छोटी-सी कहानी सुनाऊँ, जो कानों सुनी नहीं, आँखों देखी है, खुद मेरी आँखों की देखी।

एक दिन मैं भरी-पूरी सड़क से गुजर रही थी। मुझे डॉक्टर के वहाँ जाना था। मैं एक छोटे से शहर में रहती हूँ, जहाँ एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए रिक्शे चलते हैं। मैंने एक रिक्शेवाले को पुकारा, डॉक्टर का पता बताया और रिक्शे पर सवार हो गई। रिक्शेवाला भीड़ से बचता हआ तेज-तेज चलने लगा, तो मैंने कहा, “भैया, इतनी तेजी से मत चलो। आहिस्ता-आहिस्ता चलो। तुम लोगों की तेजी से ही हादसे हुआ करते हैं।”

“बहन जी, मुझे सैकड़ों सवारियाँ बिठानी होती हैं। जल्दी-जल्दी ना चलूँ, तो कमाई कहाँ से हो। चार सवारी पहुँचाने में सारा दिन लग जाएगा और हल्की जेब लेकर घर जाऊँ तो दो रोटी भी ना मिल सके।”

“हाँ, मगर फिर भी एहतियात से काम लो। तुम्हारी जिंदगी भी कीमती है और उन सब लोगों की भी, जो सड़क पर चलते हैं। …अरे यह मजमा कैसा लगा है?” मैंने सड़क के एक तरफ फुटपाथ पर बहुत से लोगों को जमा देखकर कहा।

“होगा कोई लफड़ा!” रिक्शेवाला बोला, “रोज कुछ-ना-कुछ हुआ करता है। कहाँ तक कोई फिक्र करे।” वह आगे बढ़ता हुआ बोला ही था कि उसे रुकना पड़ा। एक छोटा-सा लड़का मजमे के अंदर से बहुत तेजी के साथ निकला और भागता हुआ रिक्शेवाले के पास आकर रिक्शे का हैंडल पकड़कर गिड़गिड़ाने लगा, “रिक्शेवाले चाचा…! मुझे जल्दी से अपने रिक्शे पर बिठा लो और जल्दी-जल्दी चल पड़ो। सबने मार-मारकर मेरा हुलिया बिगाड़ दिया है। पीठ में बड़ा दर्द हो रहा है। यह मुझे मार डालेंगे…!”

मैंने देखा उसकी शर्ट फट गई थी। एक पैर में चप्पल थी, दूसरा पैर खाली था। एक तरफ की आँख पर नील (नीला निशान) पड़ गया था।

मजमे से दो-तीन आदमी शोर मचाते उसकी तरफ बढ़ रहे थे- “जाने ना देना इसे…चोर है! यह लड़का लुटेरा है। देखने में मासूम है, मगर हजार डाकुओं का सरदार है।”

“मैं इसे जानता हूँ! यह चोर नहीं है!” रिक्शेवाला उन लोगों से चिल्लाकर बोला, “गरीब लड़का है। घर के आँगन में लगे बेर और अमरूद बेचकर अपना और अपनी अंधी माँ का पेट पालता है।”

मुझे यह सुनकर लड़के पर तरस आ गया। वह धारो-धार आँसू बहा रहा था।

“मैंने कोई चोरी नहीं की है। मैं चोर नहीं हूँ।…!”

“आ जाओ, आ जाओ, लड़के, इधर मेरे पास आ जाओ,” मैंने उससे कहा तो वह तेजी से रिक्शे पर चढ़कर मेरे पास सटकर बैठ गया और रिक्शेवाले ने रिक्शा चला दिया।

इस बार मैंने उसको तेज रिक्शा चलाने पर यों नहीं टोका कि कई लोग अब भी चीखते हुए पीछे चले आ रहे थे।

“मैं चोर नहीं हूँ आँटी।” लडके ने कहा “चोरी एक दसरे आदमी ने की थी। एक साहब की जेब से उनका पर्स उड़ा लिया था। मैं देख रहा था। मैंने चिल्लाकर कहा- साहब यह आदमी आपका पर्स लेकर भाग रहा है। वह समझ नहीं पाए। जब तक वह जेब में हाथ डालते और अपना पर्स देखते कि वह आदमी बिजली की तरह भागा। मैं पास बैठा था। लपककर उसका हाथ पकड़कर उसे रोकने लगा। वह साहब और वहाँ पर खड़े लोग जब हमारी तरफ आने लगे तो उसने पर्स नाली में फेंक दिया और लगा चिल्लाने और मुझे मारने। साहब का पर्स लेकर भागा था और मासूम बन के बेरों के टोकरे के पास आ बैठा। उसने मुझे दो-चार करारे हाथ झाड़ दिए। आँटी. मैं जमीन पर गिर पडा। सब लोग यह समझे कि पर्स मैंने निकाला है। सब के सब मेरे ऊपर टूट पड़े। मेरा बेरों का टोकरा उलट गया। सारे बेर कुचले गए।” यह कहकर लड़का रोने लगा, “चोर बनाया गया अलग, मारा गया अलग और अब खाली हाथ घर गया तो भूखा रहूँगा।”

“यह बताओ, उस आदमी ने पर्स कहाँ पर फेंका था?” मैंने पूछा।

“नाली में…” उसने कहा, “आँटी चमड़े का पर्स था। अगर भीगा ना होगा और ज्यादा देर पड़ा ना रहा तो साहब के पैसे जरूर बच जाएँगे, गंदे पानी में भीगेंगे नहीं।”

मैंने रिक्शेवाले से कहा, “रिक्शेवाले, रिक्शा वापस उसी जगह पर ले चलो। मैं इस मासूम के ऊपर लगाया यह चोरी का दाग धोना चाहती हूँ, मिटाना चाहती हूँ।”

“चलिए बहन जी, मगर…”

रिक्शेवाले की बात मैं समझ गई। “तुम डरो नहीं, तुम्हें तुम्हारी मजदूरी से बढ़ाकर पैसे दूंगी। बस तुम तेजी से चलो। कहीं वह उचक्का वापस आकर नाली से पर्स निकाल ना ले।” ।

हमारा रिक्शा दोबारा उसी सड़क पर फुटपाथ के पास जाकर रुका। चार-छः लोग अब भी वहाँ पर खड़े बातें कर रहे थे और एक आदमी नाली के पास टहल रहा था।

“आँटी, यह वही आदमी है, जो पर्स लेकर भागा था,” लड़का बोला।

“अच्छा तो जनाब देख रहे हैं कब मौका मिले और नाली खंगालें,” मैंने कहा और लड़के का हाथ पकड़कर रिक्शे से उतर आई।

एक साहब उस लडके को देखकर आगे बढे “ओ बच्चे। मेरा पर्स दे दो, मैं तुम्हें सौ रुपए दूँगा, कुछ कहूँगा भी नहीं, किसी को तुम पर हाथ भी नहीं उठाने दूँगा। तुम नहीं जानते उस पर्स में पाँच हजार रुपए हैं। मैंने बड़ी मेहनत से कमाए थे। मेरे बच्चे का ऑपरेशन होनेवाला है। अगर पर्स ना मिला तो….” यह कहकर वह रुक गए। उनकी आवाज भर्रा गई थी और आँखों में आँसू आ गए थे।

“अंकल, मुझे रुपए नहीं चाहिए,” लड़का बोला, “मैंने आपका पर्स नहीं निकाला था। हाँ, उस आदमी को देखा जरूर था, जिसने आपके कोट की जेब से आपका पर्स निकाला था।

“उस आदमी को देखा था…!” वह साहब हैरान होकर बोले।

“जी, मैं चिल्लाया भी था कि यह आदमी आपका पर्स लेकर भाग रहा है। मगर ना कोई मेरी बात समझा, ना मेरे ऊपर यकीन किया। मैंने उस उचक्के का हाथ भी पकड़ लिया था, मगर उसने चालाकी से मुझे चोर बना दिया और आपका पर्स नाली में फेंककर मुझे मारने और चोर-चोर कह के चिल्लाने लगा।”

लड़के की बात सुनकर वह साहब ‘अरे’ कहकर नाली की तरफ दौड़े तो पहले सिर्फ मैं उनके पीछे चली। फिर मेरे साथ रिक्शावाला और वहाँ जो लोग खड़े थे, सब चल पड़े। तरह-तरह की बातें होने लगी थीं। वह आदमी, जो वाकई चोर था। फौरन समझ गया कि असली बात सबके सामने आ चुकी है। बस वह मुड़ा और बिजली जैसी तेजी के साथ पास की एक गली में घुस गया।

“वह आदमी भागा जा रहा है…!” लड़का चिल्लाया।

“भागने दो बच्चे, बच के जाएगा कहाँ? मैं उसे जानता हूँ। उसका घर भी मुझे मालूम है। आवारागर्द (व्यर्थ घूमने-फिरनेवाला) आदमी है। कुछ करता-धरता नहीं। घरवालों पर बोझ बना है।” एक साहब जो अभी आकर हम लोगों के साथ खड़े हुए थे, बोले।

जिन साहब का पर्स उड़ाया गया था, वह बेताबी के साथ नाली के अंदर झाँक रहे थे।

“बड़ा कूड़ा है। पानी भी बह रहा है। खुदा जाने किधर बह गया होगा। पर घबराइए नहीं, अल्लाह पर भरोसा रखिए।” मैंने तसल्ली दी और खुद भी झुककर गंदे कूड़ा-करकट से भरे पानी में गौर से देखने लगी।

उस वक्त मेरा दिल उछल-सा पडा जब मैंने एक नीले रंग का खूबसूरत-सा मनी-पर्स दो प्लास्टिक के गिलासों के बीच बहते पानी में इधर-उधर हिलते देखा।

“देखना बेटा, क्या यह वही पर्स तो नहीं है? वह नीला-सा, खूब फूला-फूला-सा।” मैंने लड़के का हाथ पकड़कर पास खींचा और पर्स की तरफ उँगली उठाई।

लड़के ने गौर से देखा और खुशी से चीखा, “हाँ…जी हाँ, यह वही पर्स है!”

अब उन साहब ने भी झुककर देखा और खुशी के मारे लाल होकर बड़े जोश के साथ बोले, “बिलकुल, बिलकुल, यह मेरा पर्स है!”

वह झुके और चाहा कि पर्स को निकालें, मगर उनसे पहले रिक्शेवाला आगे आया और अपनी कमीज की आस्तीन चढ़ाता हुआ हमदर्दी से बोला, “नहीं साहब आप रुकें। आपके कोट की आस्तीन खराब हो जाएगी। मैं निकालता हूँ।”

“खुदा तुम्हारा भला करे, मेरे भाई…” उन साहब की आँखों में आँसू आ गए। खुशी के आँसू, मोती जैसे चमकते हुए आँसू, तारों जैसे झिलमिलाते आँसू।

रिक्शेवाले ने नाली में हाथ डाला और उस पर्स को पकड़ लिया। थोड़ी और देर होती तो पानी के तेज बहाव में वह पर्स आगे पता नहीं कहाँ बह गया होता। पर्स पर नाली की काली कीचड़ लग गई थी। रिक्शेवाले ने उसको हाथ पर रगड़कर साफ किया और उन साहब की तरफ बढ़ाकर बोला, “यह लीजिए साहब, खोलकर देख लीजिए, आपके पैसों का नुकसान तो नहीं हुआ?”

उन साहब ने जल्दी से पर्स खोला। उनके हाथ काँप रहे थे। मगर उस वक्त उनके मुँह से खुशी और इत्मीनान भरी एक चीख निकल गई, जब उन्होंने पर्स में झाँककर देखा।

“अल्लाह का करम है। नोट बिलकुल सूखे हैं। जरा भी नमी नहीं आई। बड़ी मेहनत की कमाई थी, भाई।” फिर उन्होंने आगे बढ़कर पहले तो उस रिक्शेवाले को गले लगाया, “मेरे भाई तुम्हारा शुक्रिया।” फिर उस लड़के को बाहों में भींच लिया, “मेरे बच्चे, खुदा तुझे खुश रखे और उन सबके साथ मुझे भी माफ कर दे कि तेरी नीयत पर शक किया था।”

“इन बहन जी का शुक्रिया अदा करना भूल गए, साहब?” रिक्शेवाले ने हँसकर मेरी तरफ इशारा किया, “अगर ये इस बच्चे को रिक्शे पर ना बिठातीं और मुझे यहाँ वापस न लातीं तो आपका पर्स आपको कभी वापस ना मिल पाता।”

वह साहब मेरा शुक्रिया अदा करने लगे, “बहन साहिबा, जिंदगी भर आपका एहसान ना भूलूँगा।”

और प्यारे बच्चों! जब उन्होंने उस लड़के को जिसका नाम एहसान था, सौ रुपए का नोट बतौर इनाम के देना चाहा, तो उसने इन्कार कर दिया।

“नहीं जी, मुझे यह पैसे नहीं चाहिए।”

मुझे उसका यह कहना याद आया कि अगर आज खाली हाथ घर गया तो खाना भी नहीं मिलेगा। मैंने जल्दी से कहा, “अरे बेटा, पैसा थोड़ा-बहुत इस वादे के साथ ले लो कि कल तुम इन साहब के यहाँ अच्छे पके बेर किलो-दो किलो ले जाकर दे देना।”

“हाँ, हाँ, मैं तुम्हें अपने घर का पता बताता हूँ,” वह साहब खुश होकर बोले, “तुम रोज मुझे एक किलो बेर दे दिया करना। मुझे बेर बहुत पसंद है।”

“हाँ, अब मैं आपसे पैसे ले सकता हूँ,” एहसान फूल की तरह खिल गया, “एक किलो बेर बीस रुपए के हुए।”

“तो फिर एहसान, दो किलो बेर तुम मेरे लिए भी लेते आना। मैं भी अपने घर का पता बताती हूँ,” मैंने उससे कहा।

देखते ही देखते वहाँ मौजूद सारे लोगों ने एहसान को एक-एक, दो-दो किलो बेर के पैसे दे दिए। भोला-भाला एहसान कुछ नहीं समझ पाया कि ये सब उसकी मदद कर रहे थे। उसकी नेकी और ईमानदारी का इनाम दे रहे थे।

एक आदमी जो टोकरे और डलिया बेचता था, उसने एहसान को एक मजबूत बाँस की खपच्चियों से बना खूबसूरत टोकरा दिया, “लो तुम्हारा टोकरा टूट गया ना? यह टोकरा लो। बड़ा मजबूत है।”

एहसान बेहद खुश था। शायद इसलिए कि उसने एक शरीफ आदमी की मदद की थी। बहुत बड़ी नेकी कमाई थी। अब उनके बच्चे का ऑपरेशन हो सकेगा। और दूसरी खुशी शायद उसकी इस वजह से थी कि आज वह अपनी माँ के लिए कुछ ज्यादा पैसे ले जाएगा।

और हाँ बच्चों, एक बात तो मैं भूल ही जा रही थी। जब मैंने उस रिक्शेवाले को जिसका नाम राम प्रसाद था, उसकी मजदूरी से बढ़ाकर कुछ पैसे देने चाहे तो वह हँसकर बोला, “छोड़ो जाने दो, बहन जी। आज जो खुशी मुझे मिली है, उसका कोई मोल नहीं है। साहब की आँखों के आँसू और एहसान के होठों की हँसी।”

यह कहकर उसने मुझे सलाम किया और रिक्शा लेकर आगे बढ़ गया।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’