buddhoo ka rickshaw kamaal
buddhoo ka rickshaw kamaal

Kids story in hindi: बुद्धू गाँव से दिल्ली शहर आया, तो उसके पास गुजारे लायक पैसे भी नहीं थे। उसने सोचा, ‘रिक्शा चलाकर कुछ काम चलाया जाए।’

बस, उसी दिन बुद्धू ने किराए पर एक रिक्शा लिया। पर ज्यादा पैसे उसके पास नहीं थे, इसलिए ऐसा रिक्शा उसे मिला, जिसकी हालत खराब थी। चलता तो खड़-खड़ करके खूब शोर मचाता। बड़ा जोर लगाना पड़ता था उसे खींचने के लिए। गद्दी भी फटी हुई थी बड़ी पुरानी-सी, जो लगातार हिलती रहती थी।

बुद्धू रिक्शा लेकर चौराहे पर आया, पर सुबह से एक सवारी ही उसे मिली थी। उसे कोई चार- पाँच मील दूर जाना था, पर इतनी देर में ही रिक्शा चलाते-चलाते बुद्धू परेशान हो गया। उसे इतना जोर लगाना पड़ रहा था, जैसे छाती की सारी नसें बाहर आ गई हों! अगर इसकी जगह नया रिक्शा होता या फिर यही रिक्शा थोड़ी अच्छी हालत में होता, तो …?

सोचकर बुद्धू दुखी हो उठा। इतने में एक बहुत मोटा आदमी उसे आता दिखाई दिया। पंद्रह रुपए में उसे बड़ी दूर घर पहुँचाना था। बुद्धू थका हुआ था, पर किसी तरह उसने हिम्मत से काम लिया। जोर लगाकर उसे पहुँचा तो दिया, पर अब हिम्मत जवाब दे गई थी। भूख भी लग आई थी।

उसने पोटली में बँधे चने निकाले और एक पेड़ के नीचे बैठकर खाने लगा। खाते-खाते धीरे से बुदबुदाया, “उफ, यह भी कोई जिंदगी है! मेरी जिंदगी भी बिल्कुल मेरे रिक्शे जैसी ही है, खींचते-खींचते जान निकली जा रही है।”

तभी उसे लगा, आसपास किसी के खिलखिलाने की आवाज आई है। बड़ी ही मीठी खिलखिलाहट, जैसे धीमे-धीमे घुँघरू बजे हों। उसने चौंककर इधर-उधर देखा। जिस आम के विशाल पेड़ के नीचे उसने रिक्शा खड़ा किया था, ऊपर निगाह उठाकर उसे अच्छी तरह वह देखने लगा। पर कहीं कोई नजर नहीं आया।

“तो क्या यह सपना था या हकीकत? मैंने खुद अपने कानों से जो सुना, वह झूठ क्यों होगा? पर फिर वह दिखाई क्यों नहीं दिया?”

वह सोच ही रहा था कि फिर वैसी ही खिलखिलाहट उसे सुनाई दी। अबके उसे लगा, उसका रिक्शा रिक्शा नहीं रहा, एक खूबसूरत परी में बदल गया है, जिसके शरीर से अजब सी भीनी-भीनी महक निकल रही है। सिर पर मणियों जड़े मुकुट से उजाला फूट रहा था।

वह कुछ कह पाता या समझ पाता, इससे पहले फिर एक चक्कर…! चक्कर पर चक्कर। उसने अचरज से भरकर देखा, अरे, रिक्शा तो फिर उसी तरह फटेहाल उसके आगे खड़ा है। तो फिर…?

“जरूर मेरा दिमाग चल गया है। गरीबी में भगवान पता नहीं कैसी-कैसी परीक्षाएँ लेता है!” बुद्धू ने दुखी होकर अपने आप से कहा।

तभी उसे प्यास लग आई। उसने देखा, पेड़ के नीचे एक बड़ा सुंदर सा मटका रखा हुआ था, जिसके चारों ओर पानी को ठंडा रखने के लिए टाट की बोरी लिपटी हुई थी। पास ही एक लोटा भी था। उसने दो लोटे पानी पिया तो भीतर कुछ ठंडक महसूस हुई। लगा, कुछ जान में जान आई।

बुद्धू फिर रिक्शे पर जा बैठा और सोचने लगा, ‘कम से कम दो-चार सवारियाँ और मिल जातीं, तो आज के दिन गुजारे लायक पैसे हो जाते। रात को दो रूखी-सूखी रोटियाँ बनाकर गुड़ के साथ खा लेता।’

थोड़ी देर में बुद्धू को सुनहरे बालों वाली एक सुंदर सी लड़की आती दिखाई दी। पास आकर उसने एक प्यारी सी मुसकान बिखे रते हुए कहा, “रामबाग चलोगे, बुद्धू भाई?”

“चलूँगा क्यों नहीं, मैडमजी? आइए बैठिए।” बुद्धू ने कहा और रिक्शा दौड़ा दिया।

अभी रिक्शा थोड़ी ही दूर चला कि बुद्धू हैरान हो गया। रिक्शा इतना हलका चल रहा था, जैसे उसे चलाने में कोई जोर ही नहीं लग रहा था। उसकी खड़-खड़ भी गायब थी। बुद्धू के रिक्शे की चेन ढीली थी और बार-बार निकल जाती थी। मगर जाने कैसे चेन अपने-आप कस गई। पैडल सख्त थे, जैसे एकदम जाम पड़े हों। पर अब तो वे ऐसे हलके चल रहे थे कि बुद्धू को रिक्शा चलाने में वाकई मजा आ रहा था। और रिक्शा ऐसे दौड़ रहा था, जैसे हवा से बात कर रहा हो। बुद्धू के होंठों पर खुद-ब-खुद यह गाना आ गया-

बुद्धू है मेरा नाम,

मेरा रिक्शा बड़ा कमाल,

हाँ जी, हाँ बड़ा कमाल…!

अचानक गाते-गाते बुद्धू की हँसी छूट गई। सोचने लगा, बड़े दिन बाद कोई गाना उसके होंठों पर आया है।

और बुद्धू हँसा तो उसे लगा, उसी तरह की हँसी उसे किसी लड़की की सुनाई दी है। उसने हैरानी से पीछे मुड़कर देखा, सचमुच वही लड़की हँस रही थी। हँसते-हँसते बोली, “आज तो बड़े खुश नजर आ रहे हो। कोई खास बात है क्या, बुद्धू भाई?”

“खास बात तो क्या मैडमजी, बस, एक ही है कि बुद्धू है मेरा नाम, मेरा रिक्शा बड़ा कमाल…!”

कहते-कहते बुद्धू फिर हँसने लगा। वह सुंदर लड़की भी हँसने लगी। रामबाग आया तो सुनहरे बालों वाली लड़की ने उतरकर चाँदी का एक नया-नकोर सिक्का दिया। चम चम करता हुआ। और कहा, “बुद्धू भाई, इसे खर्च मत करना, अपने बटुए में सँभालकर रख लेना। ठीक है ना…?”

और फिर वह तेजी से रामबाग के भीतर चली गई।

बुद्धू ने एक बार फिर जेब से सिक्का निकालकर देखा। ओहो जी, कैसा चमक रहा है, जैसे इससे दूर-दूर तक उजाला हो रहा हो! जरूर असली चाँदी का है।… उसकी आँखें जैसे झप झप करने लगीं।

उसने प्यार से उस सिक्के पर हाथ फिराया। बहुत हौले-हौले, और फिर सँभालकर जेब में रख लिया। उसे लग रहा था, जैसे उसके पास इस सिक्के से कीमती कुछ नहीं है।

थोड़ी देर बाद बुद्धू रिक्शा लेकर वापस लौट रहा था तो उसे हैरानी हुई। उसके रिक्शे में से कुछ-कुछ वैसा ही उजाला फूट रहा था और वैसी ही गंध आ रही थी, जैसी उस लड़की के शरीर से आ रही थी।

“ओ रे ओ बुद्धूराम, यह क्या?” उसने
खुद को टहोका मारा।

बुद्धू को सचमुच बड़ा अजीब लग रहा था। पर वह कुछ सोचता, इससे पहले ही उसका ध्यान उन दो सवारियों की ओर चला गया, जो उसकी ओर बढ़ रही थीं। दो भारी शरीर वाले नौजवान थे। एक से एक मोटे। दोनों को रेलवे स्टेशन जाना था।

बुद्धू सोच रहा था, ‘बाप रे, इन्हें ले जाने में तो दम निकल जाएगा।’

पर बुद्धू ने उन्हें रिक्शे पर बैठाकर रिक्शा चलाना शुरू किया तो उसे हैरानी हुई। रिक्शा इतना हलका चला, जिसकी उसने कल्पना ही न की थी। एक बार तो उसे ताज्जुब हुआ कि कहीं उसका रिक्शा बदल तो नहीं गया। कहीं अपना पुराना रिक्शा छोड़कर वह किसी का नया रिक्शा तो नहीं उठा लाया? पर नहीं, रिक्शा तो उसी का था। आगे वही पुरानी घंटी और आईना। एक लाल-गुलाबी फूलों का गुच्छा भी जो वह हमेशा हैंडल से बाँधे रखता था। हैंडल पर पीली राखी का धागा भी बँधा था, जो उसने खुद रक्षाबंधन वाले दिन बाँध दिया था।

देखने में तो रिक्शा वैसा ही पुराना लग रहा था, पर चल ऐसे रहा था, जैसे हवा में उड़ रहा हो।

‘क्या कमाल की बात है! सचमुच कमाल…!’ बुद्धू ने सोचा।

इस बार बुद्धू ने जल्दबाजी में दाम भी नहीं तय किए थे। सोच रहा था कि पता नहीं, ये मोटे-मोटे लोग कुछ देंगे या फिर ऐसे ही एक-दो छोटे-मोटे सिक्के फेंककर आगे निकल जाएँगे? कितने पैसे माँगने ठीक होंगे? वह अपने आप से पूछ रहा था। बीस रुपए…! हाँ, बीस से कम मैं नहीं लूंगा। बुद्धू मन ही मन सोच रहा था।

उसने तय कर लिया था कि अगर बीस से कम रुपए दिए तो चाहे जो कुछ हो, वह उनसे लड़ेगा। कहेगा कि बीस रुपए तो मुझे मिलने ही चाहिए। जरा महँगाई को देखो, क्या आफत ढा रही है। बिल्कुल हड्डी- हड्डी निकाल दी गरीब आदमी की!… और फिर आजकल बीस रुपए में मिलता ही क्या है? एक बखत की रोटी भी तो नहीं।

पर उसे हैरानी हुई, जब रिक्शे से उतरते ही एक मोटे ने दस के तीन नोट देकर कहा, “रख लो भई, रख लो। होते तो बीस रुपए ही हैं, पर तुमने सही समय पर पहुँचा दिया, वरना हमारी गाड़ी छूट जाती। हमें जरूरी काम से कलकत्ता जाना है।” सुनकर बुद्धू को बड़ा अच्छा लगा।

कुछ रोज बाद की बात है, बुद्धू रेलवे स्टेशन पर खड़ा सोच रहा था, “रात का टाइम है, कोई सवारी मिले तो चलूँ। अब घर जाकर आराम करूँगा। फिर सुबह ही निकालूँगा रिक्शा।”

बड़ी देर से कोई सवारी नहीं आई थी। बुद्धू खाली रिक्शा ही ले जाना चाहता था। पर अचानक उसे आवाज सुनाई दी, “सुनो भई रिक्शा वाले, सुनो!” उसने पीछे मुड़कर देखा, वही दो मोटे-मोटे लोग थे। उन्होंने बुद्धू को शहर पहुँचाने के लिए कहा। और जब बुद्धू ने उन्हें उनके घर छोड़ा, तो उनमें से एक ने सौ का नोट निकालकर बुद्धू की ओर बढ़ाया।

बुद्धू बोला, “इतना बड़ा नोट बाबूजी? मेरे पास खुले कहाँ हैं!”

इस पर उस मोटे आदमी ने हँसते हुए कहा, “रख लो भई, रख लो। तुमने उस दिन हमें समय पर पहुँचा दिया, इससे हमारा बहुत फायदा हुआ। तुम सौ का नोट रख लो, तो हमें बहुत अच्छा लगेगा।”

बुद्धू मना करता रहा, पर उन्होंने जबदरस्ती सौ का नोट उसके हाथ में थमा दिया।

*

कुछ रोज बाद बुद्धू इसी तरह खड़ा हुआ सवारी का इंतजार कर रहा था कि एक नौजवान आया। उसने बुद्धू से कहा, “भई, जरा मेरे घर गोपी कॉलोनी छोड़ दो।” बुद्धू को लगा, इस लड़के को वह पहले भी कभी ले गया था। बड़े ही अच्छे स्वभाव का है। बोलता कितने प्यार से है! पर उसे वह अपने रिक्शे पर कब ले गया था, उसे याद नहीं आ रहा था।

जैसे ही बुद्धू ने उस लड़के को गोपी कॉलोनी में उसके घर पर छोड़ा, उस लड़के ने मुसकराते हुए दस रुपए का नोट उसके हाथ में पकड़ाया और कहा, “तुमने जो मेरी मदद की है, उसके लिए तो तुम्हें कम से कम सौ रुपए का इनाम मिलना चाहिए था। पर मेरे पास यही दस का नोट बचा है। ले लो भाई! वैसे तुम्हारा रिक्शा सचमुच जादू वाला लगता है। इस पर बैठकर कल ही तो मैं इंटरव्यू के लिए गया था। वहाँ सैकड़ों लोग आए थे, पर मुझी को चुन लिया गया।… हालाँकि जब मैं इंटरव्यू के लिए जा रहा था तो थोड़ा डरा हुआ था। पर पता नहीं क्यों, तुम्हारे रिक्शे पर बैठते ही मुझे लगा कि मैं ही चुना जाऊँगा। और सचमुच हुआ भी ऐसा ही। सच्ची भाई, कुछ न कुछ बात है जरूर तुम्हारे रिक्शे में!”

“मेरे रिक्शे में…? मेरे रिक्शे में भला ऐसी क्या बात हो सकती है?” बुद्धू मन ही मन हँसा, “पूरा फटीचर तो है। एक नंबर का खड़खड़देव! जब चलता है तो इसका अंग-अंग हिलता है। बस, मुझे तो एक यही खास बात लगी इस पुराने-धुराने रिक्शे में!”

वह कुछ कहता, इस से पहले ही लड़का उतरकर जा चुका था। उसकी चाल में आज कुछ अलग बात थी। बुद्धू ने देखा, देखता ही रहा।

‘आदमी की चाल से भी बंदे का पता चल जाता है!’ उसने सोचा, ‘एक घमंडी और घामड़ आदमी की चाल होती है, एकदम अकड़ी हुई, और एक सीधे-सादे आदमी की। बिल्कुल बेमालूम सी। एक खुशी की चाल होती है और एक दुख से टूटे हुए आदमी की चाल। और… और एक ऐसे बंदे की चाल, जिसके अंदर भलाई का माद्दा होता है। थोड़ी खुशबू, थोड़ी रोशनी। वह अगले को थोड़ी सी खुशी देकर चला जाता है, जैसे… जैसे यह लड़का…! और जैसे, वह जो परी थी और एक चमकता हुआ सिक्का देकर गई थी। शायद वह खुशी का सिक्का था। उस दिन के बाद से ही तो बुद्धूराम, पता नहीं, क्या-क्या होता जा रहा है …!’

उस लड़के के जाने पर बुद्धू अकेले रिक्शा खींचते हुए बस अड्डे की ओर जा रहा था, तो उसके भीतर जाने कैसी-कैसी बातें उमड़ रही थीं। मन में एक मीठी लहर सी थी।

अचानक उसी आम के पेड़ के नीचे उसने रिक्शा रोक दिया। और सोचने लगा, ‘कुछ न कुछ जरूर खास बात है। जिस दिन मैंने वह अनोखा सपना देखा था और हरे कपड़े पहने वह लड़की मेरे रिक्शे पर बैठकर रामबाग गई थी, उसी दिन से कुछ न कुछ हुआ जरूर है। कहीं वह परी तो नहीं थी? या फिर कहीं मेरा रिक्शा ही तो परी नहीं बन गया? कुछ न कुछ चक्कर तो जरूर है इस रिक्शे में। तभी तो मेरे सारे काम बनते जा रहे हैं। लेकिन मेरा रिक्शा तो किराए का है, अगर इसे मालिक ने वापस ले लिया तो?

उसी शाम को वह रिक्शे को दौड़ाता हुआ मालिक के घर पहुँचा। बोला, “मालिक, इस रिक्शे को मैंने ठीक कराया है। अब तो यह ठीक चलता है। पहले जैसी खड़-खड़ नहीं करता। अगर आप इसे मुझी को दे दें तो आपकी बहुत मेहरबानी होगी। मैं कुछ पैसे लाया हूँ।” कहकर उसने रुपयों से भरी एक पोटली मालिक के आगे रख दी।

मालिक ने गिनकर देखै तो छोटे-बड़े नोट और सिक्के मिलाकर कुल आठ सौ रुपए थे।

बुद्धू डरते-डरते मालिक के चेहरे की ओर देख रहा था। उसने पूछा, “मालिक, क्या कुछ और रुपए देने होंगे?”

पर रिक्शे का मालिक उस खड़खड़िया रिक्शे के आठ सौ रुपए पाकर भी खुश था। उसे तो पाँच-छह सौ रुपए की भी उम्मीद नहीं थी। उसने कहा, “नहीं-नहीं बुद्धू, ये काफी हैं। अब तुम मजे में रिक्शा चलाओ। यह रिक्शा आज से तुम्हारा हुआ।”

*

और बुद्धू के जीवन में तो उस दिन के बाद से सचमुच बड़ी रौनक आ गई। अपने रिक्शे पर बैठा कहीं जा रहा था तो वह खुद को किसी बादशाह से कम न समझता। सोचता, ‘फकीर हूँ, पर मेरी मस्ती भी क्या किसी बादशाह से कम है!’ और जब-तब मस्ती में भरकर गा उठता, ‘अजी हाँ, बुद्धू है मेरा नाम, हाँ-हाँ… बुद्धू है मेरा नाम…!’

सुनकर सवारी भी खुश हो जाती। कहती, “वाह वाह बुद्धू , क्या सुरीला गला पाया है! और बुद्धू नाम तुम पर कैसा फबता है, जैसे यह पुराना रिक्शा रथ बन गया हो। वैसे भी तुम इसे रिक्शा नहीं, किसी राजा के रथ की तरह दौड़ाते हो।”

सुनकर बुद्धू और भी मस्ती में आ जाता और उसका रिक्शा हवा से बातें करता हुआ, बात की बात में सवारी को ठिकाने पर पहुँचा देता।

पर इस बीच ऐसे बहुतेरे लोग बुद्धू को मिले, जो उसके रिक्शे पर बैठकर गए थे और उनके काम सफल हो गए। बुद्धू को एक के बाद एक ढेर सारे इनाम मिलने लगे। बुद्धू सोचने लगा, ‘वाह, मेरी किस्मत तो कैसी चमक उठी!’ इसके बाद उसने अपने निराले गीत में दो लाइनें और जोड़ीं और अजब अंदाज में उन्हें जब-तब गा उठता-

बुद्धू है मेरा नाम,

मेरा रिक्शा कमाल!

जो बैठे मेरे रिक्शे पर

उसे कर दे मालामाल!

धीरे-धीरे बुद्धू के रिक्शे की चर्चा पूरे शहर में इतनी तेजी से फैली कि लोग बुद्धू के रिक्शे में सवारी करने के लिए लालायित रहते। एक-दो सवारी तो ऐसी थीं, जिन्हें बुद्धू के रिक्शे के अलावा किसी और रिक्शे पर बैठना सुहाता ही नहीं था। अगर बुद्धू सवारी ले जा रहा होता तो उससे कहते, “बुद्धू भाई, तुम सवारी छोड़ आओ, हम इंतजार कर लेंगे। मगर जाएँगे तुम्हारे ही रिक्शे में। और भई, देर चाहे जितनी हो जाए, पर तुम टाइम से पहुँचा दोगे, हमें पता है, क्योंकि तुम्हारा रिक्शा तो एकदम हवा से बातें करता है। हमें पता है।”

अब बुद्धू के पास किसी चीज की कमी न थी। जहाँ झोंपड़ी थी, वहाँ उसने पक्का मकान बना लिया था और जरूरत की सारी चीजें इकट्ठी कर ली थीं।

कुछ दिन बाद उसकी शादी हुई। एक सुंदर सी साँवली लड़की से। नैना उसका नाम था। बड़ी-बड़ी आँखों वाली वह नैना बुद्धू के रिक्शे में बैठकर ही आती-जाती थी। माता-पिता थे नहीं। मामा-मामी के पास रह रही थी। कभी-कभी बुद्धू से बातें कर लेती। उसे बुद्धू इतना अच्छा लगा कि उसने सोचा, ‘बुद्धू रिक्शा चलाता है तो क्या? आदमी तो एकदम हीरा है! इसके साथ मैं खुश रहूँगी।’

बुद्धू का जीवन अब हँसी-खुशी चल रहा था। उसके पास पैसों की कमी न थी। कई लोग सुझाव देते, “पुराना रिक्शा बेचो भाई, अब नया ले लो। क्यों इसी से चिपके बैठे हो?” बुद्धू सुनता और मुसकरा देता।

कुछ लोग कहते, “थोड़ा और पैसा जोड़कर ऑटो रिक्शा ले लो। इस शहर में ऑटो रिक्शा वाले खूब पैसा कमा रहे हैं। तुम क्यों पीछे रहो, भाई?”

इस पर बुद्धू हाथ जोड़ देता। कहता, “मेरा रिक्शा अब रिक्शा नहीं, एक सुंदर परी का उपहार है। इसे भला कोई कैसे समझेगा?”

लोग पूछते, “परी! कौन सी परी, बुद्धू भाई?”

इस पर बुद्धू टुकड़ों-टुकड़ों में पूरी कहानी सुनाता कि कैसे उस दिन वह आम के उस सुंदर छतनार पेड़ के नीचे बैठा-बैठा कुछ सोच रहा था। तभी अचानक उसका रिक्शा एक सुंदर परी में बदल गया, जिसके सिर पर मणियों भरा मुकुट था। फिर कुछ देर बाद एक सुंदर-सी लड़की उसके रिक्शे पर आकर बैठी, जिसके शरीर से उजाला निकल रहा था और अनोखी महक आ रही थी। वह इस रिक्शे पर बैठकर रामबाग के हरे जंगल की ओर गई थी।

“तब से जाने क्यों मेरा रिक्शा भाग्यशाली रिक्शा हो गया। अब जो भी इस पर बैठता है, उसका सोया हुआ भाग्य जाग जाता है और सारे काम सँवरने लगते हैं।” बुद्धू मुसकराकर कहता।

यह बात इतने लोगों तक पहुँच गई कि बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों के दिल भी हिल गए। इनमें से कुछ ने तो खुद आकर बुद्धू के आगे प्रस्ताव रखा, “अरे बुद्धू भाई, तुम तो अब रिक्शा चलाने में माहिर हो। जो भी रिक्शा चलाओगे, वह हवा में दौड़ने लगेगा। तो ऐसा क्यों नहीं करते कि यह पुराना रिक्शा हमीं को दे दो? बदले में हमसे मनमाने दाम ले लो।”

और एक सेठ ने तो यह कहा कि “अब तुम्हें मेहनत करने की क्या जरूरत? पूरी जिंदगी यह रिक्शा चलाते हुए बीत गई। अब बाकी जीवन आराम से गुजारो। मैं पाँच लाख रुपए तुम्हारे खाते में जमा कर देता हूँ। उससे बड़े आराम से तुम्हारी जिंदगी चलती रहेगी। चक्कर छोड़ो और रिक्शा हमें दे दो।”

सुनकर बुद्धू दाँतों से जीभ काट लेता। कहता, “आराम….! सेठजी आराम भला किसलिए? मुझे तो पता ही नहीं कि यह आराम किस चिड़िया का नाम है। मुझे तो बस मेरे काम में ही आराम मिलता है। और रिक्शा…? इसकी आप कीमत न लगाओ, क्योंकि इसे तो मैं जान से बढ़कर प्यार करता हूँ। इसे बेचने और आराम करने की सोचूँ तो वह परी जो मुझे उपहार दे गई थी, नाराज हो जाएगी। भला बताइए तो सेठजी, मैं ऐसा काम क्यों करूँ?”

कहकर बुद्धू अपने रिक्शे पर पैडल मारता हुआ आगे चल देता। काँइयाँ सेठ हाथ मलता रह जाता और उधर बुद्धू का मस्ती भरा गीत शुरू हो जाता-

बुद्धू है मेरा नाम

मेरा रिक्शा कमाल,

जो बैठे इस रिक्शे पर

जो जाए मालामाल!

शुरू में लोग बुद्धू का यह गीत सुनकर हँसते थे, पर आजकल हालत यह है कि लोग यह गीत सुनते हैं तो धीमे से मुसकराकर कहते हैं, ‘सचमुच, बुद्धू जैसा कोई नहीं!’

ये कहानी ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं 21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)