भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
शताब्दी एक्सप्रेस ठीक समय से चल पड़ी थी। आज का समय होता तो मोबाइल फोन से सबसे पहले माँ को बताता और फिर मक्खन को। शताब्दी के कानपुर पहुंचने का समय 11:10 है, लेकिन प्रायः यह समय से पहले पहुँच जाती है-ऐसा पिछले अनुभव बताते हैं। चलो अच्छा है, मक्खन से मुलाकात कुछ और जल्दी हो जाएगी। साल भर से अधिक का समय हो गया है मक्खन से मिले। चिट्ठी मिल गई होगी तो वह स्वयं ही स्टेशन आ जाएगा। रात फोन पर बात करने का कितना प्रयास किया, लेकिन फोन ही नहीं मिल पाया। हर बार एक ही तरह का स्वर सुनाई देता रहा- “कृपया डायल किया गया नम्बर जाँच लें।”
मक्खन यानी मक्खनलाल यानी एम. लाल और मैं दोनों आस-पास के ही गाँव के हैं। लेकिन मक्खन जिस गाँव का रहने वाला है वह कथा-कहानियों और फिल्मों में दिखाए जाने वाले सीधे-सादे भारतीय गाँवों से सर्वथा भिन्न है। मक्खन के गाँव के ज्यादातर लोग अपने आप में नमूने हैं। क्या राहजनी, क्या चोरी, क्या उठाईगिरी और क्या चार सौ बीसी तो क्या झूठ-फरेब और लम्पटता तथा नंगई! सभी कुछ उपलब्ध है मक्खन के गाँव में। आज ही नहीं, सैकड़ों वर्षों से यह गाँव इसी तरह का है। 30-35 वर्षों से तो हमीं लोग देख रहे हैं इसे । मन में गहरी कालिमा लिये हुए भी शराफत का पुतला किस तरह दिखा जा सकता है, यह किसी को सीखना हो तो जाए मक्खन के गाँव । सरासर सफेद झूठ बोलते हुए भी उसे सच बताने के लिए इकलौती औलाद से लेकर भगवान तक की कसमें खाना कितना सहज है, यह मक्खन के गाँव गए बिना नहीं जाना जा सकता ! आपस में एक-दूसरे की जड़ काटते रहने की गँवई राजनीति की जो पैंतरेबाजी यहाँ देखने को मिलती है, उससे बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों को भी अचम्भा हो जाए। लेकिन उसी गाँव में मक्खन जैसे आदमी का होना भी कम अचम्भे की बात न थी!
जिस गाँव में लोगों की शिक्षा का उच्चतम स्तर हाईस्कूल रहा हो, वहीं मक्खन का इण्टरमीडिएट तक शिक्षा पूरी कर लेना वह भी प्रथम श्रेणी में और उसके बाद शहर जाकर बी.ए., एम.ए. की डिग्री पा लेना अजूबा नहीं तो और क्या है? मक्खन के गाँव से कभी आपका निकलना हो तो तमाम घरों पर नेम प्लेटें दिखाई दे जाएँगी-जी. प्रसाद, के. राम, एन. सिंह, जे. दास आदि-आदि। चौंकिए नहीं, ये नाम गाँववालों की कुलीनता के द्योतक नहीं, हीन भावना को छिपाने के तरीके भर हैं। जी. प्रसाद यानी घुरहू प्रसाद, के. राम यानी कालू राम, एन. सिंह यानी नन्हकू सिंह और जे. दास यानी झूलन दास! शुरू में मक्खनलाल भी एम. लाल हुआ करता था, लेकिन जब वह अपनी हीन भावना से उबरा तो पूरा नाम लिखने लगा था।
मेरे पिताजी दिल्ली में रहते थे, अतः जूनियर हाईस्कूल की पढ़ाई के बाद मैं दिल्ली चला गया था। मक्खन ने तहसील के इण्टर कॉलेज में दाखिला ले लिया था। इंटर की परीक्षा के बाद गर्मी की छुट्टियों में गाँव गया तो पता चला कि मक्खन की शादी तय हो चुकी है और मेरे गाँव में रहते ही उसकी शादी हो भी गई। दरअसल, इतनी जल्दी मक्खन की शादी के पीछे भी गाँव की ‘संस्कति’ का ही दबाव था।
मक्खन का गाँव इस मामले में भी विचित्र था कि वहाँ के लोग अपने लड़कों की शादी के मोहताज रहा करते थे। बाहर से रंग-रोगन लगे और ‘टिप-टाप’ दिख रहे गाँव में जब एक के घर कोई लड़कीवाला शादी के लिए आता तो विरोधी खेमे वाले उसे भड़काने के लिए हर सूरत कोशिश करते। अपने विपक्षी के लड़के के बारे में सही-गलत जोड़कर उसे बदचलन और आवारा बताना ऐसी कोशिश का प्रमुख अंग होता था। उससे भी काम न चलता तो खानदान के ऐसे बीसियों ऐब गिना दिए जाते जैसे पिछली सात पुश्तें उनके ही आगे जन्मी हों। इस कचक्र में वे उनके नाते-रिश्तेदारों तक को भी नहीं बख्शते थे। इसी बीच वाकपटु गाँववाले अपने पक्ष के लड़कों का बखान करना भी नहीं भूलते थे। इन सबका परिणाम यह होता था कि लड़कीवाले भाग खड़े होते थे। सम्भावित विवाह में अड़चन पैदा करने के ही मुद्दे पर गाँव में हुई कई-कई फौजदारियों के मुकदमें आज भी कोर्ट में चल रहे हैं। जाहिर है ऐसे गाँव में बेटे की शादी किसी भी माँ बाप के लिए चुनौती बनी रहती थी और मक्खन की शादी भी ऐसे ही किसी दवाब में बहुत जल्दी हो गई थी।
यह तो गनीमत हुई कि शादी के समय ही मक्खन की बीवी उसके घर नहीं आ गई, अन्यथा उसकी ज़िन्दगी में जो घमासान तीन साल बाद शुरू हुआ, वह शादी के दिन से ही शुरू हो गया होता।
हुआ यह कि तीसरे साल जब मक्खन का गौना आया तब वह एम. ए. के पहले साल में था। मक्खन कोई बहुत खूबसूरत किस्म का तो लड़का नहीं था, लेकिन ऐसा भी नहीं था कि उसे बदसूरत कहा जा सके। लेकिन जब उसकी बीवी आई तो पता चला कि वह पक्के रंग की कुछ-कुछ मोटी-सी है और उम्र भी मक्खन से ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं थी। उसके सिर्फ दो-तीन दरजा तक पढ़े होने की बात का पता तो शादी के समय ही चल चुका था। लड़की का नाम लाली था लेकिन शारीरिक सुन्दरता की बहुत क्षीण लालिमा ही उसके अन्दर दिखाई देती थी। अतः “मुँह दिखाई” के समय ही मक्खन की माँ बिफर पड़ी-“हाय रे, खराब कर दई मेरो फूल जैसो बालक की जिन्दगी!.. किस जन्म को बदलो चुकायो रे रमनथवा?”…फिर तो क्या गाने का उत्साह और क्या खुशी-सब ठप हो गया, जैसे किसी ने टेप रिकॉर्डर का स्विच अचानक बन्द कर दिया हो !
लाली के साथ आई सगुन की मिठाई, जिसमें से मक्खन की माँ ने थोड़ा-सा गाँव वालों को बाँटने के लिए एक थाली में निकाला था, लाली की आँखों के सामने ही कुत्तों को डाल दी गई।
सारा माजरा सुनकर मक्खन भी सकते में आ गया! उसकी कल्पना में खूबसूरती की जो सीमाएँ थीं, लाली उसमें कहीं फिट नहीं बैठ पा रही थी। लेकिन अब क्या हो सकता था ? यह तो शादी से पहले देखी जाने वाली बातें थीं।
सुहागरात जैसी कोई उत्सुकता मक्खन में नहीं रह गई थी, लेकिन मन के किसी कोने में एक बात ज़रूर थी कि यदि औरत विधाता की सबसे खूबसूरत सृष्टि है तो लाली में भी कुछ-न-कुछ खूबसूरती होनी ही चाहिए । वह प्रतीक्षा में था, कि कोई उसे किसी बहाने से बुलाकर बहू के कमरे में ढकेलकर बाहर से कुण्डी चढ़ा देगा। लेकिन पूरी रात वह प्रतीक्षा ही करता रह गया कोई भी उसे बुलाने नहीं आया। मक्खन मन मसोसकर रह गया, बल्कि उसके अन्दर एक अपराध बोध-सा भी भर गया कि दूसरे घर से आई लड़की उसके बारे में क्या-क्या सोच रही होगी?
अगले दिन गाँव की एक भाभी से पता चला कि मक्खन की माँ ने ही मक्खन को नहीं आने दिया था। यही नहीं उसने बहू को कोसते हुए कहा भी था- “ऐसी कुलच्छनी की घर में कोई ज़रूरत नॉय है, वह कल जाना चाय रही होय तो आजइ चली जाय बाप के घर!”
ताज़ा ज़ख्म है तो आज ज्यादा टीस है। कल से धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा, यही सोचकर मक्खन चुप रहा।
लेकिन एक-एक कर तीन दिन बीत गए और मक्खन की मुलाकात लाली से नहीं हो सकी। धीरे-धीरे रिश्तेदार भी चले गए। आखिर में चौथे दिन मक्खन ने स्वयं लाली से मिलने का निश्चय किया और खाना खा लेने के बाद चुपचाप लाली के कमरे की ओर चल पड़ा।
चौकस पहरेदारी में लगी मक्खन की माँ झपटते हुए उसके सामने खडी होती हई बोली- “लल्ला, उस भतनी के पास जाने की कोई जरूरत नाय! शादी है गई सो है गई। एक गलती के बाद दूसरी गलती ना करो। जे चाहे तो बाप को बुलाकर अपने घर चली जाये। मैं तुम्हारी दूसरी शादी कराय दूंगी!”
“लेकिन अम्मा, शादी में लाली का क्या कसूर है? यही न कि वह खूबसूरत नहीं है-बदसूरत है? तो इससे तुम्हें क्या! लाली के साथ ब्याह मेरा हुआ है, मैं अपने साथ रखूगा उसे।” मक्खन को अपनी तरफ से सख्ती ज़रूरी लगी।
“लेकिन जगहँसाई तो हमारी है रही है लल्ला!.. जिसे देखो वई ताने मार रिया है कि इकलौती बहू वह भी भूतनी जैसी!’ मक्खन की माँ ने लड़का हाथ से जाते देख कहा।
“तो इसमें लाली की क्या गलती है? क्या लाली जान-बूझकर बदसूरत पैदा हो गई है?… पूछना है तो जाकर भगवान से पूछो कि वह किसी को खूबसूरत और किसी को बदसूरत क्यों बना देता है?”
मक्खन की माँ अपने बेटे के मुँह से पहली बार ऐसी ढिठाई भरी बातें सन रही थी। वह खीझती ही खडी रह गई और मक्खन ने लाली के कमरे में अन्दर से कुण्डी चढ़ा दी।
मक्खन को अपने कमरे में अकेला पाकर लाली उसके पैरों पर भहरा पड़ी।
मक्खन ने लाली को उठाकर अपने गले लगा लिया तो देर से रुकी लाली की आँखों से आँसुओं का सैलाब फूट पड़ा।
मक्खन ने लाली को समझा-बुझाकर शान्त किया तो वह बोली“आपने मेरे लिए अम्मा से इस तरह झगड़ा क्यों कर लिया?… मैं तो जन्म से ही अभागिन हूँ, नहीं तो जन्म के साथ ही माँ थोड़ी मर जाती?..आपने मुझे समझने की कोशिश की, यही क्या कम है!.. मैं तो स्वयं आपके जोग नहीं हूँ!” लाली फिर सुबकने लगी थी।
“नहीं लाली ऐसा नहीं कहते। ठीक है शरीर की सुंदरता भी कोई चीज होती है लेकिन मन की सुंदरता के बिना वह भी बेकार हो जाती है। मैं जानता हूँ, तुम्हारा मन सुंदर है। धीरे-धीरे मन की सुंदरता ही तन की सुंदरता बन जाएगी।”
….तो कुछ इस तरह शुरुआत हुई थी मेरे दोस्त के दाम्पत्य जीवन की जिसके बारे में उसने गौने के बाद मुझसे हुई मुलाकात में विस्तार से बताया था।
फिर प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने का सिलसिला प्रारम्भ हुआ था । अन्ततः संयोगवश हम दोनों को एक ही नौकरी मिली। आस-पास के इलाकों में राजपत्रित अधिकारी बनने वाले हम दोनों ‘पहले थे। फिर तो ट्रेनिंग भी हम दोनों की साथ-साथ ही हई। ट्रेनिंग के बाद मझे दिल्ली में पोस्टिंग मिली और मक्खन को कानपुर भेजा गया।
उसके बाद दो-ढाई साल का वक्त कब बीत गया, इसका पता ही नहीं चला। इस बीच मेरी भी शादी हो गई। एक बच्चा भी हो गया। शादी में मक्खन से बातचीत का अवसर ही नहीं मिल पाया था-व्यस्तता के कारण T| उसके याद मुलाकात का यह अवसर मिल पाया है। फोन पर तो बीच में बातें होती रही थीं लेकिन बस औपचारिक किस्म की।… कानपुर में औद्योगिक प्रदूषण के अध्ययन का एक प्रोजेक्ट मुझे मिला है। अध्ययन की प्रारम्भिक रूपरेखा प्रस्तुत करने के लिए सात दिन का समय मुझे दिया गया है, जिसके लिए इस यात्रा का अचानक कार्यक्रम बना।
ट्रेन अब तक लगभग पाँच घंटे का सफर तय कर चकी है। सामने काफी दूरी पर एक ऊँची चिमनी धुआँ उगलती हुई दिखाई देती है। ध्यान आया कि पनकी पावर हाउस है। कुछ देर बाद ही ट्रेन में मधुर ध्वनि गूंजती है- “अबसे कुछ ही देर बाद शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन उ.प्र. की औद्योगिक नगरी कानपुर पहुंचने वाली है। गंगा के पावन तट पर बसी यह नगरी अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी की कर्मभमि रही है। यहाँ से कछ दरी पर स्थित बिठूर…’ उद्घोषणा पूरी हुई नहीं कि लोग-बाग अपना सामान ठीक करने में लग गए। इस ट्रेन में ज्यादातर यात्री कानपुर के ही होते हैं। मैं भी अपना सामान सहेजने लगा।
ट्रेन की गति अब मन्द पड़ने लगी थी।
प्लेटफार्म पर मैंने ही मक्खन को देखा था। यानी मेरी चिट्ठी मक्खन को मिल गई थी।
मक्खन अपनी सरकारी गाड़ी ले आया था-अर्दली भी साथ था। अर्दली ने लपककर मेरा सामान ले लिया। मुझसे हाथ मिलाते-मिलाते मक्खन ने कुछ इस तरह से गले लगाकर मुझे बाँहों में कस लिया कि कुछ क्षण के लिए मैं कसमसाकर रह गया। दोहरी काठी के मक्खन की इस ‘परपीड़ा’ में उसकी आत्मीयता रची-बसी थी!
“पी. के. मैं यह नहीं पूछंगा कि तुम्हारी यात्रा कैसी रही!” गाड़ी की सीट पर बैठते हए उसने एक खास अन्दाज में यह बात कही।
“लगता है गाँव का असर अभी बाकी है। पी.के. नहीं प्रवीण कुमार कहो।” हम दोनों का समवेत ठहाका एक साथ गूंजा।
भाई मक्खन, तुम मेरे लँगोटिया यार जो ठहरे। तुम्हें भला अपने दोस्त के सुख-दुःख से क्या मतलब?” मैंने दुबारा चुटकी ली थी।
“अच्छा तो ये अन्दाज हैं जनाब के किस शायर का असर हो रहा है?” मक्खन हल्के मूड में लग रहा था।
“मैं और शायरी। क्या कमाल करते हो मक्खन।” हम दोनों का ठहाका फिर साथ-साथ गूंजा था।
मक्खन के घर पहुंचा तो मेरा स्वागत उसके घर के कुछेक कर्मचारियों ने किया। जाहिर है इस स्वागत में अपनापन कम औपचारिकता ज्यादा थी। ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी कैम्प ऑफिस में आ गया होहूं।
घर में खाना बनाने वाले एक महराज थे और अन्य घरेलू काम-काज के लिए एक नौकर। एक चपरासी को अपने कार्यालय से भी मक्खन ने बुलवा लिया था। मेरे खाने और चाय आदि की विधिवत हिदायत देकर, मेरे साथ चाय पीन
े के बाद मक्खन ऑफिस चला गया और जाते-जाते बोल गया था कि शाम का खाना वह साथ ही खाएगा।
यात्रा की थकान यूँ तो कुछ खास नहीं थी, लेकिन सुबह जल्दी ट्रेन पकड़ने की चिन्ता में रात तीन बजे ही आँख खुल गई थी। ऐसे में शरीर पर खुमारी का-सा असर था। अतः खाना खाकर मैं आराम करते-करते सो गया।
जब तक मेरी नींद टूटी, मक्खन ऑफिस से वापस आ गया था।
“अरे, तुमने तो देर से आने की बात की थी, इतनी जल्दी कैसे?” मैंने पूछा था।
“हाँ, एक मीटिंग थी। बॉस के न आने से मीटिंग कैन्सिल हो गई।” मक्खन ने बात स्पष्ट की थी और साथ ही महराज को आवाज़ देते हुए बोला था- “महराज, तुम फटाफट चाय-नाश्ता लाओ। हम लोग घूमने जाएँगे।”
“कौन-सी जगह घुमाओगे मुझे?”
“प्रवीण तम पहली बार इत्मीनान से कानपर आए हो। शरुआत जे.के. मन्दिर से ही करेंगे। फिर मोतीझील की हवाखोरी करेंगे और बाद में माल रोड घूमते हुए वापस आ जाएँगे।” मक्खन ने जैसे पहले से ही सोच रखा हो।
ड्राइवर गाड़ी साफ करने में लगा था।
जब तक मैं फ्रेश होकर बाथरूम से बाहर आया, चाय तैयार हो चुकी थी।
चाय पीकर हम दोनों गाड़ी में बैठ गए।
जे. के. मन्दिर के दर्शन के बाद मुख्य द्वार के बाहर संगमरमर से बने दूधिया फर्श पर हम दोनों न चाहते हुए भी बैठ गए थे। फर्श की शीतलता अपूर्व सुख की अनुभूति दे रही थी।
“मक्खन, यहाँ आने के बाद से एक बात मैं बड़ी देर से सोच रहा हूँ लेकिन तुम अपनी तरफ से कोई पहल ही नहीं कर रहे हो!”
“ऐसी भी क्या बात है?”
“भाभी के क्या हाल-चाल हैं? कहीं विवेक की तरह तुमने भी तो नहीं?” मैं कहते-कहते संकोच में पड़ गया।
“क्या किया विवेक ने?” मक्खन का चेहरा आशंकाग्रस्त हो आया था।
“तो तुम्हें पता ही नहीं? किस दुनिया में रहते हो यार?”
“मक्खन, हम लोग भगवान् के घर में हैं। फिर तुमसे झूठ और छिपाव क्या?”
“अफसर बनने के बाद विवेक ने अपनी बीवी बदल दी है!”
“क्या मतलब?”
“मतलब यह है कि उसने एक और बीवी ‘रख ली है। पहली बीवी अब गाँव में रहती है, शहर के लिए उसने एक दूसरी लड़की को बीवी की तरह रख लिया है और तो और, सालों से गाँव भी नहीं गया है। माँ-बाप बहुत दुखी और चिन्तित रहते हैं।”
“लेकिन उसकी पहली बीवी बुरी तो नहीं थी?”
“विवेक कहता है कि वह बैकवर्ड लगती है! उसकी सोसायटी में फिट नहीं बैठती, नयी वाली बीवी क्रिश्चियन है- जीन्स-टॉप वाली।”
“अरे हाँ मक्खन, तुम भाभी वाली बात तो टाल ही गए। कहाँ हैं भाभी? ठीक तो हैं न? जे. के. मन्दिर घुमाया या नहीं?”
“नहीं प्रवीण, लाली घर पर ही रहती है। एक बच्चा भी है। सोचता हूँ कुछ और बड़ा हो जाए तो अपने पास लाऊँ और किसी स्कूल में डाल दूं।”
“और भाभी?”
“लाली तो गाँव में ही रहेगी। माँ भी तो हैं न। जब तक माँ है, उन्हें अकेले तो नहीं छोड़ा जा सकता न।”
“लेकिन माँ तो भाभी को बहुत प्रताड़ित करती होंगी?”
“तो क्या हुआ? जो माँ को करना है वह माँ कर रही हैं, जो लाली को करना चाहिए वह लाली कर रही है। माँ हम लोगों के लिए अच्छा करें तभी हम लोग उनके लिए कुछ करें यह तो कोई बात नहीं हुई। अपने कर्तव्य के निर्वाह में कैसी शर्त और कैसा संकोच?”
“तो क्या माँ ने भाभी को स्वीकार कर लिया?”
“बिलकुल नहीं! वह अब भी लाली से उतनी ही नफरत करती हैं। यही नहीं नौकरी मिलने के बाद एक बार फिर माँ ने कोशिश की थी कि में लाली को छोड़ दूँ। लेकिन मेरी तरफ से हरी झण्डी न पाकर चुप रह गईं।”
“विश्वास नहीं होता मक्खन कि एक औरत किसी दूसरी औरत के खिलाफ इस हद तक भी जा सकती है!’
“मेरा दुर्भाग्य ही है प्रवीण और कुछ नहीं |… तुम्हीं बताओ, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं लाली की ही किस्मत से नौकरी पाने में सफल हआ हं? मुझे माँ के ऊपर तरस आता है कि जो बहू उनकी तमाम सारी गाली-गलौज के बाद भी पूरे मन से उनकी सेवा में लगी रहती है, उससे अच्छी बहू कौन हो सकती है? यह जरा-सी बात भी उनकी समझ में नहीं आती… मक्खन थोड़ा भावुक हो आया था। गले में जैसे कुछ आकर फँसने-सा लगा था।
कुछ क्षण की चुप्पी के बाद वह फिर बोला- “सच कहूँ प्रवीण भाई, तो लाली की जिस्मानी सुन्दरता को लेकर मेरे मन में भी एक कुण्ठा हो जाया करती है। लाली मेरी इस कुण्ठा को समझती भी है। शायद इसीलिए मेरे एक-दो बार कहने पर भी वह मेरे साथ शहर आने के लिए राजी नहीं हुई।… बस चिट्ठी-पत्री आती रहती है। दो-चार महीने में मैं भी गाँव हो आता हूँ।…”
मक्खन को लगा कि जैसे बहुत देर हो गई हो। झटके से अपनी बात पूरी करते हुए वह उठ खड़ा हुआ। मैं भी खड़ा हो गया। अँधेरा बढ़ जाने के कारण चारों कोनों से पड़ने वाली सोडियम लैम्प की लाइट में मन्दिर की आभा स्वर्णिम हो आई थी।
घर वापसी तक रात के नौ बज चुके थे। मक्खन तो फ्रेश होने चला गया और मैं उसके ड्राइंगरूम का जायजा लेने लगा। अचानक एक रैक से इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का एक वॉल्यूम निकालते हुए कई लिफाफे गिरकर फर्श पर बिखर गए। उत्सुकतावश मैंने उन्हें उठा लिया। सभी लिफाफों पर अंग्रेजी में एक ही जैसी लिखावट थी तथा सभी डाक से आए हुए थे। थोड़ा ध्यान से देखा तो सभी लिफाफों पर भेजने वाले का नाम अंग्रेजी में ही ‘लाली’ लिखा था।
“हैं, भाभी ने अंग्रेजी भी सीख ली?… और मक्खन ने बताया तक नहीं? बड़ा छुपा रुस्तम है!” मेरे मन के कोने में हलचल-सी हुई।
“तभी मेरा ध्यान गया कि लिफाफे तो अभी खोले ही नहीं गए हैं! मैं अचानक किसी उलझन में फँस गया। खैर, पूछंगा बच्चू से!”
मैं यह सोच ही रहा था कि मक्खन वापस आ गया। मैंने नाराज़गी भरे स्वर में उससे शिकायत की- “मिस्टर मक्खन लाल जी, भाभी की इतनी सारी चिट्ठियाँ आईं और तुमने उन्हें खोलकर पढ़ने तक की ज़रूरत नहीं समझी? एक तरफ तो भाभी के हमदर्द बनते हो और दूसरी तरफ ऐसी निष्ठुरता! इसे मैं तुम्हारी कुण्ठा समझू या हिकारत? भई माजरा क्या है?”
“चलो तुम्हीं खोलकर देख लो। माजरा समझ में आ जाएगा। मक्खन गम्भीर हो आया था।
“तो ये बात है!” कहते हुए एक-एक कर सारे लिफाफे मैंने खोल डाले।
लेकिन यह क्या? सभी लिफाफों में पत्रों की जगह मुड़े हुए सादे कागज़ भर निकले।
“इनमें तो कुछ लिखा ही नहीं है!” मैं हैरान था।
“हाँ, सही है। कुछ नहीं लिखा है!” मक्खन बिलकुल सहज लग रहा था।
“फिर?’ मेरी उलझन बढ़ रही थी।
“प्रवीण, तुम मेरे अपने हो। तुमसे क्या छिपाना? जब मैं घर जाता हूँ तो अपना पता लिखकर तथा भेजने वाले की जगह लाली का नाम लिखकर कुछ टिकट लगे लिफाफे रख आता हूँ| लाली बीच-बीच में उन्हीं लिफाफों में सादे कागज़ रखकर मेरे पास भेजती रहती है। अनपढ़ जैसी होने से वह कुछ लिख नहीं पाती। इन पत्रों को पाकर मुझे लगता रहता है कि लाली सही-सलामत है, जिन्दा है!”
मक्खन के इस स्पष्टीकरण से मैं ठगा-सा रह गया!
उधर मक्खन की पलकों में आँसू की कुछ बूंदें आकर ठहर गई थीं। मैं उन बूंदों की गहराई नापने का प्रयास कर रहा था।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
