bandhan nahi
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एक महंत थे जो भगवान का मानसिक पूजन किया करते थे। एक दिन जब वे मन में भगवान का ध्यान कर उनका पूजन कर रहे थे, तब भगवान को पहनाते समय पुष्प- हार भगवान के मुकुट में अटक गया। महंत चिंतित थे कि उस हार को किस प्रकार भगवान को धारण करायें।

महंत के आसन से हटकर कुछ दूर पर महात्मा कबीर खड़े थे। कबीर दास एक पहुँचे हुए संत थे। वे महंत की कठिनाई को जान गये और चिल्लाकर बोले, “अरे! डोरा तोड़कर गले में हार पहना दे।”

कान में यह शब्द पड़ते ही महंत ने आंखें खोल दीं, उठकर महंत ने कबीर दास का सम्मान किया और उनको अपने साथ बिठाकर भोजन कराया।

यह देखकर महंत के चेले महंत पर बहुत बिगड़े_ कहने लगे, “महंतजी धर्मभ्रष्ट हो गया क्योंकि इन्होंने एक जुलाहे के साथ भोजन कर लिया।” बाद में सब चेले महंत को छोड़कर चले गये।

तब महंत ने कुम्हारों के गधों को मंगाकर अपने आसन के चारों ओर खूंटे गड़वाकर बंधवाया और नित्य उन गधों को हलुआ, मालपुए और खीर खिलाने लगे।

यह देखकर गाँववाले महंतजी के पास गये और बोले- “महाराज! आप यह क्या कर रहे हैं?” इस पर महंतजी ने कहा- “भाई मेरे! भाग में गधों को खिलाना लिखा है- सो पहले मैं बिना पूंछ के नकली गधों को खिलाता था, अब वे मुझे छोड़कर चले गये-तब मैं इन पूंछदार असली

गधों को खिलाता हूँ।”

सचमुच वे लोग मनुष्य होकर भी गधे ही हैं जो आत्मा को न पहचानकर केवल शरीर के रूप-रंग और वर्ण जाति पर ध्यान देते हैं। ईश्वर की भक्ति के लिए जाति-पांति का बंधन नहीं है।”

ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंIndradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)