Bharat katha Mala
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

भीनी भले ही छोटी थी, मगर इतनी भी नहीं कि “कोरोना” के बारे में न जानती। अरे वो तो बारह साल की थी, इस नामुराद बीमारी के बारे में तो छोटे-छोटे बच्चे भी जान गए थे। ये बात और है कि बहुत से या यूँ कहे कि लगभग सभी बच्चे पहले-पहल तो बहुत खुश हुए जब उन्हें पता चला कि स्कूल बंद हो गए। कितना मज़ा आया जब बच्चों को सुबह खूब देर तक सोने को मिला, और फिर गर्मा-गर्म खाना, दिन भर खेलना। कहां तो नौकरी करने वाले मम्मी-पापा की शक्ल देखनी भी नसीब नहीं होती थी और अब दिन रात का साथ। पहले-पहल तो सब अच्छा लगा, मगर जल्दी ही सब ऊबने लगे। यही हाल भीनी का भी था। भीनी और उसका आठ साल का भाई भावुक पहले तो घर रह कर खूब खुश थे, लेकिन जल्दी ही स्कूल के दोस्तों की याद सताने लगी।

पहले-पहल तो सोसायटी के बच्चे मिलकर कभी-कभी खेल भी लेते, लेकिन बाद में ये सब बंद हो गया। किसी के घर कोई जाता ही नहीं था, उपर से मास्क का झंझट, कभी हाथ धोओ तो कभी सेनेटाईजर लगाओ। न किसी से गले मिलना न हाथ मिलाना। भीनी तो सब धीरे-धीरे समझ गई थी, लेकिन भावुक कई बार बाहर खाने की जिद करता। जब ज्यादा ही रूठ जाता तो पापा मोहित आर्डर करके मँगवा देते। भीनी की मम्मी तीरा कोशिश करती थी कि घर पर ही अच्छा खाना बनाया जाए, मगर उसे ज़्यादा कुछ बनाना आता नहीं था। लॉकडाऊन से पहले मेड मीरा ही सारा काम करती थी, अब तो उसका आना भी बंद हो गया था। कुछ समय बाद ऑनलाइन काम की परम्परा चल पड़ी। तीरा की नौकरी किसी प्राईवेट स्कूल में थी, और मोहित किसी कंम्पनी में अच्छे पद पर थे। दो-तीन महीने तो सब कुछ ठीक रहा, लेकिन बाद में हालात बिगड़े तो पैसों की कमी महसूस होने लगी।

खर्च तो ज्यों के त्यों मगर आमदनी कम हो गई। दिल्ली जैसे शहर में रहना वैसे भी आसान नहीं है। ऊपर से महामारी ने जोर पकड़ लिया। जब लॉकडाऊन में कुछ ढील मिली तो मोहित ने फैसला किया कि जब तक हालात ठीक नहीं होते, गाँव चल कर रहते हैं। वैसे भी बच्चों की पढ़ाई भी ऑनलाइन थी, और उसका काम भी। तीरा की नौकरी तो पहले ही छूट गई थी। मोहित माँ-बाप का इकलौता बेटा था, एक शादीशुदा बहन अपने घर पर थी। बच्चों ने जब गाँव जाने की बात सुनी तो वो तो खिल गए। तीरा का जाने का बिल्कुल मन नहीं था, लेकिन मज़बूरी थी। अक्सर साल में एक-दो बार मोहित अकेला ही गाँव का चक्कर लगा आता था, परिवार सहित तो बहुत कम गया होगा। तीरा को न तो गाँव जाना पंसद था और न ही उसकी मोहित की माँ यानि की अपनी सास से बनती थी।

दो साल पहले जब दादी-दादा उनके पास आए थे तो भीनी और भावुक को बहुत ही अच्छा लगा था। भीनी के दादाजी का आँखो का ऑपरेशन होना था, गाँव में ऐसी सुविधा नहीं थी। कितना अच्छा लगता था जब दोनों बच्चों को स्कूल से आकर दादी के हाथ का बना गर्मा-गर्म ताजा खाना मिलता, वरना तो आया का बना हुआ बेस्वाद-सा खाना ही निगलना पड़ता, और अब रोज नई कहानी सुनने को मिलती। भीनी को समझ नहीं आती थी कि माँ हर समय चिढ़ी-सी क्यों रहती। इन सब बातों को समझने के लिए तो भीनी अभी बहुत छोटी थी, मगर उसे दादी दादू का आना बहुत अच्छा लगा। यही हाल भावुक का भी। जब भी मौका मिलता दादाजी के पास आ बैठता, उन्हें खाने-पीने का सामान पकड़ाता, दवाई उठाकर देता। कभी उन्हें चप्पल पहनाता, ऐसे ही छोटे-मोटे काम करके उसे खुशी होती। लगभग सारा काम आया ही करती, लेकिन जब से दादी आई थी, रसोई हर समय महकती रहती। हर रोज़ कुछ न कुछ नया बना ही होता। दादी और मम्मी को भीनी ने बहुत कम बात करते सुना। डेढ़ दो महीने बाद जब वो वापिस चले गए तो जैसा तीरा ने सुख की साँस ली।

बालमन की कहानियां
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कोरोना काल में मज़बूरी में ही सही, सबको गाँव जाना पड़ा। मोहित की तनख्वाह कंपनी ने कम कर दी और तीरा की नौकरी छूट गई। बचत तो पहले ही खत्म हो चुकी थी। वैसे कोरोना भी बहुत फैल गया था। गाँव के खुले वातावरण में कुछ राहत की उम्मीद थी। भीनी और भावुक गाँव आकर बहुत खुश थे और दादी-दादू को तो जैसे अनमोल खज़ाना मिल गया। अब गाँव वैसे नहीं रहे, जैसे कभी पहले हुआ करते थे। नई टैक्नोलोजी की हर सुख सुविधा, मसलन नेटवर्क, वाई-फाई, टीवी सब कुछ था। थोड़ी बिजली की समस्या थी लेकिन जनरेटर लगा हुआ था। चार कमरों का खुला पक्का घर, बहुत बड़ा आँगन, और नीम का पेड़। रंग-बिरंगे फूल-पौधे लगे हुए थे, हर तरफ हरियाली ही हरियाली। गाँव से बाहर थोड़े खेत भी थे, रोज ताजा सब्जी, और वहाँ पर जामुन, आम और बेर के पेड़ भी। एक गाय भी पाल रखी थी। सुबह शाम ताजा दूध। गलियाँ भी लगभग पक्की ही थी। सोसायटी जितनी सफाई भले ही नहीं थी, लेकिन बच्चों को सब बढ़िया लगा, और पापा जिनका सारा बचपन ही यहीं बीता, न जाने कितनी यादें जुड़ी थी, और गाँव में दूर पास के रिश्तेदार भी बहुत थे, अक्सर ही मिलना जुलना होता मगर पूर्ण एहतियात के साथ। साथ वाले घर में ही मोहित का कजन था, जिनके दो बच्चे थे। जल्दी ही चारों बच्चों में दोस्ती हो गई। तीरा कुछ दिन तो खिंची-खिंची सी रही, मगर फिर तो बहुत खुल गई। भीनी की दादी का स्वभाव बहुत अच्छा था। वैसे तो तीरा भी दिल की बहुत अच्छी थी, लेकिन वो आगरा शहर में ही पली-बड़ी तो उसने तो गाँवों के बारे में किताबों में ही पढ़ा था। अब उसे अहसास हो गया था कि असली भारत तो गावों में ही बसता है।

रसोई में बहुत से पारम्परिक पकवान बनते, जिन्हें सब बड़े चाव से खाते। बच्चे कभी-कभी पिज्जा, बर्गर. पास्ता. मोमोज या और भी कई तरह के फास्ट फूड मिस करते लेकिन फिर भूल जाते। वैसे तो तीरा घर पर भी बहुत कुछ बनाने की कोशिश करती। कई बार तो भीनी और भावुक भी उसकी मदद करती। सास के साथ खाना बनाते-बनाते अब तो तीरा भी काफी कुछ सीख गई थी। आपसी मेल जोल, प्यार मुहब्बत, दु:ख सुख का साथ, रीति रिवाज़, परम्परा, कितना कुछ देखने को मिला, जो सिर्फ फिल्मों में ही देखा था। अभी तो कोरोना के चलते बहुत से बंधन थे, मगर तीरा का मन अंदर तक भीग गया था। अपने व्यवहार को सोच कर ही उसे ग्लानि होती। वो तो गाँव आने से डर रही थी, लेकिन यहाँ तो सबका खुले दिल से स्वागत हुआ। कोई कमी नहीं। बच्चों को तो जैसे खुला आसमान मिल गया। कभी मोटर पर नहाते, तो कभी खेतों में भागते। दूर तक फैले सरसों के खेत- क्या नज़ारा था। रंग-बिरंगे पक्षियों का कलरव, कभी तितलियों के पीछे दौड़ना तो कभी गिलहरियाँ पकड़ने की नाकाम कोशिश करना। कंचे, स्टापू, छुपन छुपाई जैसे खेलों का तो उन्हें पता ही नहीं था। रात को खुले आसमान के तारें गिनते, फिर भूल जाते, तो फिर से शुरू हो जाते। दादा जी ने मोटी रस्सी से पेड़ पर झूला डलवा दिया था। भीनी ने शहर में झूले तो बहुत देखे झूले थे, मगर इस झूले का अलग ही मज़ा था।

तीरा चारों बच्चों की ऑनलाईन क्लासीज में मदद करती। आस-पास के कई बच्चे और भी धीरे-धीरे आने लगे। कईयों के पास स्मार्ट फोन नहीं थे, तो अपने लैपटॉप से तीरा उन्हें समझाती। अब तो उसे बहुत आनंद आने लग गया। शादी के बाद तीरा पहली बार इतना समय गाँव में रही। पहले बस एक या दो दिन, वो भी किसी मजबूरी में। शादी भी आगरा में ही हुई थी। लेकिन अब तीरा को लग रहा था कि वो कितनी गलत थी। कितने अच्छे, सच्चे और सादे लोग थे। शहरों में तो जैसे चेहरों पर मुखौटे लगाए हो। बच्चों के चेहरे की रौनक देखकर तो वो निहाल ही हो जाती। चार महीने बीत गए। कोरोना कुछ कम होने लगा, और कुछ मजबूरियों के चलते सरकार को लॉकडाऊन खोलना पड़ा। सभी अपने घर देहली वापिस आ गए, लेकिन साथ लाए बहुत सी सुंदर यादें। तीरा ने अब ऑनलाइन क्लासीज लेनी शुरू कर दी थी और तो और अब वो कुकिंग में इतनी माहिर हो गई थी कि उसने आसपास टिफिन सप्लाई का काम शुरू कर दिया।

भीनी और भावुक तो अक्सर गाँव की, दादा-दादी की और अपने दोस्तों की बातें करते। तीरा की आँखें उस समय भर आई जब नन्हे भावुक ने कहा,” मम्मी, अब जब कोरोना ज्यादा फैल जाएगा, तो हम फिर गाँव चलेगें?”” ऐसा नहीं कहते बेटा, भगवान करे, ये जल्दी खत्म हो, तुम रोज प्रार्थना करना, कहते है, ऊपर वाला बच्चों की जल्दी सुनता है। देखना जब सब ठीक हो जाएगा तो गाँव जाने का आंनद और भी बढ़ जाएगा। और अब जब भी तुम्हारी छुट्टियाँ होगी, गाँव जाएंगे और दादा-दादी को भी यहाँ आने के लिए कहेंगे” यह सुनकर भीनी और भावुक खुशी से ताली बजाने लगे। तीरा समझ चुकी थी कि गाँव और शहर एक ही सिक्के के दो पहलू है। दोनों के अपने-अपने फायदे है। कहीं भी रहो जगह दिल में होनी चाहिए।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’

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