andhere mein doobi ek puliya
andhere mein doobi ek puliya

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

शाम ढलते ही गांव में सूखी टहनियों से चूल्हे सुलगने लगते। भक-भक करके जलते पत्तों के धुएं से वातावरण में विचित्र-सी गंध फैल जाती। आकाश के कोनों में छितरायी वसंती आभा को देखकर घुन्ना असहज होने लगता। अब वह बालक नहीं था, घर-बार वाला जिम्मेवार व्यक्ति था। परन्तु, हर शाम उसे अपना-आप उदासी के शिकंजे में कसा जाता मालूम पड़ने लगता।

बचपन की अलबेली स्मृतियां राह भटके पंछियों की तरह घर लौटने लगतीं। बछड़ों और गायों के रंभाने के सुर, धूल से भरा आसमान और जलते पत्तों की तीखी गंध। वह कच्ची छत पर चढ़ जाता और भगवे रंग में रंगे आकाश की ओर गर्दन उठाकर हांक लगाता-“आ लक्ख निरंजन!” कोई न जानता था उसने अलख जगाना कहाँ से सीखा। बिरादरी की बुढ़ियाँ हँसी-हँसी में कह देतीं- “भानी। तेरी गोद में गरु गोरखनाथ का कोई चेला चला आया है।”

“पिछले जनम कहीं तप-भंग हुआ होगा। इसी वास्ते दुबारा जून भोगने चौरासी के चक्कर में फंस गया।” कोई दूसरी कहती।।

घुन्ना आज फिर असहज था, चिन्ता में डूबा हुआ। आँगन में परेशान हाल वह इधर-उधर चक्कर काट रहा था। एक दीवार से दूसरी दीवार तक जाता, फिर मुड़कर लौट आता। हथेलिणं रगड़ता, हाथ मरोड़ता, मुट्ठियाँ भींचता। न जाने क्या था जो उसके तमाम अस्तित्व को जकड़ता जा रहा था। जी में आता गला फाड़कर चीखे-आ लक्ख निरंजन! और हाथ में चिमटा लिए नंगे पाँव कहीं चला जाए, चलता जाए, बस।

सहसा एक सौम्य तथा दढचित्त साँवली मरत इस आवारा सोच का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती। यह देवकी होती। उसके सामने पड़ते ही वैराग्य का क्षणिक आवेश काफूर हो जाता। घुन्ना ठिठका खड़ा रह जाता।

परकोटे के परे बिस्सों ने देखा तो वे जान गए की लड़के के अन्तस् में कोई प्रबल झंझावात झूल रहा है। उसकी गुमसुम तडप को वे बरसों से देखते चले आ रहे थे। वह झटपट रसोई घर में आए और भानी से बोले “अरी, भली लोक! तेरा घुन्ना आज कुछ ठीक नहीं लगता।”

फुलका चाँटते भानी के हाथ एकाएक थम गए। अज्ञात की आशंका से मन में घबराहट घनीभूत हो उठी। “कुछ कहें भी तो; हुआ क्या है?” उसकी आवाज़ में उतावलापन झलक उठा।

“वह परेशान-सा आँगन में घूम रहा है। लाड़ी (बहू) न जाने कहाँ गयी हुई है?”

हथेली से नीचे लटकती टूटने को हो आयी रोटी को संभालते हुए भानी बोली-“भूख लगी होगी। मैं जानती हूँ, भूख लगने पर वह बावरा होने लगता है।”

“मगर देखो तो स्वभाव का कितना कड़ियल है। क्या तेरे से माँगने में कुछ हरज हो जाता है। हम गैर थोड़े ही हैं। बाप के घर से लेकर खाने में शरम आती है, शरमज़ादे को।”

“मैंने आपसे कहा था- इसे अलग न करें। बाप होकर भी आपने पता नहीं कौन-से जनम का बैर निभाया है इस बावले से।”

“तू नहीं जानती।” कहते-कहते बिस्सोराम रुके। जेब से बीड़ी निकाल कर होठों में धरी। चिमटे से अंगारा पकड़कर इसे सुलगाने लगे। फिर पक-पक करते धुएँ के गोले हवा में उगलकर बोले- इसलिए अलग किया था कि अपने हाथ-पाँव सीधे कर ले, मेरे जीते-जी। तेरे लाड़ ने उसे उमर भर के लिए हाड़-गोड़ से हरामी बना डाला। काम के नाम पर अलख निरंजन बोलने वाला महाआलसी बना दिया उसे। मैं चाहता था कंधों पर बोझ पड़े तो असमय का यह राग अलापना बंद करे। गबरू जवान हो चला था, पर तूने अपने हाथ से कौर तोड़कर इसके मुँह में डालना न छोड़ा। उसी से बिगड़ गया। रेल एक बार पटरी से हट जाए तो आसानी से अपनी जगह पर नहीं आती। उसका भला चाहकर मैंने कौन बुरा काम कर डाला।”

भानी ने धुआँ छोड़ती लकड़ियों को कुरेदकर फेंक लगायी। आग की सुनहरी लपट उठते ही बोली- “अलग करके आपको ठंड पड़ गयी न। अब तो जैसे वह बड़े-बड़े पहाड़ खोदने लगा है।”

बिस्सो का स्वर कड़वाहट से भर गया। उसे कौन-सा मैंने घर से निकालकर चौराहे पर फेंक दिया है। उसकी शादी कराई। घर, रसोई, जमीन जो उसका बनता था दिया। आंगन में दीवार लगवाई है तो किसी दु:ख के मारे नहीं। यह भी उसी के भले के वास्ते किया है ताकि समझ ले कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी दिखती है। पग-पग पर स्वार्थ और ठोकरें हैं। वह बड़ा होकर भी छोटा होने का भरम कब तक पाले रखेगा। जीने के लिए काम करना पड़ता है। नहीं तो इस जमाने में कोई किसी को पानी के वास्ते नहीं पूछता…..।”

भानी एकटक बिस्सो का चेहरा निहारती रही। मरद कितनी कठिन और कड़वी बातें कितनी सहजता से कह सकते हैं। फिर बोली- “बेचारी देवकी है। उसने इसे हथेलिरों पर उठा रखा है। नहीं तो, न जाने इस बेचारे का क्या बने।” उसने आटे का पेड़ा परात में रखा और उठकर बाहर चली आयी।

घुन्ना अपने आंगन में ड्योढी के पास खड़ा था।

“लाडी।” भानी ने नज़र से उसे इधर-उधर तलाशते हुए कहा।

भीतर से कोई आहट या आवाज़ बाहर न आयी। वह दुबारा हाँक लगाने लगी थी, तभी घुन्ने ने इधर देखा।

“क्या बात है बच्चू। देवकी कहाँ है?”

“अम्मा, मैं अम्बरसर चला जाऊँगा-स्वर्ण मन्दिर। वहाँ संगतों की जूतियाँ पोंछ डाला करूँगा। कहते हैं वहाँ बड़ा लंगर लगता है। दो टेम की रोटी मिल जाती है।” रोषभरी बात में बचने की ज़िद पहचान कर धीमे से मुस्कुरा दी भानी। एकाएक ममता उमड़ पड़ी।

“बच्चू, अगर तूने इतनी दूर सिरफ लंगर छकने जाना है तो मेरे घर में अनाज की कमी नहीं हुई अभी। पगले, किसान का खेत किसी मन्दिर से कम नहीं होता। उसके घर सदाबर्त लगा रहता है, कई लोग उससे भोजन पाते हैं। पंडित जी क्या बतलाते रहे उस रोज कि गुरु नानक जी आपे किसान थे। मेहनत के पसीने को चरणामत मानते थे…..।”

“मैं साधुओं की टोली के संग चला जाऊँगा।” खीझ कर उसने माँ के उपदेश को काट डाला। स्वर रूठे बच्चे-सा हो रहा था देखकर भानी हँस दी।

आँखों के सामने बे-मौसम बिजली-सी चमक गयी।

…..दहलीज़ पर कनफटा जोगी चिमटा बजा रहा था। किसी ने बहका कर भेजा होगा। बिस्सों के दरवाजे पर अलख-निरंजन की पुकार गूंज रही थी। घुन्ना दौड़ा-दौड़ा आँगन में चला आया था। वह जोगी के स्वर में स्वर मिलाने लगा था- “अलख-निरंजन।”

“भिख्या दे भगत।” बिस्सो को सामने आता देखकर जोगी बोल पड़ा।

बिस्सो दो गर्म-गर्म रोटियों पर आम का अचार रखकर ले आया।

“न-न भगत, पेट भरने की बात नहीं है। हमारा सवाल बड़ा है।”

इसी समय भानी बाहर निकल आयी थीं। “क्यों बाबा, कौन-सा बड़ा सवाल है। हम गरीबों में रुखी-सूखी जैसी बन पड़ी, तुम्हारे सामने रख दी…..।”

“माई गुरु गोरख का एक बाल-जोगी तेरे घर जनमा है। उसके कानों में मुन्दरे डलवा कर जोगपंथ की सेवा में लगा दे। नाथ उसी को लेने आए हैं।”

भानी से कोई भले ही उसकी श्वासों की डोर माँग ले, वह हँसकर दे देती। पर घुन्ने को बाल-जोगी बना कर घर से निर्वासित करने की बात पर उसका एकाएक क्रोधित हो उठना अस्वाभाविक न था। “जा-जा बाबा! रास्ता नाप अपना। इसे लाख मनौतियां माँग कर देवता से पाया है। अपने घर को अँधेरे में डुबोकर कुल का दीपक न दूंगी।”

जोगी आँखें लाल करता हुआ बोला- “नाथों की अमानत न लौटाएगी पगली तो पत्थर जलकर राख हो जाएँगे। अपनी तबाही को आवाज न दे…..।”

भानी बिफरी आवाज़ में बोली- “तू अपनी खैर मना पाखंडी। नहीं तो जलती लकड़ी से तेरा दाढ़ा झुलसा दूंगी।”

जोगी उल्टे पाँव लौट गया था, मगर भानी के हृदय में भय की गहरी छाप छोड़ गया था। क्या मालूम पिछले जन्म में घुन्ना सचमुच साधु रहा हो। मगर उससे क्या? इस जनम तो वह मेरी कोख से बेटा बनकर पैदा हुआ है। क्या पता बड़ा होने पर वह बभूति रमाकर निकल पड़े…..। आशंका की लहर-सी दौड़ गयी। अब जब कभी वह छत पर चढ़कर अलख निरंजन की गुहार लगाता, नीचे से भानी बोल पड़ती- “राधे-शाम बोल बेटा, सीता-राम बोल।”

अतीत की कौंध से निकलते ही भानी मुस्कराने लगी। फिर घुन्ने से सम्बोधित हुई- “भोले लड़के! अगर तुझे भूख लगी है तो इधर चला आ। मैं रोटी पका रही हैं। तेरे मनभाने राजमाँह बना रखे हैं। भख नहीं सह पाता तो दुनिया भर की अंट-संट बोलने लगता है। चला आ मेरा बेटा…..।”

“मैं सच कह रहा हूँ, अम्मा! देवकी जो कुछ कर रही है वह ठीक नहीं है।”

एकाएक भीतर से बिस्सो की कर्कश आवाज़ गूंजी- “खबरदार, जो बहू को बुरा-भला कहा तो। अरे, उस बेचारी ने तेरा घर और जमीन संभाल रखी है। खेतों में बल्द लेकर हल चलाती है, कटाई तक करती है। तू बाघड़ियों की तरह घर में पड़ा रहता है। तुझे अपने भाग्य पर इतराना चाहिए कि तेरे जैसे निखटू को ऐसी लड़की मिली जो दिन-रात तेरे लिए खटती रहती है।”

अब भानी से न रहा गया। “बस कीजिए। उसे सराह कर क्या सिर पर चढ़ाइएगा।” कहकर वह रसोई में लौट आयी। फिर धीरे से पूछने लगी “पर लाडी ने ऐसा क्या किया है, जिस पर इसने मुँह सुजा रखा है?”

“मैं क्या जानूं?” कहते-कहते बिस्सो के चेहरे पर रहस्य भरी चमक कौंध आयी।

“आप बहुत चालाक हैं। बताइए लाड़ी क्या कर रही है?”

“वह जो कुछ कर रही है ठीक कर रही है।”

“मुझे समझ नहीं आ रहा, वह ऐसा क्या ठीक कर रही है, जिस से लड़का परेशान है…..और आप निश्चिंत होकर आँखें मींचे बैठे हैं।”

“मैं क्या करूँ। अब वह घर-परिवार वाला है। उसे अपना अच्छा-बुरा आप सोचना चाहिए।”

“दोनों में अच्छी-भली बनती थी। अचानक क्या फसाद खड़ा हो गया है।…..हे रामा, मेरी किस्मत ही खोटी है। इस लड़के के चेहरे पर खुशी देखने को जी तरसता रह जाएगा।” सहसा भानी की आवाज़ भीग आयी थी।

“तू धीरज धर, भानी। सब ठीक हो जाएगा।”

“धीरज धरूँ। पर कैसे? मैं इस लड़के को सुखी न देख पाऊँगी।”

“यह तेरा वहम है पगली। दोनों जन सुखी हैं।”

“तो फिर यह बीच-बीच में घर से भाग जाने की बातें क्यों कर करता है?”

बिस्सो धीमे से मुस्काया। “आज छः बरस हो चले हैं दोनों की शादी हुए। हँसी-खुशी से वे अपनी गाड़ी ठेलते जा रहे हैं। इन छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ नहीं बनाना चाहिए।”

“पर पहले वह बात-बात पर घर से भाग जाने की बातें नहीं करता था। कुछ दिनों से यह वाला राग ज्यादा ही अलापने लगा है।” उसका स्वर सँधने लगा था।

“देवकी का प्रेम इतना कच्चा नहीं कि उसे ठुकराकर वह मनचाहा कर गुजरे।” बिस्सो ने कहा- “वह अपने हक पर पहरा देना खूब जानती है।”

पिछले बरस बिस्सो ने उसी कनफटे जोगी को गाँव के बाहर कुएँ के करीब बोहड़ के नीचे डेरा जमाए देखा था। मन में खटका हुआ…..हो न हो वह हमारे घुन्ने को भगाकर ले जाने के अवसर की तलाश में यहाँ आकर डट गया है। ससुर की बात सुनकर देवकी का रोम-रोम आशंका से काँप उठा था। दीवार से फरसा उतार कर तेज़ डग भरती वह कुएँ वाली बोहड़ पर जा पहँची थी। जोगी के पास बैठा घन्ना चिलम भर रहा था। उससे चिलम छीन कर उसने कुएँ की जगत पर फेंक कर तोड़ डाली। जमीन में गड़ा चिमटा उखाड़ कर परे फेंक दिया। धूने से जलती लकड़ी उठाकर पुराने तिपाल से छायी उसकी झोपड़ी को आग लगा दी थी।

“यह क्या कर रही है, चुडैल कौन है यह पगली?” जोगी बौखला उठा था।

“पापी, मैं सुन चुकी हूँ, तू बचपन से इसके पीछे पड़ा हुआ है। क्या मैं नहीं जानती तूने यहाँ धूना क्यों रमाया है। जोग-जप करके उसे बस में करके ले जाएगा। दुष्ट, मैं इस फरसे से तेरा कपाल-मोचन कर डालूँगी।…..”

अहित की आशंका से बिफर उठी नागिन-सा उग्र रूप धरे देवकी को देखकर भनी का रोम-रोम झंकृत हो उठा। भौंचक खड़े घुन्ने को देखकर माँ का कलेजा बोल उठा- “बच्चू यह तुझे सही पाठ पढ़ाएगी।” सहसा जोगी सरपट भागने लगा था और बिना पीछे देखें बाण से छूटे तीर-सा गाँव से बाहर चला गया था।

देवकी ने घुन्ने को बाजू से पकड़कर भानी के सामने ला खड़ा किया- “माँ जी, इन्हें घर ले चलिए। मैं इस ढोंगी दुष्ट का कमंडल, चिमटा नदी में फेंक कर आती हूँ……।”

“क्या सोचने लगी भली लोक?” बिस्सो की आवाज़ से तन्द्रा टूटा तो एकाएक भानी चौंक उठी। फिर कहने लगी- “अपनी आँखों के सामने घुन्ने के न होने की सोचकर हाथ-पाँव फूलने लगते हैं।”

सुनकर बिस्सोराम हँसने लगे– “यह कहीं नहीं भागेगा। न अम्बरसर न दिल्ली। वहाँ भानी या देवकी बैठी इसकी राह नहीं तक रहीं कि महाराज जी आकर चारपाई पर विराजें तो इन्हें थाल परोसें। बाहर जाकर काम करना पड़ता है। जान मारनी पड़ती है, तब जाकर दो कौर नसीब होते हैं।”

सहसा रसोई के बाहर लोहे के कड़ाहे को ठोकर लगने की आवाज़ हुई। देखा घुन्ना वापस लौट रहा है। उसने बापू की बातें सुन ली थीं।

भानी सचेत होकर बोली- “मेरे घुन्ने राजे! आ बैठ चटाई पर। मैं खाना परोसती हूँ।”

“मैं रोटी खाने नहीं आ रहा था। मैं बाप को समझाने आ रहा था कि आप देवकी के संग मिलकर जो कुछ कर रहे हैं, वो ठीक नहीं है।”

भानी कुछ कहती, इससे पहले ही बिस्सोराम बोल पड़े- “लड़के मुझे तेरी गिरहस्ती की बातों में आने की जरूरत नहीं। तू जान या देवकी जाने। अलग कर देने के बाद मेरा तुम दोनों पर वो हक नहीं रहा कि भला-बुरा बतला कर अपनी पगड़ी की लाज रख पाऊँ। अपने धवल बालों की फिकिर है मुझे।”

असमंजस में फंसी भानी चकित-सी बिस्सो को निहारने नगी। बेटे की शिकायत माँ की आँखों में प्रश्नचिन्ह बनकर तैरने लगी थी। ऐसा क्या है जो परदे के पीछे चल रहा है। बिस्सोराम हाथ पोंछकर बिन्ने पर बैठ चके थे। इस प्रश्नचिन्ह के प्रति वह अपने को अपराधी महसूस करने लगे।

“बात यों है भानी, दो महीने हुए साँझ की बेला थी। मैं खेतों में गोड़ाई कर रहा था, तभी देवकी मेरे पास आयी थी। देर तक घूघट काढ़े खड़ी रही। पूछा- लाड़ी क्या बात है तो नीचे बैठकर सूखी टहनी से मिट्टी कुरेदने लगी। कुछ बोली नहीं। दोबारा पूछा मैंने तो बोली- बापू कैसे बोलूँ… समझ नहीं आ रहा कि आप लोगों ने आज तक क्यों नहीं सोचा? मैंने कहा- लाड़ी ठीक-ठीक बोल, तुझे क्या परेशानी है। मैं तेरे बाप के समान हूँ। तब बोली- इस कुल की बेल बढ़ती नहीं दिखती। मैंने कहा-सब परमात्मा की इच्छा है बेटी। वह बोली- इस घर का कोई वारिस नहीं होगा तो क्या बनेगा? मैंने कहा- उस प्रभु पर आस रख, जो बंजर धरती पर भी फसलें लहलहा देता है। वह जो करता है, उसमें ज़रूर कोई रहस्य होता है। कहने लगी, लोग पौधा इस आशा से लगाते हैं कि समय आने पर इसे फल लगेंगे, कठिन बेला में चार पल बैठने को इसकी छाया मिलेगी। मैंने समझाया. बच्च होनी बलवान होती है। वह सख चके पेड़ों को हरा-भरा कर देती है। पल भर चुप रहकर वह ढेले तोड़ने लगी। फिर बोली- बापू इनका ब्याह करा दें। सुनकर कलेजे में जैसे बम फट गया हो। पूछा- लाड़ी क्या घन्ना तझे इस बात के लिए तंग करता है। बोली- नहीं. पर जिस आँगन में औलाद न हो वहाँ भूत बसेरा करने लगते हैं। कहते हैं कि वहाँ आक-धतूरा उग आता है, घुग्ग पंछी घर के भीतर नीड बनाने चले आते हैं। मैंने कहा- लाड़ी तुझे ब्याह कर इस घर लाया था। मेरा धरम नहीं बनता कि लड़के की एक और शादी कराऊँ।…..अब तेरी ननदों का सोचना है मैंने। घुन्ने के प्रति जो फरज था, निभा डाला। वह बोली-आप रुपयों की फिकिर न करें, मैं अपने मायके से ले आऊँगी। अपने गहने-कपड़े मैं सौतिन को पहना दूंगी। आप बड़े हैं। बहुत-से लोगों से आपकी पहचान है, आप कहीं इनका रिश्ता करवा दें…..।”

अचानक भानी की आँखों से आसुओं की कतार नीचे लुढ़कने लगी-टप-टप-टप। द्रवित हुए मन को उसने आँखों से बे-रोक बहने दिया। इन्हें बिन पोंछे बोली- “यह कैसी लड़की है। किस कलेजे से यह बातें करती है। घुन्ने को साथ ले जाकर कई बार शहर में डाक्टरानियों से हो आयी है। मुझे लगता है उन सब ने इसी बेचारी में नुक्स बतलाया है। पर. …..यह कैसी लाड़ी है। कैसे इसके फूल समान कोमल हिरदे से लोहे जैसे दिरिड़ बातें निकलती हैं…..।”

अश्रुओं की लड़ी रेलगाड़ी के परस्पर बंधे डिब्बों की तरह निरंतर रेंगती जा रही थी।

“घुन्ना क्या इसी बात पर घर से भाग जाने की रट लगाने लगा है?”

“वह सच्चे मन से इसे प्रेम करता है।”

“ऐसी लक्ष्मी को कौन नहीं पूजेगा?”

“खाते-पीते घराने की देखकर बहुत-से लोग इनके घर इसका रिश्ता माँगने आते थे। हम गरीबों के पास क्या था। इसने आपे घुन्ने को पसंद किया था।”

“पिछले जनम का लेन-देन रहा होगा जो इस जनम में सम्बन्ध बन गया। इसी वास्ते कहते हैं, रिश्तों का निरणा बिधना के दरबार में होता है। फिर धरती पर मंगल-कारज होते हैं।”

“पहली बार मैंने इसे दिलासा देकर भेज दिया था। पर बाद में बार-बार रिश्ता ढूँढने का हठ करती रही। एक बार धातरेआल से गुज़रते हुए मंगतू के घर रुका था। संयोग से उसने अपनी बेटी के लिए रिश्ता बताने की बात की तो मैंने उससे देवकी और घुन्ने की गिरहस्ती में बच्चे के अभाव की बात बतलाई और कहा कि आँगन किस तरह बे-रौनक लगता है।”

बोलते-बोलते बिस्सो खाँसने लगा। फिर बोला- “मंगतू मान गया तो मैंने उसे समझाया- लाड़ी आपे आकर बात चलाएगी। मेरा जिकर न करें। अगली बेर देवकी ने मुझ से पूछा तो मैंने बतलाया- लाड़ी, धातरेआल गाँव के मंगतू के घर ब्याहने योग्य बेटी है, पर वहाँ बात तुझे खुद चलानी पड़ेगी। अगले दिन यह मुँह-अँधेरे उनके घर जा पहुंची। मंगतू बाद में मिला था मुझे। बोला-बहुत लाइक लड़की है। सुबह उनके घर पहुंची तो उन्होंने पूछा- आज बड़े घर की रानी सुबह-सुबह कैसे आयी है। बोली- आपकी बिटिया रानी को लेने आयी हैं। आपको मालम है हमारा आँगन सना है। उन्होंने चाय लाकर सामने रखी तो बोली- आपके घर का चाय-पानी मैं तभी छुऊँगी जब आप मेरी बात रखेंगे। नहीं मानेंगे तो सूखे मुँह लौट जाऊँगी। मंगतू की घरवाली बोली- बेटी तूने बहुत बड़ी बात कह दी है। सौतनता माँगने आयी है, पर यह निभती नहीं किसी से। अपने जी का जंजाल बन जाती है। देवकी बोली- मैं सौतनता नहीं, सगापन निभाऊँगी। मैं इन दोनों की दासी बनकर रहूँगी…..। फिर घुन्ने को पूछे बिना यह मंगतू के घर से गरी, रुपया और रूमाल ले आयी थी।”

“हे रामा! इसने मुझे बताया तक नहीं। आपने भी इतनी बड़ी बात मुझे से छिपाए रखी।”

“यह कैसे सुनाती। मैंने मना कर दिया था। कहीं बेबात पर सास और बहू में खटपट न होने लगे, यही सोचा था।…..और मैंने इस कारण बात नहीं छेड़ी कि क्या मालूम यह बात सिरे चढ़ेगी भी या नहीं। इसलिए पंखों के ढेर को कबूतर कहने का क्या लाभ?”

मेरे प्रभु! इतनी सहनहारी लाड़ी मैंने किसी की नहीं देखी। यह बातें पता होतीं तो मैंने आज तक सारे गाँव में इसके गुण बखान कर धूम मचा देनी थी।”

इतने में आँगन में किसी के आने की आहट हुई। पल भर में देवकी सामने थी- सिर पर पगड़ी बांधे और शरीर पर लोई लपेटे।

“अरी लाड़ी! तूने यह क्या वेश बना रखा है?” भानी के स्वर में निहित प्रफुल्लता छिप न पायी थी।

बिस्सोराम भी बहू की ओर विस्फारित नेत्रों से देखे जा रहे थे।

लोई हटाकर देवकी ने घूघट काढ़ लिए। बाँह पर कसकर बैठाई चूड़ियों को सरका कर कलाइयों पर किया, फिर हँसते हुए कहने लगी- “मैं पुरखूह से लौटने लगी तो अंधेरा घिर चुका था, सिर पर भैया की पगड़ी फंसाई और लोई को कंधो पर लपेटा। फिर साइकल लेकर निकल पड़ी- ताकि मरद समझकर कोई उचक्का पास न फटके और अँधेरा रास्ता ठीक से पार कर लूँ। घर तो सही-सलामत पहुँच गयी पर पसीने में नहा आयी हूँ…..।”

उसे हँसते देख भानी सोच में पड़ गयी- क्या सचमुच इसके कलेजे में कहीं कोई कसक, कोई पीड़ा नहीं है…..और जो कुछ उसके विषय में आज जाना है, उसे जानकर उसका हृदय एकदम भारी हो आया था।

एकाएक उसकी आत्मा रो दी थी- “लाड़ी तेरी बहुत बड़ा दिल है। यह तू क्या करने जा रही है…..?”

क्षणाँश भर के लिए देवकी असमंजस में डगमगा गयी। फिर ससुर को सामने पाकर बूंघट से ही बोली- “माँ जी, यह खुशी का कारज है। आप रो रही हैं?”

“रोऊँ कैसे न लाड़ी। तू कैसी औरत है। जान-बूझकर सौत ला रही है। यह तू क्या करने लगी है। अभी तूने देख लेना था। क्या पता भगवान तेरी गोद हरी कर दे। अधेड़ उमर तक औरतें आशा नहीं छोड़तीं।”

देवकी ने आगे बढ़कर अपनी चुन्नी के सिरे से सास की आँखें पोंछ डालीं।

“आपको सौगंध है, माँ जी। अब आँखों से एक आँसू न गिराएँ।” इतना कहकर उसने अपने हाथ के रुकाल की छोटी-सी गठरी खोलकर सास के सामने रख दी। “यह दस हजार रुपए हैं। आप बड़ी हैं। सारा काम आपको करना है। बड़े भइया ने कहा है, यदि कम पड़ें तो और मंगवा लूँ…..।”

अब बिस्सोराम की आँखों पर पानी की झिल्ली उतर आयी। बिछड़ते मन को काबू किया और तीव्र गति से बाहर चले गए।

अंधकार में जी उठे सन्नाटे को रह-रह कर खुशी से लदे ठहाके बेध रहे थे।

देवकी ढोलक पर थाप दे रही थी। भानी चम्मच बजा रही थी। गाँव की बहु-बेटियाँ गीत गा रही थीं। गम में डूबी सास को देवकी बाँह से पकड़कर नचाने लगी थी। बैठक में हुक्का गुड़गुड़ा रहे बिस्सो के होठों पर मुस्कान खिल आयी।

शाबास बेटी! कोई तो हुआ जो इसे भी नचा सके। वरना यह तो सदा मुझी को नचाती फिरती है।” बेसाख्ता उनके मुख से निकला।

आकाश में जमघट की खिलखिलाहट भर गयी। वहाँ से उठकर वे आँगन में आँवले के पेड़ के साथ पीठ टिकाकर बैठे घुन्ने के पास चले आए। हुक्का छोड़कर चिलम पीने लगे। पक-पक करके कश खींचते हुए विचार कौंधा– कुदरत क्या-क्या रंग दिखलाती है। एक निराली लीला है। अपने बेगाने हो जाते हैं और जिन से आस नहीं होती, वे सगों से ज्यादा अपने हो जाते हैं। सुख की भरपूर बौछारें करने वालों की अपनी झोली खाली रह जाती है। पता नहीं भगवान की न्याय तुला कैसी है…..?

बिस्सो ने दम खींचा। चिलम पर लाट न जली। वे तम्बाकू डालने भीतर जाने लगे तो घुन्ने ने मरियल-सी आवाज़ में कहा- “यह ठीक नहीं हो रहा।”

उनके आगे बढ़ रहे कदम ठिठक गए। लगा घुन्ना अन्तस् में जोरावर झंझावात रोके हुए है।

“क्या ठीक नहीं है भई?”

“यही जो कुछ हो रहा है।”

“टेम आने पर सच्चाई को मान लेने में कुछ बुराई नहीं बच्चू।”

“मगर यह ठीक नहीं है?”

“क्या ठीक नहीं है, भई?” पुनः खीझ से भरा प्रश्न उभरा। अब उन्हें उत्तर नहीं मिला। अँधेरे से गुजर कर वे रसोई घर में चूल्हे के पास आ बैठे। चिलम भरकर अंगारे रखे और धुएँ के गुंजलक बिखेरने लगे।

गर्मियों की दमघोटू उमस में खुशियों भरी खिल-खिल, सन्नाटा बिखेरते शून्य को पूर्व दिशा की ठंडी बयार की तरह भिगोने लगी।

आँवले की शाखाओं पर चिड़ियों ने चिहूँ-चिहूँ की धुन छेड़ रखी थी। उनके फुदकने-फड़फड़ाने से पीतवर्ण बारीक पत्तियाँ नीचे झर रही थीं। दिन खिला हुआ था। अप्रत्याशित-सी उदासी फैल रही थी।

देवकी परेशान थी। आशंका से भीतर ही भीतर कुछ टूट गया था।

“माँ जी, उनका कुछ पता नहीं चल रहा। आगे तो अब तक बाहर से आकर न्हारी (नाश्ता) कर चुकते तो चैन आता था। आज मालूम नहीं कहाँ रह गए हैं?”

माँ के कलेजे में अन्देशे की तार कंपकंपाने लगी। “हे प्रभु, वह अपनी ज़िद पूरी कर गया दिखता है। कल कह रहा था अम्बरसर चला जाऊँगा। न जाने उस मुए जोगी ने इस पर कैसा जादू कर डाला है…..।”

देवकी के चेहरे पर एक रंग आकर दूसरा जाने लगा। बूढ़े बिस्सो के मुँह पर जैसे भारी ताला लग गया हो।

भानी बोली- “कल आपकी बात सुन ली थी उसने। आप तो सदा उसे गीदड़ भभकियां देने वाला कहते रहे। अब वह घर छोड़ कर भाग गया है।”

देवकी ने पड़ोस के पंचों के छोटे लड़के बिहारी को साथ लिए और साइकल लेकर शहर की ओर चल पड़ी। कैरियर पर बैठा बिहारी पूछने लगा- “भाभी, भइया कहाँ गए हैं?”

“कह नहीं सकती कहाँ गए हैं?” पर हमें अम्बरसर वाले अड्डे पर चलना है।”

“यदि भइया जी न मिले तो?”

“तो मैं किस मुँह से वापस लौटूंगी। सारा झंझट मेरा डाला हुआ है।”

“हुआ क्या है?”

“कुछ नहीं हुआ। वह दृढ़चित्त होकर साइकिल चलाती रही।”

शहर पहुँचने तक वह तमाम देवी-देवताओं के आगे पत रखने की मनौतियां माँगती आयी थी। कल को दुनिया क्या कहेगी, देवकी घरवाले को न संभाल पायी। जरूर कोई खोट रहा होगा जो वह साधु बनकर चल दिया।

बस अड्डे से अम्बरसर की बस निकल चुकी थी। देवकी पर जैसे आसमान फट पड़ा हो। टाँगें अशक्त लगने लगीं। लक्ष्य खो जाने की अनुभूति से उसमें कमजोरी का संचार होने लगा। जैसे-तैसे उड़ते सिर को काबू करके सड़क पर चली आयी।

भीड़-भाड़ के कारण गाड़ियों का जाम लगा हुआ था। बसों के कंडक्टर बाहर निकल कर गाड़ी के गन्तव्य स्थल का नाम पुकार रहे थे। अचानक सुनायी दिया- अम्बरसर-अम्बरसर।

आशा की मद्धम-सी किरण उद्दीप्त हो उठी। साइकल बिहारी को पकड़ा कर वह तेज़ी से बस के भीतर घुस गयी। मेले में खोए बालक-सा हताश चेहरा लिए घुन्ना ड्राईवर के पीछे वाली सीट पर बैठा था। तनावमुक्त होकर देवकी ने राहत की साँस खींची। तब आगे बढ़कर बाजू से थामकर उसे बाहर ले आयी।

घुन्ना ज़िद्दी और लाड़ले बच्चे की तरह बोला- “जाने दे मुझे।”

“पहले मुझे और अपने बूढ़े माँ-बाप को जहर दे दे, फिर जहाँ जी चाहे चले जाइए।”

“दूसरा ब्याह कराने के बजाए तू मुझे ही ज़हर क्यों नहीं दे देती?”

“औरतों वाली बातें न करें। दुनिया में जीना है तो मरद बनकर जिएँ। दुनिया को घर बसा कर दिखाने में बड़ाई है। भागने पर किसी चीज का इलाज नहीं होता, उल्टे माथे पर कालिख लगती है।”

“मैं तभी घर जाऊँगा, अगर तू बचन दे कि दुबारा ब्याह का नाम न लेगी।”

देवकी खिलखिलाने लगी।

“बैठिए साइकिल पर।”

साइकिल की डंडी पर घुन्ने को और कैरियर पर बिहारी को बिठाकर वह घर लौटने लगी। मजबूत पैर पैडलों को तेज़ गति से घुमा रहे थे।

सेहरा बांधे घुन्ना घोड़ी पर बैठा था। आगे बाजा बज रहा था। पीछे बारात थी। बारात में सब से आगे थी सजी-संवरी देवकी- घोड़ी के साथ-साथ डग बढ़ाती, दूल्हे पर चिल्लर की बौछारें करती। गाँव के बच्चे सिक्के लूट रहे थे।

इन पलों में, दुनिया में यदि कोई सब से ज्यादा खुश था तो वह थी देवकी। गाँव भर में धन्य-धन्य हो रहा था। “बिस्सोराम के कुल को तारने वाली लच्छमी।”

कोई कहता- “देवकी अन्नपूर्णा का रूप है। जब से इनके कुल में आयी इनके लहर-बहर होने लगे…..।”

पटाखे चलाती, ढोल के ताल पर नाचती बारात धातरेआल गाँव में पहुँची थी। ब्याह की रसमें होती रही थीं। देवकी द्वारा सौत के लिए बनायी बरी देखकर औरतों ने दांतों तले उँगली दबा ली थी। अपने तमाम गहने उसने नव-वधु को पहनाने के लिए लाए हुए थे। इस समय एक स्वाभाविक-सा गर्व उसके चेहरे पर खिल उठा था। संतोष की भावना से वंचित स्वाभिमान।

सहसा देवकी के कानों में भायं-भायं होने लगा। कानों के करीब ज़ोरदार पटाका चला हो जैसे। कुछ अजब-सा वातावरण बन गया था।

रात भी हंसी-ठटठे का तुर्क-कतुर्की उत्तर देने वाली देवकी सवेरे डोली विदा के समय उठ खड़े हुए बावेले से स्तंभित खड़ी रह गयी थी।

मंगतू की घरवाली कह रही थी- “डोली तभी उठेगी जब उस घर से देवकी का डोरी-डंडा उठेगा। अपनी बेटी को हम किसी की चाकरी करने नहीं भेजेंगे।”

एक हड़कम्प-सा मच गया था।

घुन्ना तो जैसे अचेत हो चला था। वह बच्चों की तरह फफकने लगा “अरी ओ भली-लोक! इस सारे स्यापे को यहीं छोड़ दे। चल, घर चली चल। मुझे बच्चे नहीं चाहिए।”

मन कठोर करके देवकी आगे बढ़ी– “मरद बनिए आप। रोने-चीखने से जग-हँसाई होती है।”

“मेरे रोने पर जग हँसता है तो भले ही हँसे। मुझसे मुँह पर झूठी हँसी नहीं लाई जाती।”

“मेरे लिए रो रहे हैं- मुझ पाँव की जूती के लिए?”

घुन्ना फूटकर रो दिया- “तू जूती नहीं, मन की रानी है…..।”

पसार में बैठी घुन्ने की नयी सास बोली- “यदि मन में पहले से एक रानी बिठा रखी है तो हमें क्या किसी हकीम ने बोला है कि अपनी नाजो रानी को नौकरानी बनने भेजें। अपनी मासूम बेटी को जान-बूझ कर कुएँ में धकेलें…..एक निपूती की गोली बनावें…..।”

खुशी के वातावरण में मातम घुल रहा था।

बारात के उत्साह को साँप सूंघ गया हो जैसे। तमाम लोग इस अनहोनी पर कानाफूसी कर रहे थे। किसी ने कुछ खाया न पिया। अनिर्णय में दोपहर बीतने लगी थी। तभी देवकी दिलेरी से उठकर मंगतू की घरवाली के पास चली आयी थी। दोनों में क्या कुछ तय हुआ- वह सब उदास वातावरण के बोझिल वातावरण की पृष्ठभूमि में खो गया। पर एकाएक एक विचित्र-सी बात हुई। कुछ ही देर में ढोल बज उठा।…..बाजा बजने लगा। डोली सजने लगी। वापसी की तैयारियां होने लगीं।

बारात में असमंजस की लहर दौड़ गयी। खुशी और गम दोनों एक साथ उनके चेहरे पर झलक उठे।

देवकी कह रही थी- “भाई, सारे लोग नाचते-गाते चलो। मेरे घरवाले की पटरानी अपने घर जा रही है…..।” लगता था शब्द नहीं, सूखे आँसू हैं।

“रोंदू चेहरे क्यों कर बना रखे हैं…..। सब गाओ-बजाओ।” फिर वह स्वयं गाने लगी-

“दो बहुओं के खस्म, देह पर लगाओ न भस्म।

राह अपनी तू मोड़, साधु बनने की जिद छोड़।।”

घर पहँचते ही गांव की बहु-बेटियाँ और वृद्धाएँ नव-वधु को देखने आने लगी थीं। मुंह-दिखायी के बाद बाहर आकर देवकी के गले लगतीं- “तुझे बहुत-बहुत बधाई है।”

“ये चाँद का टुकड़ा कहाँ से लाई है?”

“अरी बहिनी, यह तूने क्या किया? किस बूते पर तूने अपनी छाती पर मूंग दलने के लिए हीरा परी-सी सुन्दर सौत बिठा ली।” कोई वृद्धा कड़वी बात कह देती तो देवकी मुस्करा कर बात बदल देती- “दाल-भात खा लिए। न चाची। मुँह जूठा किए बिन मत जाना।”

शाम ढल आयी थी। गहमा-गहमी खत्म होने लगी थी। बैंड वाले जा चुके थे। अब गाँव वाले अपने-अपने घरों को जा रहे थे।

देवकी ने भीतर जाकर दीया जलाया। देवी-देवताओं के आगे माथा टेका। फिर नयी बहू के पास जाकर निर्लिप्त स्वर में बोली- “बहन, अब इस घर की मालकिन तू है। अपना घर होशियारी से संभालना। भगवान भला करे, तेरा घरवाला बड़ा सीधा मरद है। मन से तो बच्चा ही है। पास रहेगी तो सब समझ जाएगी। उसे पूरा प्यार देना। …..और यह ले घर की कुंजियां…..तेरी माँ से बोल किया था। अब जाती हूँ…..मैं।” चाभियों का छल्ला वधु की हथेली पर रखकर देवकी बाहर चली आयी थी।

घर के तनिक आगे बहती नहर की पुलिग पर पहुँच कर कुछ पल वह खड़ी रही। नीचे बहते पानी की कल-कल ध्वनि को अपने वजूद में समोती-सी। अंधेरे में खड़े-खड़े उसने आँवले के पेड़ के नीचे बैठे ससुर और फिर घरवाले को देखा। एक नज़र मकान की ओर देखा जिस पर कुछ रोज़ पहले उसने अपने हाथों से सफेदी की थी।

…..अचानक अन्तस् का ताप समोए दो आँसू आँखों से ढरक पड़े। धुंध लायी आँखों से उसने अँधेरे में लेटी लम्बी पगडंडी को देखा और फिर तेज़ डग भरती इस पर चल पड़ी।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’