राजीव गाँधी कैंसर हॉस्पीटल के परिसर में पहुँचते ही इन्दुबाला का दिल जोर धड़कने लगा था। यद्यपि वह स्वयं कैंसर की मरीज नहीं थी। अपने सुख-दुःख का सार चन्द्रकांता के लिए जा रही थी। तीन-चार दिन पहले ही तो डायग्नोज हुआ कि उसे बस्ट का है। होना भी कहाँ था? वह तो उसकी भाभी को एक दिन नहाते हुए अचानक आशंका हुई कि उसकी ब्रेस्ट में एक गाँठ सी है। उसके बताने पर चन्द्रकाता ही अपनी भाभी को डॉक्टर के पास लेकर गयी। डॉक्टर ने एग्जामिन करके बताया कि नाइण्टी परसेंट इस गाँठ में मिलिग्नसा नहीं है, यानि कैंसर की सम्भावना नहीं है, पर इसे ऑपरेट करना जरूरी है। फिर बायोप्सी के बाद ही हण्डरैड परसैंट कन्फर्म होगा कि कैंसर है या नहीं। साथ ही डॉक्टर ने यह चिन्ता भी जतायी कि आजकल महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर बहुत कॉमन हो गया है। चालीस की उम्र के बाद रेग्यूलरली हर साल मैमोग्राफी करवानी चाहिए, जिससे फर्स्ट स्टेज पर ही रोग पकड़ा जाए। यह कहकर उसने चन्द्रकान्ता को भी मैमोग्रैफी करवाने के लिए प्रेरित किया। चन्द्रकान्ता ने हँसते-हँसते मैमोग्राफी करवा ली। रिपोर्ट तीसरे दिन मिली। क्या इत्तफाक था। भाभी की रिपोर्ट नैगेटिव थी और चन्द्रकान्ता की पॉजिटिव।
चन्द्रकान्ता की भाभी का माइनर सा ऑपरेशन था सो कर दिया गया, पर चन्द्रकान्ता को अपोलो या राजीव गाँधी हॉस्पीटल जाने की सलाह दी गयी। सुनकर ही चन्द्रकान्ता के पैरों तले की जमीन निकल गयी थी। डॉक्टर के द्वारा फर्स्ट स्टेज बताने और बहुत सारा आश्वासन देने पर भी वह इन्दुबाला की गोद में सिर रखकर बच्चों की तरह फूट-फूट कर रो पड़ी थी। साठ की उम्र पार करने पर भी अचानक उसका हौसला पस्त हो गया था। इन्दुबाला को भी अकस्मात उस पर आये इस दुःख से बड़ा झटका लगा था। हाँ, अपनी मित्र का हौसला बढ़ाने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। एफ.एन.ए.सी. की रिपोर्ट से कैंसर कन्फर्म हो जाने के बाद चन्द्रकान्ता के बेटी और दामाद भी आ गये थे, बहू-बेटा तो साथ थे ही फिर भी ऑपरेशन से पहले के सारे टैस्ट होने तक इन्दुबाला लगातार उसके साथ हॉस्पीटल में ही रही। प्रायः सभी अच्छे हॉस्पीटल्स में प्राइवेट रूम मिलने में दिक्कत तो होती ही है, चन्द्रकान्ता का बेटा ज्ञानेन्द्र महाराजा अग्रसेन हॉस्पीटल में कॉडियोलोजिस्ट है। उसने किसी तरह मैनेज कर लिया था, शाम तक रूम मिल गया था। उसका सारा सामान एडजस्ट करने के बाद उसकी बेटी राधा वहीं रह गयी थी। रहना इन्दुबाला भी चाह रही थी पर पेशेंट के पलँग के अतिरिक्त एक व्यक्ति की ही वहाँ और जगह थी।
अगले दिन दोपहर बाद ढाई बजे ऑपरेशन का वक्त निश्चित किया गया था। पत्रकार के घर वालों के साथ इन्दुबाला अपनी सखी के पास पहुँच गयी थी। उसने देखा हंसने-खिलखिलाने वाली वह महिला चार दिन में ही पीली पड़ गयी थी। उसे देखकर यह साबित हो रहा था कि साँप का काटा आधी मौत तो इसी डर से मर जाता है कि उस साँप ने काटा है। ऑपरेशन थियेटर में ले जाने के लिए जब उसे स्ट्रेचर पर लिटाया गया तो उसने कसकर इन्दुबाला का हाथ पकड़ लिया और करुण दृष्टि से उसकी ओर देखा, इन्दुबाला उस दृष्टि का सामना नहीं कर सकी बस अपना दूसरा हाथ उसके हाथ पर रखकर स्ट्रेचर के साथ-साथ चलने लगी। ओ.टी. के निकट पहुँच जाने पर नर्स ने सबको बाहर जाने का संकेत किया। ऑपरेशन तीस मिनट से ज्यादा नहीं था, पर समस्त औपचारिकताएं पूरी करते-करते शाम हो गयी थी। तब तक पता करने आये सम्बन्धी और मित्रगण परिसर में ही घूमते रहे। उस रात पेशेंट को आई.सी.यू. में अण्डर ऑब्जरवेशन रखकर अगले दिन शाम पाँच बजे डिस्चार्ज करने का टाइम दे दिया गया था। कमरे की अलॉटमेंट समाप्त हो गयी थी। एक अटेंडेंट वेटिंग रूम में रह सकता था, जहाँ लेटने की जगह नहीं होती केवल इजी-चेयर पर अधलेटा रह सकता था। असुविधाजनक होते हुए भी यह जिम्मेदारी इन्दुबाला ने अपने ऊपर ले ली थी। उन सबको यह कहकर कि तुम लोग घर जाकर आराम से सो लोगे तो अच्छा है, कल फिर भाग-दौड़ रहेगी। घर के तीन-चार लोगों को दो दो मिनट के लिए चन्द्रकान्ता से मिलने दिया गया था। रात होने पर वे सब घर चले गये थे। सभी आश्वस्त थे क्योंकि डॉक्टर ने बता दिया था कि फर्स्ट स्टेज पर होने के कारण बिलकुल नॉमर्ल केस है, दूसरे कोई जरूरत हुई तो इन्दुबाला जी बहुत अच्छे से सम्भाल लेंगी।
वह वेटिंग रूम में जाकर अपनी चेयर पर अधलेटी हो साथ लाई मैग्जीन पढ़ने लगी थी। बिना कुछ पढ़े उसे नींद जो नहीं आती थी। दिसम्बर का महीना था पर हॉस्पीटल में टेम्प्रेचर ए.सी. से कंट्रोल होने के कारण ठण्ड नहीं थी फिर भी इन्दुबाला ने शॉल अपने घुटनों पर डाल लिया था। पढ़ते-पढ़ते उसे न जाने कब नींद आ गयी थी। सैल बजने पर ही उसकी आँख खुली। देखा तो सुबह के सात बजे थे। राधा का फोन था मम्मी और आंटी की तबियत पूछकर उसने बताया था कि एक घण्टे तक हम नाश्ता लेकर हॉस्पीटल पहुंच रहे हैं। उसने राधा को बता दिया था कि वह बिलकुल ठीक है और मम्मी से अभी नहीं मिल पाई क्योंकि आठ बजे के बाद ही आई.सी.यू. में जाने देंगे। जरूरत पड़ने पर ही पेशेंट के अटेंडेंट को बुलाते हैं। उसके अपने घर से कोई फोन नहीं था। रेणु तो अभी सो रही होगी, दिवा के स्कूल की छुट्टियाँ जो हैं। सिद्धार्थ ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहा होगा। पतिदेव ऑफिस के लिए निकल गये होंगे। वैसे भी सबको बता कर ही आयी थी वो कि शायद हॉस्पीटल में ही रुकना पड़ेगा।
अचानक इन्दुबाला ध्यान अपने कपर बकीनी सादर पर गया। अभए रखा, पास वाली चेयर पर बैठी तीसेक साल की लड़की चाय पी रही थी। बसपा “यह बातर किसकी हर” उधर सामने वाली पर एक अंकल भी राजकोट की तबियत खराब थी, आई.सी.यू. में बुला लिया था। जाते हुए चादर आपके पर तक गये थे शायद आपको जानते हो। लड़की के उत्तर से वह हतप्रभ थी। फिर भी पूछा- “उनके पेशेट का बैज नम्बर मालूम है।”
“हाँ, नर्स नौ नम्बर कह कर बुला रही थी।”
कुछ देर तक इन्दुबाला कॉरीडोर में घूमती रही और फिर इनवायरी कार की ओर बढ़ गयी। उसने कई बार नौ नम्बर बेड नौ नम्बर बैड कहकर कर पुकारने की कोशिश की, पर उसकी बात पर ध्यान न देकर क्लर्क दूसरे लोगों में ही उलझा रहा। तभी किसी ने धीमे स्वर में धीरे से कहा- “नौ नम्बर बेड के बारे में क्या जानना चाहती हैं आप?” शब्द बड़े सरल थे, पर इन शब्द पंखों ने मानसरोवर के शान्त जल को सहसा हिला दिया था। उसने पीछे मुड़कर देखा- सफेद बाल आँखों पर मोटे काँच का चश्मा, कुछ बढ़ी दादी, भूरे रंग के सूट में एक थका हारा सा व्यक्ति खड़ा था। अपने स्मृति-पटल को झकझोड़ते हुए इन्दुबाला अपने ही होठों में बुदबुदाई-
“आप? आपकी आवाज…?” “नहीं किसी से मिलती नहीं है, मैं रवि ही हूँ और तुम इन्दु हो, राइट?”
इन्दुबाला ने अपने आसपास नजर डाली और स्वयं को लोगों के झुण्ड से अलग करते हुए तीन-चार कदम पीछे हट गयी। उस व्यक्ति के कदम भी पीछे हटते देख वह और सिकुड़ गयी। जैसे वह बासठ वर्षीय वृद्ध महिला अचानक बीस-बाइस वर्षीय युवती में परिवर्तित हो गयी थी। कुछ सहज होने की कोशिश करते हुए उसने उस व्यक्ति से पूछा- पेशेंट कौन है?”
“तुम उसे देखना चाहोगी? वह तुम्हारे बारे में सब कुछ जानती है।”
“हाँ, पर अभी नहीं। मेरी एक फ्रेंड यहाँ एडमिट है, उसकी बेटी और दामाद अभी आने वाले हैं। बातें करते-करते वे बाहर परिसर में आ गए थे। एडवोकेट रवीन्द वर्मा उसी गहराई में उतर जाने वाली दृष्टि से इन्दुबाला को देखे जा रहा था जिस तरह चार दशक पहले देखा करता था स्थिति से उबरने के लिए वह पूछ बैठी थी- “मका बतानो, तुमने मुझे पहचाना से”
खूबसूरत इमारतें धूप, आंधी और बरसात से बदरंग बेशक हो जाएँ, पर अपनी मूल पहचान नहीं खोती और फिर मुहब्बत करने वाले की नजर बड़ी शातिर होती है। उसने मुस्करा कर कहा।
“और वह इनायत, शायद खुदा ने सिर्फ तुम्हें ही बख्शी है।”
“नहीं, मेरे सिवा और लोग भी हैं। लेकिन तुमने तो केवल त्याग और बलिदान को ही तरजीह दी।” उसके उत्तर में कड़वा सच था। बात फिर वहीं आ गयी थी। वह सोचने लगी थी कि उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी आदमी बुढ़ा क्यों नहीं होता? इस विचार को धकेलते हुए उसने फिर प्रश्न किया – “पेशेंट को किस टाइप का कैंसर है?”
होठों पर दर्दीली मुस्कान लाते हुए रवीन्द्र ने कहा- “मुददे से बच निकलना अब भी तुम्हारी आदत बनी हुई है। खैर, कैंसर उसे फूडपाइप में है। ऑपरेशन तीन महीने पहले हुआ था। एडवांस स्टेज थी। फूडपाइप रिमूव कर दी गयी थी और इंटेस्टाइन से एक खाद्यनली क्रियेट की गयी जिससे कुछ खाना-पीना शुरू हो गया था। कीमोथिरैपी आपरेशन से पहले भी की गयी थी और अब भी चल रही है। पर तबियत और खराब हो रही है क्योंकि कैंसर अंतड़ियों में भी फैल गया है।”
यह सब सुनने में ही इन्दुबाला को तकलीफ हो रही थी। फिर भी बात आगे सरकाते हुए उसने पूछा, “क्या पहले पता नहीं लग पाया?”
“यही तो बात है, कैंसर कभी अपनी सूचना नहीं देता। इत्तफाक से पकड़ा जाए तो पकड़ा जाए।” बच्चों के बारे में पूछने पर उसने बताया था “बेटा कवि और बेटी प्रज्ञा दोनों ही ऑस्ट्रेलिया में हैं। ऑपरेशन के वक्त आये थे दोनों। प्रज्ञा तो माँ को साथ ही ले जाना चाहती थी पर इस हालत में उसने बेटी के साथ जाना ठीक नहीं समझा।”
राधा, उसका पति, ज्ञानेन्द्र और उसकी पत्नी रेखा आ पहुँचे थे। इन्दुबाला ने रविन्द्र को अपना पुराना मित्र कहकर सबसे परिचय कराया था। उसे वहीं इंतजार करने के लिए कहकर वह राधा को साथ लेकर चन्द्रकान्ता के पास चली गयी थी। मुस्कराकर दोनों ने उसका हाल पूछा था। उत्तर फीकी मुस्कराहट में मिला था। चन्द्रकान्ता गत दिवस की अपेक्षा शान्त थी। जूनियर डॉक्टर ने आ कर दवाइयों का पर्चा थमा दिया था और सब हिदायतें दे दी थीं। सिस्टर ने टैम्प्रेचर और बी.पी. चैक कर लिया था। उन दोनों के बाहर आने पर ज्ञानेन्द्र और रेखा उससे मिलकर आये थे। सबने लॉन में बैठकर नाश्ता किया था। उसके बाद ज्ञानेन्द्र और राधा वगैरह दवाइयाँ लेने और डिस्चार्ज कराने की दूसरी औपचारिकाताओं में लग गये, इन्दुबाला रवीन्द्र के साथ उसकी पत्नी को देखने चली गयी।
रवीन्द्र की पत्नी को जैसा होना चाहिए था। वैसी ही थी- क्षीणकाया और निस्तेज सा। रवीन्द्र ने परिचय कराया था- “ये इन्दु हैं, यहाँ किसी पेशेंट के साथ आई थी। इत्तफाक से मिल गयीं।”
“चलो यह तो अच्छा हुआ, मेरे कारण इनकी जिंदगी दूभर हो गयी है।” स्वर हताशा और निराशा में डूबा हुआ था। इन्दुबाला ने उसे दिलासा देने की कोशिश करते हुए कहा था- “देखिए आप ऐसा क्यों सोचती हैं कई बीमारियाँ ऐसी हैं जो कैंसर से भी भयंकर हैं पर आजकल मैडीसन बहुत एडवांस हो गई है। नई तकनीक से बहुत कुछ कंट्रोल हो जाता है।”
“हो जाता है पर हद से गुजर जाने पर नहीं। इन्दु, मुझे मरने से डर नहीं लगता पर मैं हर दिन नहीं मरना चाहती।”
इन्दुबाला के पास इस बात का उत्तर नहीं था- “मैं फिर आऊँगी, आप हिम्मत रखिएगा।”
फिर इन्दु और रवि हास्पीटल के परिसर में बहुत देर तक बैठे रहे थे। दोनों ही अपने विगत जीवन का एक-एक पृष्ठ उलटते-पलटते रहे। अपने-अपने सुख-दुःख और संघर्ष की कहानी भी एक दूसरे से बाँटी। वैवाहिक जीवन से उलझते हुए बच्चों को पढ़ा लिखा कर सैटल करने तक का कथा-सारांश दोनों ने परस्पर समझ लिया था – दो मित्रों की तरह। हाँ वर्तमान तो कहानी का हिस्सा नहीं होता ना, इन्दुबाला का सैल बजा तो राधा ने बताया कि मम्मी को डिस्चार्ज मिल गया है, मैं और रेखा उन्हें लेकर बाहर आ रहे हैं। भैया और पंकज गाड़ी निकालने गये हैं। इन्दु और रवि ने अपने-अपने सैल में नम्बर फीड कर एक दूसरे से विदा ली।
चन्द्रकान्ता को घर ले जाकर उससे बहुत सारी बातें करने के बाद इन्दुबाला जब अपने घर पहुँची तो शाम हो चुकी थी। रेणु से हॉस्पीटल की सरसरी बातें बताई थीं। माथुर साहब को कहाँ दिलचस्पी रही है किसी बात में। बताओ न बताओ कोई फर्क नहीं पड़ता। खाना खाकर वह जल्दी ही बिस्तर पर लेट गयी थी। आदतन मैग्जीन हाथ में ले ली थी। अक्षर उसके सामने थे पर दिखाई नहीं दे रहे थे। दिखाई दे रहे थे वे पन्ने जो एक ओर से कैमिस्ट्री-फिजिक्स के फॉर्मूलों से भरे रहते और दूसरी ओर से ब्लैक होते जिन पर रवि द्वारा फिटकरी के पानी से लिखी मुहब्बत की इबारत होती और जिसे इन्दुबाला सबसे छिपकर प्रेस से गर्म करके या अंगीठी के जलते कोयलों से कुछ दूरी रखते हुए पढ़ा करती थी। फिटकरी के पानी से लिखी सूखी लकीरें आग के सम्पर्क में लाल हो जाती थीं। जितनी कवायद महबूब को मुहब्बत की चंद पंक्तियाँ महबूबा तक भेजने में करनी पड़ती थी उससे कही ज्यादा कवायद महबूबा को इजहारे मुहब्बत को पढ़ने में करनी पड़ती थी, पर उस कवायद में जो खुशी, जो जोश और जो सुकून था, उसकी इन्तहा नहीं थी। बहुत ही छोटे थे वे लम्हे। देखते ही देखते बुलबुलों से कहीं खो गये।
रवीना ने बीएससी करने के बाद एलएलबी में एडमीशन ले लिया था और इन्दु का बी.ए. फाइनल था। तभी इनके पिताजी ने अपने दोस्त का लेक्चरर बेटा हरेन्द्र माथुर उसके लिए योग्य वर के रूप में देख लिया था। इन्दुबाला तो सन्न रह गयी थी। रवि के गले से लगकर बहुत रोयीं थी। रवि ने उसका प्यार पाने के लिए अपनी जान देने की कसम खाई थी। उसने अपने किसी रिश्तेदार के माध्यम से इन्द्र के पिताजी के पास उसका हाथ मांगने का प्रस्ताव भी भिजवाया था पर उन्होंने उसे सिर से खारिज कर दिया था। यह कहकर कि कब तक वह लो करेगा और कब तक वकील बनकर दाल रोटी का बन्दोबस्त करेगा। फिर दूसरी जात में तो सवाल ही नहीं उठता। मां ने भी परिवार की मान मर्यादा व जाति बन्धन की दुहाई देकर आँखों में आंसू भर आँचल फैलाकर कहा था- “देख बेटी तुम दोनों के बीच कुछ हो भी तो उसे बिलकुल भूल जा नहीं तो हमेशा दुःख पायेगी। लड़कियों के लिए ब्याह शादी त्याग और बलिदान का ही दूसरा नाम है।”
इन्दु ने भी माँ के आंसुओं के सामने हथियार डाल दिये थे और उसी क्षण निश्चय कर लिया था शरतचन्द्र की नायिका की तरह बलिवेदी पर चढ़कर प्रेम करने और प्रेम पाने की इच्छा को हवन की अग्नि में समर्पित कर देने का। फिर उसने रवि के नाम एक आखरी खत लिखा था, फिटकरी के पानी से नहीं अपनी ही उँगली काट कर अपने खून से- “आज से मेरा मुझ पर कोई अधिकार नहीं रहा। यदि मेरे लिए तुम्हारे दिल में जरा सी भी जगह है तो आज के बाद न मुझे कोई खत लिखने की कोशिश करना और न मुझसे मिलने की।”
रवीन्द्र ने भी इस कसम को कभी नहीं तोड़ा और इन्दु ने त्याग की प्रतिमूर्ति बनकर हरेन्द्र माथुर के साथ अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे ले लिये। कर्तव्यों की सांकलों से बंधी जीवन की गाड़ी धीरे-धीरे खिसकने लगी। बी.एड. करके उसने एक स्कूल में जॉब भी कर ली। सिगरेट का शौक तो हरेन्द्र को पहले से ही था। धीरे-धीरे शराब का शौक भी उसकी जिव्हा चखने लगी। आधी-आधी रात तक दोस्तों के बीच शराब के दौर चलने लगे। पत्नी के द्वारा किये गये एतराज के कोई मायने नहीं थे, लिहाजा इन्दु ने अपना सारा ध्यान अपने दोनों बच्चों की परवरिश और उन्हें लिखाने-पढ़ाने में लगा दिया था। हां, पति के द्वारा अपने दोस्तों के बीच उसकी तारीफ में यह कसीदा जरूर पढ़ा जाता था; मेरे बीवी बच्चों ने हमेशा मेरे साथ को-ऑपरेशन किया है। यह कोई नहीं जानता कि यह को-ऑपरेशन एक पत्नी को कितना कमजोर और निरीह बना देता है। बस उसे इतना संतोष था कि उसने अपने दोनों बच्चों को काबिल बना दिया। बेटा सिद्धार्थ इंजीनियर बन गया और बेटी श्रद्धा डॉक्टर बन कर अपने पति के साथ कैनेडा चली गयी। माथुर साहब ने मंडली जाना तो छोड़ दिया था, पर रात होते ही व्हिस्की के तीन-चार पैग उनका साथ जरूर देते रहे।
ऑपरेशन के दिन से लेकर हर पन्द्रहवें दिन पर चन्द्रकान्ता को कीमोथिरैपी व रेडियोथिरैपी के लिए उसके साथ इन्दु को जाना ही होता था और वहाँ रवीन्द्र से मुलाकात हो ही जाती थी। एक बार उसने रवीन्द्र को चन्द्रकान्ता से मिलवाया भी था। उसने देखते ही इन्दु से कहा था- “अच्छा ये हैं तुम्हारे रवि।”
रवि ने भी मुस्कराकर चन्द्रकान्ता का हाल चाल पूछा था। चन्द्रकान्ता को इन्दु ने 12 महिलाओं से मिलवाया था या फोन पर बात करवाई थी जिन्हें बरसों पहले ब्रैस्ट कैंसर हो चुका था और अब वे बिलकुल ठीक-ठाक थीं। यह सब देखकर उसका आत्मविश्वास धीर-धीर लौट रहा था। लगभग छह महीनों में उसकी कीमोथिरैपी और रेडियोथिरैपी पूरी हो चुकी थी।
उधर रवीन्द्र की पत्नी की हालत दिन ब दिन खराब होती जा रही थी। महीने में पन्द्रह दिन उसे हॉस्पीटल में रहना पड़ता था। उसके प्लैटलेट लगातार डाऊन होते जा रहे थे और होमोग्लोबिन गिर रहा था। हर सप्ताह खून चढ़ाना पड़ता था। रवीन्द्र की बहन उसकी देख-रेख के लिए उसके साथ रह रही थी पर जाने वाले का साथ कोई कब तक दे सकता है। एक दिन रवीन्द्र ने इन्दु को फोन पर सूचना दी कि उसकी पत्नी उसे हमेशा के लिए छोड़ कर चली गयी है। इन्दु पटेल नगर स्थित उनके घर गयी थी। ऑस्ट्रेलिया से उसका बेटा-बहू, बेटी और दामाद आ गये थे और अन्य रिश्तेदार भी जुड़ गये थे। रवि बहुत असहाय लग रहा था। सब लोग उसे सान्त्वना दे रहे थे पर इन्दु को उसे दिलासा देने के लिए शब्द नहीं मिल पा रहे थे।
कुछ दिनों बाद इन्दु चन्द्रकान्ता से मिलने आई तो बड़ी खुश दिखाई दे रही थी। चन्द्रकान्ता के छोटे-छोटे घुघराले बालों को छू कर बोली- “देखा डॉक्टर बैनर्जी ने ठीक ही कहा था कि पाँच-छह: महीनों के लिए बाल झड़ने के सिवा तुम्हें और कुछ नहीं होगा और जब दोबारा बाल आयेंगे तो वे पहले से भी घने और खूबसूरत होंगे। अच्छी लग रही हो।”
“और तुम बहुत खुश लग रही हो।” हँसकर चन्द्रकान्ता बोली।
“हाँ, तुम्हें एक बात बतानी थी, …मैं रवि के साथ जा रही हूँ।”
“रवि के साथ कहाँ?” कहकर चन्द्रकान्ता के चेहरे पर आश्चर्य की लकीरें खिंच गयीं।
इन्दु ने बड़े आश्वस्त स्वर में उत्तर दिया- “कहाँ क्या, अब रवि के साथ रहने जा रही हूँ, उस घर को छोड़कर, जहाँ मैं चालीस साल से रह रही थी।”
“तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या? तू जानती भी है, तू क्या कह रही है?” चन्द्रकान्ता भड़क उठी थी।
इन्दु ने धीरे से चन्द्रकान्ता के होठों पर उगली रख दी और सवाल नहीं चन्द्रा। अब तक मैंने जो कुछ किया बिना इच्छा के, कर्तव्य मानकर। अब जो करने जा रहा हूं – इच्छा से। बची हुई जिंदगी अपनी तरह से जीने के लिए। श्रद्धा का गान का दिया है उसे कोई एतराज नहीं। सिद्धार्थ थोड़ा-सा अपसेट है कह दिन में रिकन्साइल कर ली। माथुर साहब की अब मुझे परवाह नहीं।” कहकर वह मुस्करा दी।
सचमुच ही चन्द्रकान्ता के पास अब कोई सवाल नहीं था।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
