भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
सुमन शनीचर और इतवार के दिन घर के काम में माँ का हाथ बटाती थी। घर के सारे काम जो बाहर जा कर करने पड़ते थे, उसी के जिम्मे थे। पशुओं के लिए चारा लाना, ईंधन बटोरना, चक्की पर आटा पिसवाना आदि वही देख लेती थी।
उस दिन भी कम्मो और राधा के साथ वह पास के जंगल में ईंधन बटोरने गई थी। जाते समय रास्ता फटाफट कट गया था, पर वापसी पर वही राह लम्बी और थकान भरी हो गई था। सिर पर लकड़ियों का भार जो उठा रखा था। लकड़ियों के गट्टे के नीचे सुमन की नाजुक गर्दन काँप-काँप जाती। वह गर्दन नीचे झुका कर ठीक से रास्ता भी न देख पाती थी। आपस में बात करना भी दूभर हो रहा था। साँस फूल रही थी उसकी इसलिए वह अपनी सहेलिरों के साथ कदम मिला कर नहीं चल पा रही थी।
लगातार पिछड़ रही थी। सिर भी भारी हो रहा था। हाथों में भी अकड़न महसूस हो रही थी। लग रहा था कि सिर का बोझ अब गिरा कि तब। उसने उन दोनों से कहा था कि वह चलें, वह धीरे-धीरे आएगी। उसकी तबियत ठीक नहीं। “ठीक है, आराम से आओ। पर ज़्यादा देर मत करना। शाम होने से पहले घर पहुँचना है।” यह कह कर राधा और कम्मो हंसती खेलती आगे बढ़ गई थी।
सुमन ने लकड़ी का गट्ठा नीचे रखा और सुस्ताने के लिए बैठ गई। वह सोचने लगी माँ तो ढेरों काम करती है। घर के भी और खेती के भी, वह कितना थकती होगी। बेचारी करे भी क्या? बापू तो टाँग से लाचार हैं पिंड काटते हुए कितनी ऊँचाई से गिरे थे वे। सब कहते थे कि बचेंगे नहीं। माँ की सेवा ने और दवा-दारु ने उन्हें बचा तो लिए था, पर उनकी टाँग चली गई थी। इसके बावजूद भी वे बहुत-सा काम कर लेते हैं, चाहे हल्का फुल्का ही सही। बढ़ई के छोटे-मोटे काम आज भी लोग उन्हीं से करवाना चाहते हैं। पर वे ज़्यादा कर नहीं पाते। खेत भी मज़दूरी पर उठा रखे हैं। थोड़ा बहुत माँ भी कर लेती है। पर जुताई का काम तो मज़दूरी पर ही करवाना पड़ता है। भाई छोटा है। उसके बस का कुछ नहीं अभी। बड़ी होने के नाते उसे ही कुछ करना चाहिए। उसने सोचा कल इतवार है। उसे स्कूल तो जाना नहीं। वह माँ को देर तक सोने देगी। एक दिन अच्छा सो लेगी तो उसे कुछ तो राहत मिलेगी। वह अपने इस विचार से खुश हुई।
उसने इधर-उधर देखा जंगल भरपूर खिला-खिला था। नीचे राधा और कम्मो बावड़ी पर हाथ-मुँह धो रही थीं। बीच-बीच में हंसते-हंसते एक-दूसरे पर पानी भी उछाल रही थीं। सुमन ने देखा पेड़ों पर शाम के साये उतरने लगे थे। उसे लगा उसे भी चलना चाहिए। धीरे-धीरे चलकर उसे घर पहुँचने में आधा-पौना घंटा तो लग ही जाएगा। उसने सिर पर कपडे का गोला रखा और लकडियाँ उठाईं। चलने को हुई ही थी कि तेज धार का काँटा रबड़ की चप्पल फाड़ कर पाँव की ऐड़ी में धंस गया। तीखी चुभन महसूस हुई। वह वहीं बैठ गई और दर्द दबा कर खींच कर काँटा निकालने लगी। बबूल का काँटा था, बाहर निकाला तो खून बह आया। तेज जलन महसूस होने लगी। सुमन ने सोचा- शाम हो रही है। उसे रुकना नहीं चाहिए, वह उठी और ऐडी उठाकर पंजे के बल चलने लगी। थकान तो पहले से ही थी और ऊपर से यह पीड़ा। उसकी चाल धीमी होना स्वाभाविक था। नीचे राधा और कम्मो उसे सचेत कर रही थी कि शाम हो रही है। घर पहुँचते देर हो सकती है और वह है भी अकेली। सुमन ने अपनी चाल बढ़ा दी, पर थोड़ी ही देर में हाँफने लगी थी। कदम आगे न बढ़ रहे थे। उसने एक बड़े से पत्थर के साथ पीठ टिका कर साँस लेनी चाही कि ऊपर से किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। वह सोचने लगी कि कौन हो सकता है? उसे कुछ समझ आता, इससे पहले ही दो मनचले उसके पास आ खड़े हुए। सुमन घबरा गई। वह लकड़ियों का गट्ठा सिर पर जमा कर आगे बढ़ने को हुई तो एक ने उसका रास्ता रोका और दूसरा सीटी बजाता हुआ उसके सामने आ गया। कहने लगा, “इतना भार काहे उठाती हो। लाओ नीचे रखो। तनिक बैठो हमारे पास। तुम्हें पहुँचा देंगे तुम्हारे घर। यह बोझ भी उठा लेंगे।” बात करते-करते वह उसके इतने निकट आ गया कि उसकी साँस सुमन को अपने चेहरे पर महसूस होने लगी। उसने उसे धक्का देकर पीछे हटाना चाहा तो वह जोर से हँसने लगा- “अरे हमें धक्का देती हो- हमें धकियाना तुम्हारे बस का नहीं।
यह लो तुम्हारी बाँह पकड़ते हैं, छुड़ा लो। रोने लगी थी सुमन। उसने राधा और कम्मो को पुकारना चाहा तो उस जालिम ने उसके मुँह पर अपनी हथेली लगा दी। सुमन ने ज़ोर लगाकर उसका हाथ हटाया। उसे काट खाया। चिढ़ कर उस लड़के ने उसे थप्पड़ मार दिया और दूसरे लड़के से कहा- “तुम नीचे वालिरों को देखो। मैं इसे सम्भालता हूँ। देखू कैसे बचती है आज यह मुझ से। साली ने दाँत गढ़ा दिए हाथ में, इसके साथ ही वह दोनों ऐसी शैतानी हँसी हँसे कि सारा जंगल दहल गया। सुमन थर्र-थर्र काँपने लगी। सहम सिकुड़ गई। दूसरा लड़का लगभग भागता हुआ नीचे उतरने लगा। पहले वाला जिसका नाम सुरेश था सुमन से उलझ गया। सुमन टाँग बाजू हिलाकर, यहाँ तक कि दांतों से काट कर भी अपनी रक्षा करने की कोशिश करने लगी। पर वह शैतान मालूम नहीं कितना ताकतवर था कि उसकी एक न चली। वह होश खोने तक रोती चिल्लाती और हाथ-पाँव चलाती रही। उसका रोदन सारे जंगल पर फैल गया। पशु-पक्षी भी विचलित हो उठे, पर नहीं पिघला तो उस वहशी का दिल। अपनी मर्दानगी को कलंकित कर और सुमन को जीने-मरने के बीच छोड़ वह नामुराद चला गया। उस राक्षस ने पल भर को भी न सोचा था कि जो अपराध उसने किया है, वह मानवीय व्यवहार में किस दर्जे का गुनाह है? जब तक होश रहा सुबकती रही सुमन। बीच में एक बार उठने की कोशिश की उसने, पर उठ न पाई। जब-जब उसे होश आता वह सोचती घर में कैसे बताएगी वह यह सब? माँ-बापू तो मर ही जाएंगे उसे इस दशा में देख कर। वह बार-बार भगवान से प्रार्थना करने लगी कि वह उसे मौत दे दें ताकि वह अपना काला मुँह किसी को न दिखाए। कई प्रश्न विषैले नाग बन कर उसके सामने फन फैलाकर खड़े थे। गाँव में लोग क्या सोचेंगे? वह स्कूल में क्या मुँह दिखाएगी? जैसे-जैसे वह सोचती उसे एक ही हल सूझता अपनी इस दशा से उबरने का। उसे मर ही जाना चाहिए। उसका बचपन इससे आगे कुछ सोच ही न पाता था। मरना ही एक हल था। पर मरना कैसे होगा? वह अब इसी पर ध्यान केन्द्रित करने लगी थी। उसे इस समय जंगल का अंधेरा डरा नहीं रहा था बल्कि सहला रहा था। गाँव में सबके सामने इस कलंक के साथ जाना, इससे तो कहीं अच्छा है कि कोई जंगली जानवर उसे खा जाए। अपने मरने का सोचकर उसके मन को राहत तो मिलती, पर डर भी लगता। क्या वह इसी दिन के लिए संसार में आई थी? वह तो पढ़ लिख कर कुछ ऊँचा करना चाहती थी। गाँव का गौरव बनना चाहती थी। यह क्या हो गया? क्यूँ किया उस भेड़िये ने मेरे साथ ऐसा? कई प्रश्न थे जो उसे छील रहे थे। उसके साथ क्या होने वाला है आगे? यही सोच-सोच कर सुबक रही थी वह कि उसे उस चट्टान जिस पर बैठी थी, के नीचे से कुछ आवाज़ सुनाई देने लगीं। शाम रात में ढल गई थी। उसके माँ-बापू और कुछ दूसरे रिश्तेदार उसे ढूंढ़ते हुए वहाँ आ पहुँचे थे। राधा और कम्मों ने बताया था कि सुमन रास्ते में रुक गई थी। वह उसका इन्तज़ार कर लौट आई थी क्योंकि अंधेरा होने वाला था।
माँ को देखकर सुमन बेहोश-सी हो गई थी। किशनी ने उसके चेहरे पर लैम्प का प्रकाश डाला तो सन्न रह गई। चेहरे पर नाखनों के जख्म. सखे आंसूओं के धाराओं के निशान, कटे फटे वस्त्र, बिखरे बाल और ज़ख्मी देह, सब कुछ, सब कुछ एक ही ओर इशारा कर रहा था कि यह कोई जंगली जानवर नहीं हो सकता।
सारे संसार की तमाम आँच आवाज़ में भर कर किशनी ने पूछा, “बता वह कौन था? मैं उसके टुकड़े कर दूंगी। उसकी छाती का लहू पी जाऊंगी।” उसकी आँखों से चिंगारियाँ फूट रही थीं। सुमन माँ के साथ लिपट कर रो रही थी। वह उसे सहारा देकर नीचे उतारने लगी। उसका पति अमरु सर झुका कर, हाथ में लालटेन झूलाता हुआ साथ था। बरकत और सोहन भी गहरी सोच में डूबे साथ चल रहे थे। सभी के सभी जैसे गहरे मातम में हों। सबके घर बेटियाँ थीं। सुमन ने माँ को बता दिया था कि यह पापी और कोई नहीं दद्दा जी का सुरेश था। सुनकर उसका चेहरा कड़ा हो गया था। दाँत जकड़ गए थे और मुट्ठियाँ भिंच गई थीं। किसी तरह भारी, पर तेज़ कदमों से चलकर वह गाँव तक आई और सुमन को बाहों में भर कर दद्दा जी के घर की ओर चल पड़ी। अमरु और सोहन ने एक साथ पूछा, “कहाँ जा रही हो?” हमें पहले घर चलना चाहिए। लड़की की हालत तो देखो।
“तुम जाओ घर। मुझे मत रोको। यह लड़की इसी दशा में जाएगी उस कपटी के सामने। उसके कपूत की करतूत बताने। आज न्याय होगा।” इतना कह कर वह दद्दा जी के घर के भीतर घुस गई। सुमन को भी घसीट कर भीतर किया और हाँक लगाई, “ओ दद्दा जी बाहर आओ, देखो कैसा सूरमा पैदा किया है तुमने। थू है तुम पर।” उसकी गर्जना सुनकर दद्दा जी दौड़े चले आए।
“क्या है री किशनी। इस असमय क्या गरज आन पड़ी”
“यह मेरी लड़की है। देखो इसे। ईंधन लेने गई थी दो छोरियाँ और भी थीं इसके साथ। यह पीछे छूट गई। इसे अकेली पाकर, तेरे सर्वनाशी कपूत ने इसके साथ ज़बरदस्ती की। इसे देख-अच्छे से देख। कहाँ छुपा रखा है कमीने को! आज मैं उसका खून कर दूंगी। मेरी फूल-सी बच्ची, इसके साथ ही माँ बेटी दोनों दहाड़ें मार कर रोने लगीं। किशनी छाती पीटने लगी।”
दद्दा जी ने भरपूर नज़र लड़की पर डाली। वे सब समझ गए। भीतर से काँप गए थे दद्दा जी किशनी के तेवर देखकर। पर बाहर उन्होंने सहज होकर पूछा था, “अरे फूल की कोंपल-सी नाजुक बच्ची।, किसने किया यह अत्याचार?” सुनकर जैसे आकाश से गिरी थी किशनी। दहाड़ कर बोली, “किसी और ने नहीं, तुम्हारे कपूत सुरेश ने किया है यह काँड। अब बनो मत। न्याय करो। न्याय…..।” इसे अपनी बेटी समझ कर देखो।
“पर तू कैसे जानती है कि उसी ने किया है…..कोई और भी हो सकता है। वह तो सुबह ही ननिहाल गाँव चला गया था।”
“यह छोरी इसी गाँव की है। सबको पहचानती है। पहले भी यह बदमाश दो बार ऐसा करके तुम्हारा नाम ऊँचा कर चुका है। और तुम भी याद करो अपने दिन…..। कौन-कौन से पाप नहीं किए तुमने।”
दद्दा जी किशनी की आँखों से फूटती क्रोध और नफरत की लपटों की ताब न ला सकते थे। मामला हाथ से निकल न जाए इसलिए उन्होंने अमरु और उसके साथियों से कहा- “यह क्या है अमरु? लुगाई को ले कर घर जाओ। लड़की का मामला है। बात फैल गई तो बेवजह बदनामी होगी। सुबह बैठ कर बात कर लेंगे।” तीनों पुरुष दद्दा जी से सहमत दिखे। किशनी को उनकी लाचारी और चुप्पी पर क्रोध से ज़्यादा आश्चर्य हो रहा था। सारे के सारे नामर्द लगे उसे। घर आ कर उसने रोती हुई लड़की को सुला दिया था। उसके ज़ख्मों को सहलाते हुए उसने कसम खाई थी कि वह इस पाप को चुपचाप न सहेगी। उसे इस रास्ते में आने वाली मुश्किलों का अंदाज़ा था, पर वह फैसला कर चुकी थी कि उसे कुछ तो करना है, किसी भी कीमत पर। गाँव में यह पहली घटना न थी। कोई कुछ नहीं कर पाया, क्या वह भी चुप रहेगी! नहीं, इस बार मिट जाएगी, उसके मन में कई तरह के प्रश्न उठते रहे। कई पुराने ज़ख्म खुलते रहे। नींद जैसे कोसों दूर चली गई थी। रोते-रोते किशनी सुबह का इन्तजार करने लगी थी। वह बार-बार नज़रों से सोती हुई सुमन को सहला रही थी जो थक कर चूर-चूर, टूटे बदन के साथ अधमरी नींद की आगोश में चली गई थी।
रात करीब बारह बजे द्वार पर आहट हुई थी। द्वार अमरु ने खोला था। दद्दा जी और सरपंच चुपचाप भीतर दाखिल हुए थे। अमरु सोहन को बुला लाया था। दद्दा जी ने अमरु के दोनों हाथ पकड़ कर कहा था- “छोरा बिन माँ का बच्चा है। लाड़-प्यार में बिगड़ गया है। तुम तो जानते ही हो। संस्कार देना तो माँ का काम होता है, वह तो रही नहीं; बिगड़ गया नालायक। जो हुआ, बुरा हुआ। अब तो लड़की को बदनामी से बचाना है। सारी उमर छोरी पर उंगलियाँ उठती रहेंगी। कुछ लेना-देना कर के बात रफा-दफा कर लो। समझाओ इसे।” उन्होंने किशनी की ओर इशारा करते हुए कहा था।
किशनी की क्रोधाग्नि में तो मानो दादा जी ने घी डाल दिया था। उसने आग उगलते हुए कहा था- “बेटी की लाज की कीमत लगा रहे हो दद्दा जी? और आप सरपंच जी…..आप के तो तीन-तीन बेटियाँ हैं। यह आपकी छोरी होती तो…..तो भी ऐसा सोचते? छी:?” सुमन के पिता की ओर देख कर उसने जोड़ा, “तुम्हारा तो क्या? तुम तो अपनी कमज़ोरी और लाचारी का ढोल पीटोगे और मुझे भी कमज़ोर करना चाहोगे। पर यह न होगा अब की। वह दद्दा जी की ओर मुड़ कर बोली थी- “अरे दद्दा तू तो है ही ऐसा। याद तो होगा तुझे? मेरी बहन मालू के साथ भी तूने ऐसा ही किया था।” दद्दा जी बगले झाँकने लगे थे। उनके होश उड़ गए थे। अब किशनी शेरनी बन गई थी। बोली- “मालू को बर्बाद कर तूने पागल जीवने से ब्याह दिया था। उस समय जिस बाल में तूने मेरे बापू को फसाया था, उसमें मैं अमरु को न फंसने दूंगी। आज सरपंच जी भी सुन लें। मालू उस समय गर्भ से थी। इसी सोच में उलझ गई कि उसके बच्चे को लोग कभी तुम्हारा नाम देंगे और कभी जीवने का। इसी बदनामी से बचने के लिए वह नदी में कूद गई और तुम बरी हो गए। पर सुन ले, अबकी तेरा पिंड ऐसे नहीं छूटने वाला। मैं रपट लिखवाऊंगी।” उसके मुँह से झाग निकल रही थी। देह काँप रही थी। आँखें धधक रही थी।
“अमरु समझा इसे। अरे हो गई गलती बच्चे से। अब क्या करें?” सुनकर बौरा गई थी किशनी। बोली थी- “अब डूब मरो ऐसा कपूत पैदा किया है तो डूब मरो…..।”
बात हाथ से निकलती देख सरपंच जी बोले- “किशनी तू रपट तो लिखा पर बता कोई सबूत है तेरे पास? कैसे साबित करेगी कि यह लड़का सुरेश ही था? कोई चश्मदीद है क्या?”
सुनकर आग लग गई थी उसके। यह तो उसे मालूम ही था कि सरपंच दद्दा का मुँहलगा है, पर ऐसी हल्की बात करेगा उसे विश्वास न था।
“ऐसे गुनाह क्या चश्मदीद और सबूत के सामने रख कर किए जाते हैं? यह देखना पुलिस का काम है। मैं न्याय की गुहार अवश्य लगाऊंगी।” सरपंच ने अमरु को इशारे से बाहर बुलाया था? उसे समझाया और बहकाया था, डराया और भरमाया भी। कहा था, “थाने में असर-रसूख वाले लोग केस उल्खा भी देते हैं। कह देंगे लड़की खुद ही खराब थी। उसी ने छोरे को बुलाया था। दूसरी लड़कियों से जान बूझ कर पीछे रह गई। फिर क्या करोगे? मैं कहता हूँ, हम दद्दा जी पर थोड़ा दबाव डालते हैं कि वह तुम्हारी छोरी को ब्याह लें। राज करेगी उनके घर में। वैसे भी वह गाँव की बाकि छोरियों से अलग है. सन्दर और होनहार।”
अमरु को अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था। स्थिति को समझने में उसे थोड़ा समय लगा था। पिता और पति होने का अधिकार उसके भीतर सिर उठाने लगा था। सरपंच जी ने लोहा गर्म देख कर हथौड़ा चलाया था, किशनी को समझा। औरत जात, आगा-पीछा कुछ नहीं देखती, बस एक ही रट…..। अरे तू पिता है उसका-पिता, वही चाहे जो उसके दिल में होगा। आगे बढ़ कर फैसला ले। हम तेरे साथ हैं।” अमरु को सरपंच पर भरोसा हो रहा था। उसने सोचा- “बुरा क्या है…..? लड़की चुपचाप अपने घर की हो जाएगी। मान-मर्यादा भी बची रहेगी। सरपंच तो कह रहे हैं कि दद्दा उसे पढ़ा-लिखा भी देंगे। फिर वे इलेक्शन भी लड़ रहे हैं इस बार। सोचो तो कितना बड़ा त्याग कर रहे हैं वह हमारे घर की लड़की को बहू बना कर।”
अमरु को खामोश देख कर उन्होंने फिर कहा- “अरे तुम्हारी लुगाई तो वैसे ही रणचण्डी बनी हुई है। औरत जात, ऊँच-नीच क्या समझे। फैसला तो तुम्हें करना चाहिए और वह सीधे से नहीं समझती तो दूसरा रास्ता भी है सामने।”
रात भर किशनी भाग्य को कोसती रही थी। कई बार उसने सोचा था कि छोरी होना अपराध क्यूँ है। कन्या पूजन करने वाले समाज में यह कैसा चलन है? छोरियों को पूजों भी और उनका जीना भी दूभर कर दो। दोनों कर्म एक साथ।
सो तो अमरु भी न रहा था। पिछले पहर उसने हिम्मत जुटा कर कहा था- “सुन भलीमानस जो हुआ सो अति बुरा हुआ, पर अगर बात बन रही है तो तू आड़े न आ। सरपंच जी कहते हैं बात दबा दो। दद्दा जी कहते हैं कि सुरेश से सुमन का ब्याह करवा देंगे। सोच अपनी सुमन खात-पीते घर जाएगी, इज़्ज़त मान पाएगी।”
“तू सठिया गया है सुमन के बापू। उस पापी के गले बाँधूगी मैं इसे। तुम्हारी तो मति ही मारी गई है।” उसने भरपर हिकारत से अमरु की ओर देखा था।
“अरी सोच के देख। क्या कभी कोई लड़की इस कलंक के साथ सर उठा कर जी सकती है? रमई की बाला, कुबेर की दम्मों और तुम्हारी अपनी बहन मालू…..कोई भी जी सकी इज़्ज़त से। मालू ने तो प्राण ही दे दिए। यह संसार बड़ा खोटा है। न्याय नहीं करना उनके बूते का नहीं। सब जानते हुए भी सच नहीं कहना चाहते लोग। अरी उम्र भर लोग उंगली उठाते रहेंगे उस पर।” अमरु रोने लगा था।
“लोग तो इतना भर ही कर सकते हैं न। मैं क्या यह सब जानती नहीं। पर चाहे जो भी हो, उस पापी के हाथ सुमन को न सौंपूगी। जिसने उसकी ज़िन्दगी में जहर घोल दिया, उसे जीते जी मार दिया…..उसे तो दण्ड मिलना चाहिए। तुम उसे बेटी देने की बात करते हो…..। भूखी-प्यासी किशनी थक गई थी। शब्द आधे-अधूरे निकल रहे थे उसके मुँह से। गला सूख रहा था।”
अमरु को सरपंच की पढ़ाई पट्टी याद आ गये। स्वर लंबा करके बोला “मैं सुमन का पिता हूँ। उसका भला इसी में है कि दद्दा जी अगर बिगड़ी बात बनाना चाहते हैं तो उसे मान लेना चाहिए। हामी भर दे। सुरेश के साथ ब्याह दे उसे।” तड़प गई थी यह सुनकर सुमन। उसने कमज़ोर आवाज़ में रोते-रोते कहा था- “बापू चाहो तो ज़हर दे दो, पर उस पापी से मत ब्याहो। मैं मर जाऊंगी-उसकी शकल न देखूँगी।”
किशनी ने उसे गले से लगा कर पुचकारा था- “तू घबरा मत मेरी चिड़िया मेरी सोनी, मेरे जीते जी यह न होगा।” तेरे बाप की मति मारी गई है। अमरु सर पीट कर रह गया था। सवेरे एक निश्चय के तहत किशनी बेटी को साथ लेकर थाने चली गई थी। उसने दारोगा को सारी बात बताई थी। वह ध्यान से सुनते रहे थे और फिर बोले थे– “तुम्हारी बात कैसे मान ली जाए। कोई सबूत? क्या पता कि लड़की खुद ही ऐसी हो कि यह सब हो गया। तुम लोग छोरियों को जंगल की ओर भेजते क्यूँ हो? वह भी शाम के समय? आपस में राजीनामा कर लो! कहो तो हम…..।”
“आप रपट लिखो साहब जी। मेरी बेटी से ज़बरदस्ती हुई है। दूसरे शब्दों में बलात्कार हुआ है। उसकी उमर तेरह बरस है। उसका जीवन बर्बाद हुआ है।”
“वही तो…..इसीलिए तो कह रहा हूँ। वैसे भी इस घटना का कोई चश्मदीद गवाह तो है नहीं….कि है?” यह सुनते ही किशनी के मानो आग लग गई। उसने दारोगा को आँखें तरेर कर देखा और कहा- “साहब जी कहीं आप भी तो दद्दा जी के रुतबे और पैसे की ताकत से डर तो नहीं रहे? या आपकी जेब पहले से ही गर्म की जा चुकी है?”
“क्या बकवास कर रही हो। यहाँ ऐसा नहीं होता।” आज से पहले उन्होंने किसी औरत को ऐसे निडर स्वर में बातें करते नहीं सुना था। समझ रहे थे कि स्थिति गम्भीर है।
“अपनी वर्दी की लाज रखो। यह आपकी बच्ची भी हो सकती थी। अगर उसके साथ ऐसा होता तो आप चश्मदीद ढूंढते। रपट लिखो नहीं लिखोगे तो तहसील के थाने में जाऊंगी। वहाँ सुनवाई न हुई तो उससे आगे जाऊंगी। मैं चुप नहीं बैलूंगी-सच कहती हूँ। गाँव में आए दिन यह सब हो रहा है। कोई तो न्याय की गहार लगाए।” उसका यह रूप देख सब हैरान थे। किसी की नहीं सुन रही थी, वहीं दारोगा को पसीना आ गया था। उसने किशनी की आँखों में एक अजीब-सी आग देख ली थी। मर मिटने का प्रण लेकर आई थी वह वहाँ इसलिए उसे टालना आसान न था। उसने उन्हें साफ शब्दों में याद भी दिलाया था कि ऐसी उनकी बेटी के साथ……। आगे वह सोच न पाए थे। दो-दो बेटियाँ थी उनकी। उन्होंने कड़क आवाज में मुंशी को हुक्म दिया था कि वह पीड़िता का ब्यान दर्ज करे।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
