भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
मम्मी-पापा आदाब!
मैं कल शाम बखैरियत यहाँ हॉस्टल पहुँच गया हूँ और आज सुबह आप लोगों को यह खत लिख रहा हूँ। मेरा सफर बहुत अच्छा कटा। मम्मी के दिए हुए पराठे मैंने रास्ते में खाए। सच, बहुत मजा आया, मगर हर निवाले पर मम्मी की याद आती रही। रास्ते में राजू बराबर मेरी हिम्मत बँधाता रहा। अगर वह मेरे साथ नहीं आता तो मेरा यह सफर अकेले में बहुत मुश्किल से कटता। इम्तिहानों के बाद यहाँ कल से पढ़ाई शुरू होने वाली है। मैं भी कल ही क्लास में बैलूंगा।
चलते वक्त पापा जो रुपए दे रहे थे, वह बहुत थोड़े थे। आखिर मेरे भी कुछ निजी खर्च हैं। पढ़ाई के अलावा भी मुझे कुछ, बल्कि कुछ क्यों कहूँ, मुझे बहुत कुछ रुपए दूसरे कामों में खर्च करने पड़ते हैं। एक तो कॉलेज का माहौल ही ऐसा है। फिर अपने स्टेटस को भी बनाए रखना है। आखिर यहाँ ज्यादातर तो दौलतमंद लोगों के बच्चे ही पढ़ते हैं। मेरी तफरीहात में हफ्ते में एक बार फिल्म देखने जाना. सैर सपाटा करना. पिकनिक मनाना वगैरह शामिल हैं। हॉस्टल के खाने को छोड़कर हफ्ते में दो बार होटल में खाना खाता हूँ। चार-पाँच साथी भी होते हैं, इसलिए बाहर अच्छा-खासा खर्च हो जाता है।
पापा आप तो यह चाहते हैं कि जैसे आपने सीधी-सादी जिंदगी गुजार दी, ऐसी ही बोर और बेमजा जिंदगी मैं भी गुजार दूं। मगर हम क्या करें। हमें तो आज के माहौल में जीना है, आज के हालात में रहना है और इसलिए हर हालत में रुपया दरकार है। वह जमाना तो गुजर गया, जिसमें आप रहते-सहते और जीते थे।
आपके दिए हुए रुपए मैं घर पर शोकेस की दराज में नीचेवाले खाने में रख आया था। आपने अपनी समझ से तो रुपए हिसाब से ही दिए थे। कॉलेज की फीस, हॉस्टल का बिल, किताबों-कॉपियों और ट्यूशन का खर्च आपने ठीक दिया था। लेकिन जैसा कि मैं अभी लिख चुका हूँ, कॉलेज के माहौल में रहते हुए मैं ऐसी सूखी-फीकी और सादा जिंदगी कैसे गुजार सकता हूँ? इसलिए आप दो माह के खर्च के लिए मुझे पच्चीस हजार रुपए जल्द से जल्द भेज दें। मैं यह बात आपसे घर पर भी कह सकता था, लेकिन वहाँ ना इसका मौका मिला और ना मैं यह सब आपसे कहने की हिम्मत कर सका। इसलिए खत का ही सहारा लेना पड़ रहा है। आप हैरान होंगे कि मैं इतनी मोटी रकम का मतालबा (माँग) क्यों कर रहा हूँ? लेकिन खुद मेरा ख्याल है कि यह मतालबा बहुत ही कम है। अगर मैं हिसाब करूँ, तो यह हिसाब लाखों में बैठेगा। इसलिए बावजूद मैं सिर्फ पच्चीस हजार रुपए का मतालबा ही रख रहा हूँ। अब आप यह पूछेगे कि लाखों रुपयों का हिसाब क्यों और कैसे बन गया, तो उसकी तफसील भी नीचे लिख देता हूँ-
- आपने पाँच साल की उम्र से लेकर पंद्रह साल की उम्र तक यानी 10 साल, जो मुझे बार-बार और बात-बेबात पीटा है, उसके जुर्माने के तौर पर मैं दस हजार रुपए का मतालबा करता हूँ।
- घर का सौदा-सलफ, गोश्त-सब्जी, मेहमानों की आव-भगत, छोटे-मोटे कामों के लिए बाजारों के चक्कर, हर हफ्ता आपकी साइकिल की धुलाई वगैरह पर मैंने जो मेहनत की उसके एवज में पाँच हजार रुपए का तालिब (माँगकर्ता) हूँ।
- अपने छोटे बहन-भाइयों को स्कूल पहुँचाने, उन्हें गोद में खिलाने, पार्कों में टहलाने, उनकी शरारतें सहने और उनकी खातिर आपकी डाँट, बल्कि मार खाने के लिए भी आपसे पाँच हजार का मतालबा करता हूँ।
- बाल्टियों से घर में पानी भरने, आपके जूते पालिश करने, बच्चों के कपड़े प्रेस करने और डाकखाने में आपके खत पोस्ट करने के लिए मैंने जो मेहनत की और अपनी टाँगें तोड़ीं और अपने खेल-कूद का वक्त उन कामों में सर्फ (व्यय) किया, इसलिए मेरे कम से कम आठ हजार बनते हैं।
- आपके पैर दबाने, आपके यार-दोस्तों के लिए दरवाजे पर कुर्सियाँ डालने का, हुक्का-पान और चाय के लिए बार-बार घर में आने-जाने में जो मेरी टाँगें दुखीं, उसका भी मुझे रुपया दरकार (अपेक्षित) है।
- बड़ी अप्पी ने जो एक बार बिल्ली के ईंट फेंक कर मारी थी और वह सीधी मेरे सिर में आ लगी थी और सिर से खून बहा था। फिर तीन टाँके लगे थे। इसलिए भी मुझे तीन हजार रुपए मिलने चाहिए।
- बड़ी अप्पी की मँगनी पर जो मैंने भाग-दौड़ की, अपनी बिसात भर मेहमानों का इस्तकबाल (स्वागत) किया, इंतजाम के सिलसिले में कभी टेंटवाले के पास गया और कभी बावर्ची के घर के चक्कर लगाए, खाना खिलाने के दौरान मेरे पैर पर जो पानी भरा जग गिर गया था और उस पर भी आपने मझे चमकारने के बजाय डाँटा ही था, तो उसके लिए भी आप से छः हजार लेकर रहूँगा।
- आपके और मम्मी के लिए पान वगैरह लाने की खातिर मुझे बार-बार मोहल्ले में पानवाले की दुकान पर जाना पड़ता था और दिल चाहे ना चाहे मैं यह काम करने के लिए मजबूर था, और अपने बहन-भाइयों की खातिर भी अकसर मुझे ही दुकानों और बाजार के धक्के खाने पड़ते थे, उसका भी ज्यादा से ज्यादा मुआवजा आप खुद ही तय कर दें।
- अपने बचपन में जब मैं आपसे जेब-खर्च के लिए रुपए माँगता था तो मुझे झिड़कियाँ ही खाने को मिलती थीं, उस वक्त मुझे जो जहनी कोफ्त (मानसिक पीड़ा) होती थी और अपने दोस्तों के सामने खाली जेब की वजह से जो शर्मिंदगी उठानी पड़ती थी, उसके लिए भी ज्यादा से ज्यादा रकम की माँग कतई तौर पर जायज (उचित) है।
अब आप जल्द से जल्द मुझे यह रकम दिलाने की जहमत (कष्ट) करें। अगर आप यह रकम नहीं भेजेंगे तो मुझे मजबूरन यहाँ अपने दोस्तों या दुकानदारों से रकम कर्ज लेनी पड़ेगी। इसलिए जल्द से जल्द रकम का इंतजाम करें।
आपका बेटा
……………………….
प्यारे बेटे खुश रहो,
तुम्हारा खत मिला उसे पढ़कर तुम्हारी मासूमियत पर हँसी आ गई, क्योंकि माँ-बाप अपने बच्चों से नाराज ही कब होते हैं? कितने भोले हो तुम, मेरे शहजादे! तुम्हारी मम्मी तुम्हें अलग से खत लिख रही हैं, या शायद वह लिख भी चुकी हों। उन्होंने तुम्हें क्या लिखा, यह मुझे पता नहीं। वैसे भी यह माँ-बेटे का मामला है, मोहब्बत भरा मामला, प्यार में डूबा हुआ, ममता से सराबोर और शफकत (कृपा) से लबरेज! मोहब्बत के रिश्ते और वह भी औलाद के मामले में आँसुओं के बेरंग लेकिन मुकद्दस (पवित्र) और कीमती पानी से धुले होते हैं, मेरे लाल!
तम्हारे मतालिबात (माँगों) के बारे में मैं क्या कहँ? तुमने जो ठीक समझा, वही लिखा। माँ-बाप पर अपनी औलाद का सबसे बड़ा हक उसके सिवा और क्या है कि वह उनको अच्छी तालीम और पाकीजा तरबियत (अच्छी शिक्षा-दीक्षा) दें और उनकी हर गलती को नजरअंदाज कर दें। तुम्हारे मतालबात (माँगें) तुम्हारी नजर में और अपनी जगह पर ठीक ही होंगे, लेकिन दुनिया का कायदा है कि इस हाथ दो और उस हाथ लो। इसलिए अगर तुम भी हमारे उन कामों का हिसाब हमें दे दो, जो हमने तुम्हारे लिए और सिर्फ तुम्हारी खातिर किए हैं, तो हम समझेंगे कि तुमने हमारा यानी अपने वालिदैन (माता-पिता) का हक अदा कर दिया- वह वालिदैन, वह बेलौस (निस्पृह) और बेहद मोहब्बत करने वाले, जो अपनी औलाद के लिए दुनिया में खुदा की अता करदा (दी हुई) सबसे बड़ी, सबसे अजीम (महान) और सबसे अच्छी नेमत है। हमें तुमसे मालो-दौलत की कोई तलब (अपेक्षा), नहीं तुम किसी आला मनसब (ऊँचा पद), अच्छे ओहदे पर पहुँच जाओ, बस यही हमारे ख्वाब हैं, शहजादे! जीती-जागती आँख के नादीदा (अदृष्ट) ख्वाब!
हमने तुम्हारे बचपन में बरसों तुम्हें अपने कंधों पर सवार कराकर घुमाया है। तुम्हारे पैर में ठोकर लगने पर उसकी टीस हमने अपने दिल में महसूस की है। हमारा तसव्वुर (कल्पना) हमें जाने कहाँ ले जा रहा है और हम उसी तसव्वर से यादों और वक्त और तुम्हारी उम्र के उस पार देख रहे हैं। यह तुम नन्हें-मुन्ने पाँव से अभी चलना सीख रहे हो और डगमगाकर चले जाते हो, गिर जाते हो, उस वक्त किसने तुम्हारा हाथ थामा है और नंगे-चुंगे चिकने फर्श पर फिसलकर गिरने से तुम्हारे मासूम और नरम व नाजुक पैर में चोट लग गई है। इधर तुम रो रहे हो लेकिन सिर्फ आवाज से, उधर हम लेकिन बे-आवाज कराहों से। हम दोनों की आँखों में आँसू हैं, लेकिन फर्क यह है कि तुम्हारी नन्हीं काजल लगी आँखों में भी हमारे ही आँसू हैं।
तुम्हें जरा-सी छींक क्या आ गई कि हम परेशान हो गए। रात को तुम्हें थपकते हैं। उठ-उठकर चादर या रजाई से तुम्हें ढाँकते हैं। तुम्हारी जरा-सी आवाज पर पानी या फीडर में दूध बनाकर देते हैं और सुबह होते ही डॉक्टरों के यहाँ चक्कर लगाते हैं और भरी दोपहर में जैसे-तैसे मेहनत-मजदूरी करके और कुछ रुपए जमा करके तुम्हारे लिए दवा का इंतजाम करते हैं और एक तुम हो कि दवा पीने में भी तुम्हारे नखरे हैं। हम तुम्हें किस-किस जतन से बहलाकर-फुसलाकर चुमकारकर दवा पिलाते हैं कि तुम अच्छे हो जाओ। इसलिए कि तुम हमारे दिल की धड़कन हो, इसलिए कि तुम हमारे जिगर का टुकड़ा हो, आरजू और हमारी दुआओं का मरकज (केंद्र) हो। तुम लैट्रिन में बैठे हो। मम्मी किचन में है। ज्यादा देर लैट्रिन में बैठकर तुम्हारे नन्हें-मन्ने नाजुक-से पाँव थक न जाएँ, यही सोचते हुए हम बाहर खड़े हैं और तुम्हें बार-बार आवाज देकर बहलाते हैं और फुसलाते हैं।
कभी हम तुम्हारा मुँह धुलाते हैं, कभी बालों में कंघी करते हैं, कभी तुम्हारे दाँत साफ करते हैं और तुम्हारी मम्मी के मसरूफ (व्यस्त) होने पर हम कभी तुम्हें नहला भी देते हैं। तुम्हारा झूठा, तुम्हारे मुँह का निकला हुआ निवाला भी हम उठाकर खाने से नहीं हिचकते, क्यों? क्योंकि तुम हमारे लख्ते-जिगर हो, हमारे जिगरपारे (जिगर का टुकड़ा) हो, हमारे दिल का सुकून हो, हमारे दिल का करार हो। तुम्हारी किलकारी से हमारा आँगन महकता है। तुम्हारी मुस्कराहट से हमारे दिल की कलियाँ खिल उठती हैं। हम तुम्हें उँगली पकड़कर चलना सिखाते हैं। तुम्हें वक्त पर स्कूल पहुँचाते हैं। तुम्हारी जिदें पूरी करते हैं। मेहनत-मजदूरी करके तुम्हारी उन फरमाइशों को भी पूरा करते हैं जो कतई हमारे बस में नहीं। तुम कभी गुब्बारेवाले को देखकर मचलते हो, कभी खिलौनेवाले को देखकर हमसे रूठते हो, मगर हम घर के दस खर्च रोककर तुम्हारी महँगी से महँगी फरमाइश पूरी करते हैं।
ईद आने पर हम पहले तुम्हारे कपड़े बनाते हैं। बल्कि पहले क्या? हम तो सिर्फ तुम्हारे ही कपड़े बनाते हैं और अपने लिए वही पुराने कपड़े धो-धुलाकर रख लेते हैं। तुम नए कपड़े देखकर निहाल हुए जाते हो। कभी उनको सिरहाने रखकर सोते हो, कभी रात को सोते से उठकर उन कपड़ों को देखते हो। तुम्हारी ईद की खुशी उन नए कपड़ों को पहनना है और हमारी खुशी तो तुम हो। तुम्हें हँसता-मुस्कराता देख लिया, बस यही तो हमारी ईद है, यही तो हमारी खुशी है, और यही तो हमारा त्यौहार है।
हम अपने काम-धंधे पर घर से बाहर कदम निकालते हैं कि तुम ढेरों फरमाइश कर डालते हो- ‘मेरे पापा, यह चीज लेकर आना!’ ‘पापा, बस वह खिलौना तो जरूर ले आना!’ और हम तुमसे वादा करके घर से निकलते हैं। अपने दिल को मारकर, अपनी चाय के पैसे बचाकर, नाश्ता आधा-अधूरा करके हम शाम को लौटे हैं तो तुम्हारी फरमाइश पूरी करते आए हैं और तुम्हें खुश देखकर अपने बदन का दर्द, अपनी दिन भर की थकान, अपनी सारी उलझन और परेशानी भूल बैठे हैं। तुम खुश हो, तो हम भी खुश हैं। तुम मुस्कराते हो और कलियाँ हमारे दिल में खिलती हैं। तुम रोते हो और चोट हमारे दिल पर लगती है। यह कैसा रिश्ता है, बेटे? यह कैसा ताल्लुक है, शहजादे? इसकी क्या कीमत है, मेरे लाल? अच्छा हाँ, तुम इसकी कीमत जानते हो? नहीं जानते ना? तो सुनो, अगर तुमने समझदार होकर माँ-बाप को ‘उफ’ भी कहा, उनकी बात पर ‘हुँह’ भी किया तो खुदा की बारगाह (ड्योढ़ी) में तुम्हारे सारे आमाल अकारत (व्यर्थ), तुम्हारी सारी नेकियाँ बर्बाद, तुम्हारी सारी बातें और रियाजतें ना-मकबूल (परिश्रम व्यर्थ होना), क्योंकि माँ-बाप की रजा (मर्जी) में अल्लाह की रजा है। माँ-बाप खुश, तो अल्लाह खुश। माँ-बाप खफा तो अल्लाह नाराज।
अब तुम ही बताओ हमारी मोहब्बतों का, हमारी हमदर्दियों का, हमारी शफकतों का तुम्हारे पास क्या सिला है? क्या बदला है? क्या कीमत है? क्या तुम माँ-बाप की मोहब्बत की कीमत को दौलत के बेजान तराजू में तोलते हो? क्या तुम हमारी ममता की कीमत दे सकते हो? नहीं, तुम ही नहीं बल्कि कोई भी इस ममता की कीमत अदा नहीं कर सकता। माँ-बाप की मोहब्बतों की कीमत दुनिया की कोई टकसाल, दुनिया का कोई बैंक, दुनिया का कोई खजाना अदा नहीं कर सकता। लेकिन अफसोस, इस बात का अंदाजा तुम्हें उस वक्त होगा, जब हम शायद इस दुनिया में नहीं होंगे और तुम खुद साहबे-औलाद होगे।
तुम घर से पढ़ाई करने गए हो। हमने किस-किस जतन से तुम्हें कॉलेज में दाखिल कराया है, यह बस हम ही जानते हैं या हमारा अल्लाह जानता है। तुम पढ़ाई में अपना दिल लगाओ। गलत और घटिया किरदार (चरित्र) के लड़कों से दूर रहो। तुम्हारे बगैर हमारा दिल घर में नहीं लगता। मगर हम चाहते हैं कि तुम पढ़-लिखकर एक बड़े आदमी बन जाओ। हम इसी उम्मीद पर तुम्हारी जुदाई का एक-एक दिन काटते हैं कि तुम आला तालीम से आरास्ता होकर (उच्च शिक्षा प्राप्त करके) घर लौटो और इस बोसीदा (जीर्ण) घर के दरो-दीवार तुम्हारी तालीम की रोशनी से जगमगाएँ।
तुम्हारे पापा
……………………….
प्यारे बेटे, दुआएँ और प्यार!
मेरे शहजादे, तुम्हारा खत मिल गया है और हमने उसे पढ़ लिया है। तुम्हारे पापा तुम्हें एक खत लिख चुके हैं और मैं तुम्हें अलग से लिख रही हूँ, ताकि हम अपने-अपने तौर पर तुम्हें समझा सकें। तुमने अपने खत में यह सब क्या लिख डाला है? तुम्हारे इन ख्यालों के पसपर्दा (पीछे) किसका गंदा और परागंदा जहन (उद्विग्न मानस) काम कर रहा है? तुमने अपने खत में जितनी बातें लिखी हैं, जितने मतालबात रखे हैं और जितनी रकम की फरमाइश की है, वह सब हमें कुबूल है, क्योंकि यह फरमाइश बहुत हकीर (तुच्छ) है और तुम हमारे लखते-जिगर हो, हमारे दिल का सुरूर और आँखों का नूर हो, इसलिए तुम जो कुछ भी कहोगे, वह हमें बुरा नहीं लगेगा। तुम्हें पता है जब कोई माँ गुस्से में होती है और जरा देर के लिए अपनी औलाद से खफा हो जाती है तो किसी वक्त औलाद को बरा भी कह देती है। लेकिन सिर्फ इस तरह- ‘अल्लाह करे तू मारा न जाए’, ‘अल्लाह करे तेरे ऊपर बुरा वक्त ना आए’। ज्यादा नहीं अगर हमारे सिर्फ चंद सवालों के जवाब दे दो तो हम तुम्हारे मतालबात से कहीं ज्यादा तुमको दे देंगे, बल्कि देने का सवाल ही कहाँ? आखिर यह सब कुछ तुम्हारा ही तो है। हमारा इस पर क्या हक बनता है। हमारी दौलत तो तुम हो और तुम्हें देखकर ही हम जीते हैं।
मेरे चांद, जरा अपनी गमजदा माँ को अपनी जुबान से ‘माँ’ कहकर देखो। बोलो क्या हुआ? अरे नहीं समझे मेरे भोले राजा? माँ एक ऐसा लफ्ज है कि जब तुम उसे अदा करते हो तो दोनों होंठ इस मुकद्दस लफ्ज को अदा करते हुए एक-दूसरे को चूम लेते हैं। जो माँ होती है ना? यह सरापा (सिर से पैर तक) मोहब्बत होती है उसका रोम-रोम ममता और चाहत में डूबा होता है। उसका जो जिस्म होता है ना, उसकी मिट्टी सिर्फ मोहब्बत और चाहत और ईसार (स्वार्थ रहित) और कुर्बानी के पानी से गूंथी जाती है। उसके जिस्म से जो महक फूटती है, उस पर हजारों-लाखों फूलों की महक कुर्बान की जा सकती है। अच्छा हाँ, तुम्हारे मतालबात तो अपनी जगह, जरा यह बताओ कि जब तुम नन्हें-मुन्ने-से थे सिर्फ ‘गूं-गाँ’ करते थे तो रात-दिन कौन तुम्हें अपने घुटने पर सुलाता था? कौन अपनी छाती से लगाए रखता था? कौन गर्मी में रात-रात भर बैठकर तुम्हें पंखा झला करता था? कभी तुम पेट-दर्द के मारे रोते थे। हम तुम्हें बहलाते थे। तुम्हारी खातिर अंधेरे, बारिश, पानी और सर्दी में कमरे से. बल्कि कभी घर से बाहर निकलने पर मजबर हो जाते थे। कभी तुम्हारे लिए हींग पीसकर लाते थे। कभी तुम्हारे पेट पर विक्स लगाते थे, और तरह-तरह से तुम्हें बहलाने की कोशिश करते थे। और तुम थे कि रोए जाते थे और तुम्हारे दर्द में हम दोनों, यानी मैं और तुम्हारे पापा बहुत बेचैनी से रात गुजारा करते थे। तुम जब रात को बिस्तर पर पेशाब कर दिया करते थे तो जाड़ों की ठिठुरती रातों में मैं खुद तुम्हारे गीले बिस्तर पर लेटकर तुम्हें सूखे में सुलाती थी। तुमने जब बैठना सीखा, जब चलना सीखा, जब बोलना सीखा तो तुम्हारी हर मासूम बात पर हम खुश हो जाया करते थे। तुम्हारी हर बात मजे ले-लेकर दूसरों को सुनाया करते थे। तुम्हारी जुबान से निकले हर लफ्ज को हम खुशी-खुशी घर भर को सुनाकर निहाल हुआ करते थे। तुमने कितनी बार घर के बर्तन तोड़े, कितनी बार जरूरी चीजें खराब, बल्कि बर्बाद की, हमने कौन-सा तुम्हें मारा? बताओ, कौन-सा तुम्हें डाँटा?
तुमने जब स्कूल जाना शुरू किया तो हमने अपने बहुत-से खर्च बंद किए। तुम्हारे लिए अच्छी पढ़ाई का बंदोबस्त किया। तुम्हें अच्छी और खुशहाल जिंदगी देने के लिए ऐसे काम भी किए, जो हमारे बस के न थे। तुम्हें स्कूल से आने में जरा-सी देर क्या हो जाती कि मेरा कलेजा शक (विदीर्ण) हो जाता। यह जानते हुए भी कि तुम चार घंटे में लौटकर आओगे, मैं बार-बार दरवाजे को झाँक आती थी। जरा-सी आहट पर चौंक जाती कि शायद तुम आ गए। साल के साल यानी ईद-बकरीद को भी हमने अपनी गुरबत (गरीबी) की वजह से बरसों अपने कपड़े नहीं बनाए और तुम्हारी खातिर बीड़ियाँ बटकर, मोहल्ले के घरों में दूसरों के झूठे बर्तन धोकर, सिलाई पर मोहल्ले की औरतों और बच्चों के कपड़े सीकर तुम्हारे कपड़े-जूती का इंतजाम किया और तुम जो ईद पर नए कपड़े और नए जूते देखकर खुश होते और चांद रात को सोते से बार-बार उठकर खुशी से अपने कपड़े देखते तो बस यही तो हमारी ईद थी कि तुमको हँसता-मुस्कराता देख लें।
तुम वहाँ हॉस्टल में कैसा खाना खाते हो? वहाँ कौन तुम्हारे नखरे उठाता होगा? कौन तुम्हें खाना गर्म करके खिलाता होगा? कौन तुम्हारी फरमाइशें पूरी करता होगा? हमारा तो यही सोच-सोचकर कलेजा मुँह को आता है कि वहाँ तो एक मुकर्रर वक्त पर तुम्हें खाने के लिए मजबूर होना पड़ता होगा। फिर खाओ या ना खाओ। यहाँ तो हम पहले बच्चों को खिलाने की फिक्र करते थे। पहले तुम्हें और तुम्हारे दूसरे भाई-बहनों को खिलाते थे और बाकी बच रहा तो हाँडी को पोंछ-पाँछकर बासी रोटी से हमने अपना पेट भर लिया और यह सब कुछ हमने कब तुमसे कहा? कब तुम्हें जताया? तुम्हें इस बारे में बताया? क्योंकि माँ-बाप अपनी औलाद पर एहसान नहीं रखा करते। तुम जानते हो कि हमारे हालात अब भी ऐसे न थे कि तुमको इतने बड़े कॉलेज में पढ़ाते। तुम्हें हॉस्टल में रहने के लिए कहते। मगर क्या करें, हमें तालीम की अहमियत मालूम है। इसलिए अपना पेट काटकर अपने खर्च रोककर अपनी जरूरतों को तर्क (त्याग) करके तुम्हारे कॉलेज जाने का बंदोबस्त किया, और दाखिला कराया। सुनो, तुम ऐसा करो कि हमारी खिदमत के सिले (प्रतिकार) में हमें कुछ ना दो। तुम सिर्फ हमारे उन आँसुओं की कीमत अदा कर दो, जो हमने तुम्हारी याद में, तुम्हारी जुदाई में, तुम्हारी बीमारी और परेशानी में अपनी आँख से बहाए हैं। उन आँसओं की कीमत हम तम्हें क्यों बताएँ? अब तुम खुद समझदार हो। कॉलेज में पढ़ते हो। हॉस्टल में रहते हो। अपनी उम्र के पंद्रह साल पूरे कर चुके हो। अब यह फैसला तुम खुद करो कि माँ की आँख से टपके हुए सिर्फ एक आँसू की कीमत क्या होती है और जो हजारों आँसू बहाए गए हों तब? अगर तुम यह समझते हो कि माँ की आँख के एक आँसू की कीमत को चुकाया जा सकता है तो ये आँसू लाखों-करोड़ों रुपयों बल्कि हजारों हीरे-जवाहरात से भी ज्यादा कीमती है। मेरे लाल, अब तुम खुद बताओ कि हजारों रुपए के तुम्हारे मतालबात वजनी हैं या हमारा सिर्फ एक आँसू और उसका मुआवजा।
तुम्हारी गमजदा माँ
……………………….
मम्मी-पापा, आदाब,
मुझे आप दोनों के ममता और चाहत और शफकत में डूबे हुए खत मिल गए। सच, मैं तो भूल ही गया था कि कुछ बल्कि बहुत कुछ हुकूक (अधिकार) आपके भी हैं, कुर्बानियाँ आपकी भी हैं। मैंने आपको जो खत लिखा था, वह एक लड़के की फरमाइश पर लिख डाला था। उसने मुझे बहका दिया था। लेकिन उस लड़के से मेरी दोस्ती सिर्फ एक माह रही। आपके खुतूत (पत्रों) ने मेरी आँखें खोल दी हैं। मैं अपने किए और लिखे पर निहायत शर्मिंदा हूँ और तोबा और माफी की इल्तिजा (विनय) के साथ यह वादा भी करता हूँ कि अब ऐसी फुजूल बातें लिखना तो दूर रहा, उनके बारे में सोचूँगा भी नहीं। हाँ, मैं यह भी बात बता दूं कि जिस लड़के ने मुझे यह बेहूदा मशवरा दिया था मैंने उससे दोस्ती छोड़ दी है, क्योंकि वह गंदी तहरीर (लेखन) उसकी बुरी सोहबत (संगति) का ही नतीजा थी। मैं आपकी तवक्कियात (आशाओं) को सच और ख्वाबों को पूरा कर दिखाऊँगा। दिन-रात सिर्फ पढ़ाई में दिल लगाऊँगा और इस कॉलेज में टॉप करके आपके और खानदान के नाम को रोशन कर दूंगा।
आपका फरमाबरदार (आज्ञाकारी) बेटा
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
