‘‘ आप ऐसा करो ना कि यह चाय, काॅफी वगैरह ज्यादा पियो।‘‘ बातों के सिलसिले में एकाएक रूपा ने मुझे सुझाव दिया। मेरी ये सहेलियाॅं मेरे मन की बैचेनी को मुझसे ज्यादा पढ़ने लगी है। उसके बाद तो जैसे सलाह मशविरे के सीक्वल ही शुरू हो गये। लतिका बोली, ‘‘आप बहुत उदास हो तो आज रात वाला शो देखें, बहुत अच्छी फिल्म है गाने तो एक महीने से ही एफएम में सुपरहिट हो गये हैं। फिर सब विदा लेते हुए बोली ‘‘आप आजकल थोड़े हलके रंग के गाउन पहना करो। वो था ना वो वाला आपका आॅफवाइट वो बहुत अच्छा है” आप कूल-कूल रहेंगे।”
उफ! बहर ही बाहर चेहरे पर चेहरा मढ़कर मैंने उनकी बाय-बाय का जवाब भी वैसा ही दिया और धीरे धीरे वापस बरामदे में आकर बैठ गयी। अब क्या कहती इन रात-दिन की सहेलियों से। उम्र के पचास जन्मदिन पूरे किये पर कुछ बातें अब तक मन में ही कहीं दबी-छिपी सी हैं।
पिछले पांच-सात दिनों से एक करीब पैंतीस साल पुरानी घटना ने मुझे बैचेन कर रखा था। उफ! पिछले हफ्ते उस सब्जी बाजार में मुझे वो ऐसे मिलेगा कहाॅं सोचा था मैंने?
एक शुक्रिया मेरे हृदय में कहीं खटकता सा रहा था शायद यही मेरे अविवाहित रहने का कारण भी बन गया था। उन दिनों में दसवीं में गणित विषय को लेकर बहुत परेशान थी। गांव का वातावरण, वैसे भी किसान परिवार को कहां पड़ी रहती है कि ये भी जानने की कोशिश करें आखिर उनके बेटे बेटियाॅं स्कूल में क्या कर रहे हैं। क्या नहीं? उन्हें तो सबसे पहले माटी, फिर बीज फिर बैल और मानसून बस। इसी चक्कर को सुलझाते सुलझाते सावन, भादों बसन्त सब पूरे हो जाते हैं।
खैर! डसको बहुत बार तंग किया था कि जरा ये प्रश्नावली हल करके बताना, तो रेखागणित वाली समस्या सुलझ नहीं रहीं ये बीजगणित का फलाॅं फलाॅं फार्मूला क्या होगा जैसे वैसे उस विष्णुप्रसाद की मदद से मैंने दसवीं की परीक्षा पास की थी। फिर ग्यारवीं कक्षा से काॅलेज तक मैंने बस बालिका उच्च माध्यमिक और बालिका महाविद्यालय नौकरी में भी कन्या विद्यालय से ही वास्ता रखा। ये खुद हुआ या फिर मेरे कम्फर्ट जोन में आता था। अब यह राज तो भगवान जाने वैसे भी मैंने ग्यारह वर्ष पहले ही रिटायरमेन्ट भी ले लिया था। लक्ष्मी की अपार कृपा थी इसलिए चैबीस घण्टे में अठारह घण्टे समाज सेवा के लिए देने का संकल्प लिया।
झुग्गी के बच्चों को हर वर्ष दसवीं की परीक्षा के लिए एकदम निःशुल्क तैयारी कराना वहाॅं की महिलाओं को नशे के कारोबार से बचाने के लिए डेयरी का काम शुरू करवाया था हमारे स्वयं सहायता समूह ने। उफ्! बड़ा अच्छा चल रहा था। सुबह से रात कब होती पता ही नहीं लगता था पर पिछले कुछ दिनों से यह कांटा सा। सा विष्णुप्रसाद, उफ! वे एक शुक्रिया भी बचा था, उसे भी ब्याजसहित पूरी विनम्रता से चुकाना था। यह हिसाब भी तो बचा था, उसे भी ब्याजसहित पूरी विनम्रता से चुकाना था। वो एक हवा का झोंका था जिसे एक न एक दिन मुझे छूकर अपनी याद दिलाना ही था। वो था भी कमाल। अभी तक इतना एनर्जेटिक, एकदम पहचान गया, नाम से पुकार लिया। अब मेरा व्यक्तित्व यहाॅं कुछ ऐसा गंभीर किस्म का सा हो चला था कि हंसी मजाक की हिम्मत मेरी थी नहीं इसलिए उसकी खुशनुमा बातों पर बस हाॅं हूँ करके मैं सीधी वापस लौट आयी। बस परवल, शिमला मिर्च और खीरा लेकर, राशन लिया ही नहीं। इतनी खुशनुमा खुराक आज के लिए काफी थी। एक साथ इतनी खुशी मुझे इस उम्र में पच भी नहीं पाती। क्या पता वो राशन वाले स्टोर में भी आ टकराता फिर क्या होता मेरा?
आज फिल्म देखना मुश्किल है। काश! शो केंसिल हो जाये। ये सहेलियाॅं भी….. उफ! रात तक आरामदायक स्थिति में आना मुश्किल था। तब तो जरा भी शर्मिन्दगी नहीं हुई । खुद को बचाना जो था। उसने तो उस समय कोई शिकवा-शिकायत भी नहीं किया। वो लम्हा उस कष्ट की घड़ी में किसी जरूरी ग्लूकोज के इंजेक्शन जैसा ही था। खुद को पूरा का पूरा सौंप दिया था। कैसी पीली-नीली शक्ल थी। मेरी। न जाने क्या होने वाला था। अब अगर कल या परसों वो मिला तो सबसे पहले उस घटना का जिक्र करके एक मीठा सा शुक्रिया जरूर करूंगी। आज न जाने क्यों उस पल को याद करके बड़ा अटपटा सा लग रहा है जबकि उस वक्त जो हुआ सो हुआ फिर जीवन चलायामान होता रहा पर न उसका कोई मकसद, फिर यों….बातें। क्या उसे भी याद होंगी…। या भूल -भाल गया होगा उस शाम उस कार से उतरे वो खतरनाक लम्बे चौड़े गुण्डेनुमा शरारती युवक बस लपक कर हमला सा करने ही वाले थे। मैं अकेली ठिठक गयी, किसी किसी अवतार की तरह अपनी लूना में चला आया ये विष्णुप्रसाद और मैंने भी बगैर कुछ सोचे समझे उसकी कलाई पकड़कर चलती स्कूटी में उसे करीब करीब गिरा ही दिया था। फिर-फिर कस कर उसे थामे उस लूना में बैठकर मैंने कहा था ‘‘जल्दी चलो, चलो यहां से।”
तब विष्णुप्रसाद को शायद कोई दैवीय आभास सा हो चला। वह भी एकदम सहज होकर तेजी से अपनी लूना को इतना तेजी से चलाता गया कि आगे करीब एक किलोमीटर का रास्ता मुश्किल से तीन-चार मिनट में ही तय हो गया। अब थोड़ी जनता बसावट दिखने लगी थी इसलिए मैंने लूना से उतरकर चट से कुछ बोले सुने बगैर बस स्टाॅप का रूख किया। वो भी बेचारा कुछ बोले बगैर आगे चला गया। शायद उसे कोई काम था। उन दिनों दसवीं की परीक्षा के बाद हम सब का अवकाश चल रहा था फिर न वो दिखा न मैंने मिलना चाहा। उसका और मेरा रास्ता एकदम अलग हो गया था।
बड़ा विलक्षण अनुभव हो रहा था। आज वो यादें अपनी इतनी परतों के साथ ऐसी लगती थीं मानों एक पंक्ति पर कोई ग्रन्थ लिख दिया गया हो। खैर! काॅफी का कप सिंक पर रखकर मैंने वो आफ वाइट गाउन वार्डरोब से निकाला, मूवी के टिकट आज नहीं कल के मिले। बढ़िया तकिये से सर टिकाये ऐसा कुछ अजीब लग रहा था कहीं सिनेमाहाॅल में मुलाकात फिर हुई तो वहीं पर …..शुक्रिया तो कहना ही है।
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