‘‘आपका इस कोने में बैठे-बैठे सारा दिन कैसे निकलता है मां” पुजारी जी ने मन्दिर का थोड़ा सा प्रसाद एक बूढ़ी व बीमार भिखारिन को देते हुए पूछा।

उसने प्रसाद हाथ में ले लिया और थोड़ा रूक कर भर्राये गले से कहा, फिर कहां जाऊं पुजारी जी। आप ही बताएं?”

‘‘नहीं नहीं। मैं तो इसलिए पूछ रहा था कि आप कभी भी भीख मांगती नहीं, बस चुपचाप आसन पर बैठी रहती हैं और ठीक पांच बजे वापस लौट जाती हैं।”

सुनकर वृद्धा की रूलाई फूट पड़ी। सिसकते हुए उसने बताया कि इस महानगर में लोग अजनबी पर ही नहीं, अपनों पर भी अविश्वास करते हैं। मेरे बेटे -बहू सुबह नौ बजे अपने फ्लैट में ताला लगा कर मुझे भी घर से बाहर कर देते हैं। फिर शाम को उनके वापस आने तक का समय मुझे यहीं मंदिर के कोने में गुजारना पड़ता है। और ऐसी कौन सी जगह होगी पुजारी जी जहां प्रसाद-पानी और साथ में थोड़ी सहानुभूति भी मुफ्त में मिल जाती हो?”

अपनी बात पूरी करके वृद्धा ने आंचल से आंसू पौंछ लिये। सुनकर पुजारी जी की आंखें भी नम हो गयीं। वे भले ही कालोनी में बड़े ही सम्मानित वृद्ध थे, पर उनके घर में उनसे भी यही उम्मीद की जाती थी कि वे ज्यादातर अपनी शक्ल बाहर वालों को दिखाएं और धर्मशाला की भांति सिर्फ रात्रि-शयन के लिए घर पर आएं। पुजारी जी उस वृद्धा को सान्त्वना देकर वापस मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ ही रहे थे कि किसी प्रभु भक्त के मोबाइल की रिंगटोन बज उठी, ‘‘नानक दुखिया सब संसार”।