विजयभान सिंह ने भी राधा से मिलना बंद कर दिया था। समय के साथ मेल करके वह उसे दूर ही से देख लिया करते थे। उन्होंने ख़ामोशी धारण कर ली, निराशा ने मन के अंदर एक ध्येय बना दिया‒इस जीवन-भर इसी प्रकार राधा की सहायता करते रहे‒कमल का भविष्य उज्ज्वल बनाते रहे, अब यही उनकी तपस्या रह गई थी‒ऐसी तपस्या जिसका फल अब अगले जन्म में ही पाने की आशा की जा सकती थी, जिस प्रकार मनुष्य कभी-कभी एक अपराध या पाप में इस प्रकार उलझता है कि फिर अपराध या पाप करने की धुन ही बना लेता है, उसी प्रकार कभी-कभी मनुष्य पुण्य कमाने में इस प्रकार उलझता है कि पुण्य करते रहने की उसकी एक धुन बन जाती है। फिर वह इसके पीछे कोई फल या परिणाम नहीं देखता या सोचता। राजा विजयभान सिंह का भी अब यही हाल था, अपने प्यार के पीछे किसी परिणाम को न देखते हुए राधा और अपने बेटे के लिए अब सब कुछ कर देना चाहते थे, जो उनके वश में था। अपने जीवन, अपने प्यार, अपनी प्रसन्नताओं से वह पूर्णतया निराश हो चुके थे और इसलिए निरंतर छाई रहने वाली निराशा ने उनका फूल-सा मुखड़ा कांटा बना दिया। आंखें अंदर को धंस गईं और चारों ओर गड्ढे पड़ गए, शरीर निर्बल हो गया, समय से पहले ही बालों पर सफ़ेदी छा गई। कई-कई दिन वे शेव नहीं करते, बाल कंधे पर झूलने लगते, तब भी उन्हें अपनी परवाह नहीं होती, राधा की ख़ुशी, अपने बच्चे के भविष्य के लिए उन्होंने ख़ूब दौलत लुटाई‒ख़ूब खर्च किया
‒और इस प्रकार पूरे बाईस वर्ष बीत गए। ……….
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इन बाईस वर्षों में उन्होंने अपने जीवन का बहुत कुछ खो दिया… बल्कि सभी कुछ। कुछ भी तो नहीं बचा उनके पास… स्वास्थ्य, धन-दौलत, न जायदाद। इन बाईस वर्षों में प्रताप सिंह का उनकी सेवा करते-करते स्वर्गवास हो गया, दस वर्ष पहले जब वह सख्त बीमार हुआ था तो उन्होंने उसे उसकी बहन रूपा के पास भेज दिया था, फिर कुछ दिन बाद उन्हें ख़बर मिली थी कि उसके ऊपर पानी के समान रुपया बहाने के पश्चात् भी वह नहीं बचा। निरंतर शराब पीते रहने से उसे क्रॉनिक हो गया था। फिर धीरे-धीरे रूपा अपने घरेलू संसार में इस प्रकार व्यस्त हो गई थी कि उसने उन्हें पत्र लिखना भी छोड़ दिया। वैसे भी उन्होंने प्रताप सिंह के बिछुड़ने के बाद उसे कभी पत्र नहीं लिखा था। अपने ही दर्द में वह इस प्रकार डूबे रहते कि सिवाय राधा के उन्हें कुछ सूझता नहीं था। इन बाईस वर्षों में उनके सारे मित्र बिछुड़ गए…दौलत का एक बड़ा भाग लुट गया। ज़मीन-जायदाद, दूसरे शहर की कोठियां, यहां तक कि अंगुलियों के नगीने, अंगूठियां तक बिक गईं। केवल एक चांदी की अंगूठी बच रही थी, जिस पर ‘राधा’ लिखा हुआ था और जिसे सदा ही वह अपने बाएं हाथ की छोटी अंगुली में पहने रहते थे। नौकर-चाकर स्वयं धीरे-धीरे उन्हें छोड़कर चले गए। यही नहीं लगभग आठ वर्ष पहले एक बहुत बड़ी बाढ़ आई तो रामगढ़ का पूरा इलाका ही खाली हो गया था। कुछ लोगों ने दुबारा आकर इसे बसाना चाहा, परंतु दूसरे वर्ष भी ऐसी ही बाढ़ आई और फिर तीसरे वर्ष भी, तो लोगों को इस ओर आते हुए भी भय लगने लगा था। इस बाढ़ में गांव-के-गांव साफ़ हो गए थे। पक्के मकान भी बह गए थे। केवल बिजली के खंभे ही रह गए थे। झूलते तारों को गरीबों ने लूट लिया था। पूरा गांव इस प्रकार उजाड़ था मानो इस इलाके को किसी की आह लग गई हो।
ले-देकर उनके पास यही एक हवेली‒राजमहल बचा हुआ था, लेकिन वर्षों से इसकी भी दीवारें सूनी थीं। बाहरी भाग पर निरंतर वर्षा और धूप लगने के कारण काई जम गई थी। जहां दरारें थीं, वहां घास उग आई थी। जहां कहीं सीमेंट टूट गई थी, वहां ईंटें झांक रही थीं। कुछ बरसों पहले उन्होंने अपने सारे कीमती फर्नीचर सामने के बड़े हॉल में बंद करके ताला लगा दिया था। समय बिताने के लिए वह अंदर चुपचाप रंगमहल में जाकर बैठ जाते। बड़े-बड़े शीशे उसी प्रकार दीवारों में चुने हुए थे। जब मोमबत्ती जलाते तो इनकी चमक में मेज़ पर गर्द में सनी मूर्तियां जैसे अपने आप ही थिरक उठतीं। इनकी जुबानें चलने लगतीं तो उनके कान फटने लगते। ऐसा लगता जैसे एक-एक मूर्ति अपने जीवन का हिसाब उनसे मांग रही है‒और उनका हिसाब चुकाते-चुकाते वह थक गए हैं। फिर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनकी ख़ामोशी से वह बातें करते…घंटों सोचते रहते, यहां तक कि शमा बुझ जाती, अंधकार घना हो जाता, फिर भी उनकी बातें समाप्त नहीं होतीं, जैसे राधा को कहानी सुनाकर इन मूर्तियों को संतुष्ट करना चाहते थे।
शाम के समय जब अंधकार घना होने लगता, जब चांदनी रात होने का कोई संदेह नहीं रहता तो वह अपने राजमहल के पिछले भाग में जाकर पत्थर की एक बेंच पर बैठ जाते। जहां कभी फूल महका करते थे, इत्र में डूबा निर्मल जल स्थिर रहा करता था और जिसकी दीवारों को संसार की सुंदर लड़कियों के नग्न शरीर का स्पर्श प्राप्त रहता था, आज वहां कुछ भी नहीं था, कुछ भी नहीं। टैंक की दीवारों का प्लास्टर टूट चुका था। वहां पिछली बरसात का छिछला पानी सड़ता रहता। तालाब की दरारों में कीड़े-मकोड़े होते। रात में जब मेंढकों की टर्र-टर्र होती तो दूर-दूर तक का वातावरण और भी भयानक हो जाता। गर्मी में इसी तालाब में आसपास के वृक्षों से उड़कर आए सूखे पत्ते होते, जहां यदि कोई कीड़ा करवट भी लेता तो उसकी आवाज़ उनके कानों तक खड़खड़ा जाती।
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वह राजमहल के सामने वाले भाग में भी जाकर बैठ जाते थे, जहां दूसरी मंजिल पर बारजे में उनकी शाही कुर्सी रखी हुई थी। बारिश न होने से इनकी काली लकड़ियां कट-फट गई थीं, गद्दी काली और मैली थी। इस पर बैठकर वह सामने के लॉन को निहारते, जहां फूलों की क्यारियों के बज़ाय अब केवल बड़ी-बड़ी जंगली घास ही थी। शाम होने से पहले ही यहां कीड़े-मकोड़े टरटराने लगते। राजमहल की अवस्था देखकर भी उनकी आंखों में आंसू नहीं आते। उन्हें राजमहल की ऐसी अवस्था देखने की शायद प्रतीक्षा ही थी। किसी गरीब की आह कभी व्यर्थ नहीं जाती। बैठे-बैठे जब मन घबराने लगता तो वह उठकर नीचे उतरते, बरामदे में पहुंचते तो उनके कदमों की चाप सुनकर एक पल के लिए कीड़े-मकोड़ों की आवाज़ मद्धिम पड़ जाती। जब वह नीचे उतरते तो घास में ऐसी सरसराहट होती, मानो कीड़े-मकोड़े तथा सर्प इधर-उधर रेंगकर भाग रहे हों। लॉन के अंदर का यह रास्ता, जहां कभी घोड़े और हाथी सिर उठाकर चला करते थे, अब इस प्रकार ऊबड़-खाबड़ था कि दिन में भी संभलकर चलने के बाद हर पग पर ठोकरें खाई जा सकती थीं। वह बाहरी गेट पर खड़े होते, जहां दिन-रात कभी दरबानों तथा सिपाहियों का पहरा होता था और अब वहां कुछ भी नहीं रहा, तो अपने आप ही उनकी निगाहें पीछे राजमहल पर उठ जातीं। यदि यहां से निकलते समय शाम की लालिमा शेष होती तो वह स्पष्ट देखते कि जिस जगह दूसरी मंजिल पर बैठकर उनके बाप-दादा गरीबों की फरियाद सुना करते थे, वहां कुछ नीचे बाहर की ओर दीवार पर सीमेंट द्वारा बड़े-बड़े शब्दों में केवल अब महल ही लिखा हुआ रह गया था‒‘राजमहल’ का ‘राज’ टूट चुका था। उन्हें इस महल की तकदीर पर हंसी आ जाती। राजमहल या भूतमहल! और तब वह एक ज़ोरदार ठहाका लगाकर हंस पड़ते…हा-हा-हा‒हा-हा-हा! उनका ठहाका इस उजड़े और सुनसान इलाके में दूर-दूर तक फैल जाता, तब उस ओर से भूले-भटके गुज़रने वाला यदि इस ठहाके को सुनता तो उसकी आत्मा कांप उठती। वह महल की ओर आंखें उठाए बिना ही भाग खड़ा होता। फिर दोबारा इस इलाके में आने का नाम भी नहीं लेता।
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