‘अपने पैरों पर खड़ा होना’ इस हिन्दी मुहावरे का उपयोग सामान्यत: किसी युवा व्यस्त के आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने से है। यदि हम सोचें जीवन के विभिन्न चरणों में इसका अर्थ भी बदल जाता है। एक बच्चे के लिए इसका अर्थ शारीरिक क्षमता को प्राप्त करना है और बढ़ती उम्र के साथ, इसका अर्थ शारीरिक स्वतंत्रता और कार्यात्मक क्षमता को दर्शाता है।
घुटनों के दर्द से निज़ाद पाने के नए विकल्प
घुटने का ऑस्टियो आर्थराइटिस जोड़ों की एक आम बीमारी है, जो लोगों को अकसर अक्षम व कार्यात्मक तौर पर अयोग्य बना देती है। इस समस्या के अनेक सामाजिक व आर्थिक प्रभाव हो सकते हैं। ऑस्टियो आर्थराइटिस हर आयु वर्ग के लोगों में बढ़ रही है और अनेक कारणों से जैसे- बदलती जीवनशैली, मोटापा और बढ़ती उम्र की अवधि में वृद्धि के कारण इसके निरंतर बढ़ने की संभावना है। जोड़ों के दर्द को प्राय: तब तक नजर अंदाज कर दिया जाता है जब तक कि यह दु:ख का कारण नहीं बन जाता और जीवनशैली को प्रभावित नहीं कर देता, किंतु फिर भी आजकल बड़ी संख्या में कम उम्र के मरीज भी इस समस्या से ग्रस्त हैं। घुटने के ऑस्टियो-आर्थराइटिस का एक प्रमुख कारण मोटापा है, क्योंकि चलते समय तीन से छ: गुणा शरीर का भार घुटने के जोड़ पर पड़ता है। अत: शरीर में प्रत्येक 5 किलोग्राम अतिरिक्त भार के बढ़ने पर घुटनों को 15 से 30 किलोग्राम अतिरिक्त भार उठाना पड़ता है।
चिकित्सीय प्रौद्योगिकी में तरक्की तथा दशकों तक घुटनों के ऑस्टियो-आर्थराइटिस पर अनुसंधान व इसके स्थायी इलाज के अभाव में इसका उपचार दर्द से राहत, जोड़ों की गतिविधियों में सुधार और जोड़ों को मजबूत करने जैसे लक्षणों पर केंद्रित करके किया जाता है।
- गंभीर मामलों में ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी एक पसंदीदा विकल्प है, जिससे अनेक लोग लाभान्वित हुए हैं, किंतु एक अनुसंधान साक्ष्य के अनुसार घुटने की रिप्लेसमेंट सर्जरी कराने के बावजूद तकरीबन 20 फीसदी मरीज़ों में ये दर्द फिर भी बना रहता है। निरंतर दर्द केवल उनके जीवन की गुणवत्ता को ही प्रभावित नहीं करता अपितु मरीज प्राय: भ्रमित रहता है और वह स्वयं को दर्द का और अकसर सर्जरी कराने का निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार ठहराता है। जब उसे दर्द का कोई स्पष्ट कारण नहीं मिलता तो उसमें असंतुष्टि, निराशा का भाव आना स्वभाविक है। इन मरीजों के अतिरिक्त कुछ ऐसे मरीज भी होते हैं, जो अन्य बीमारियों से ग्रसित होने के कारण या तो सर्जरी कराने के लिए फिट नहीं होते और कुछ सर्जरी करवाना ही नहीं चाहते, चाहे कुछ भी हो जाए। तो इन सब के पास दूसरों पर निर्भर रहने या कष्ट उठाने के अलावा और क्या विकल्प है।
- रेडियो फ्रिक्वेंसी एब्लेशन का न्यूनतम इनवेसिव विकल्प ऐसे मरीजों के लिए आशा की किरण है। इस पद्धति में उन नसों को अशक्त कर दिया जाता है, जो प्रभावित जोड़ों से दिमाग तक दर्द का संदेश पहुंचाने का कार्य करती है। दिमाग तक दर्द के संदेश कम पहुंचने का अर्थ कम दर्द महसूस करना है और दर्द कम होने से विभिन्न कार्य करने में सुधार होना व कम दवाइयां लेना है। इसमें अल्ट्रासाउंड और एक्सरे की मदद से स्पेशल सुइयों को घुटने की नसों के पास डाला जाता है। यह सुइयां एक रेडियो फ्रीक्वेंसी मशीन से जुड़ी होती हैं, जो एक विशेष प्रकार की रेडियो तरंगे उत्पन्न करती है। इन रेडियो तरंगों के उपयोग करने से घुटने से उठकर दिमाग तक पहुंचाने वाले दर्द के संदेश में कमी आती है, जो मरीज़ घुटने की सर्जरी नहीं करवाना चाहते या अन्य बीमारियों से ग्रसित होने के कारण सर्जरी नहीं करा सकते अथवा वे मरीज़ जिनकों सर्जरी करवाने के पश्चात् भी दर्द से राहत नहीं मिली है, इन सभी के लिए रेडियो-फ्रिक्वेंसी एब्लेशन का विकल्प एक वरदान के समान है। जो एक डे-केयर प्रोसिजर की तरह लोकल एनस्थीसिया देकर किया जाता है अर्थात् इसमें रात भर अस्पताल में दाखिल रहने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। इस प्रक्रिया के पश्चात आमतौर पर सामान्य क्रिया कलाप किए जा सकते हैं। अधिकांश मामलों में 1-2 वर्ष के भीतर नर्व सैल रीजनरेट हो जाते हैं और यदि आवश्यकता हो तो इस थैरेपी को दोहराया भी जा सकता है।
इस तकनीक को केवल घुटने के दर्द से निज़ात पाने के लिए ही नहीं बल्कि गर्दन, पीठ, हिप और कंधे के दर्द का इलाज़ करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। यूके, अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देशों में अपनाई जाने वाली इस पद्धति के प्रति भारत में भी अब जागरूकता बढ़ रही है।
यह भी पढ़ें –कोलेस्ट्रॉल कम करने के आसान तरीके
स्वास्थ्य संबंधी यह लेख आपको कैसा लगा? अपनी प्रतिक्रियाएं जरूर भेजें। प्रतिक्रियाओं के साथ ही स्वास्थ्य से जुड़े सुझाव व लेख भी हमें ई-मेल करें-editor@grehlakshmi.com
