The Bhootnii Movie Review: अगर आपको लगा कि ‘स्त्री’ के बाद हिंदी सिनेमा में हॉरर-कॉमेडी का ज़माना आ गया है, तो ‘द भूतनी’ देखकर आपका भरोसा ज़रूर हिल जाएगा… या यूं कहें कि गायब ही हो जाएगा। यह फिल्म बताती है कि सिर्फ हॉरर और कॉमेडी … दो शब्दों को साथ जोड़ देने से कोई जॉनर नहीं बनता। इस फिल्म में आप आराम सो जाइए… क्योंकि यहां आपको ना डर लगेगा और ना ही हंसी आएगी। इतना बोर जरूर होंगे कि बढ़िया और तुरंत नींद जरूर आ जाएगी।

फिल्म की शुरुआत होती है एक कॉलेज से। इसका नाम पढ़कर लगता है जैसे ऑक्सफोर्ड का कैम्पस होगा लेकिन असल में यह एक टीनएज मस्ती से लथपथ और घोर नकली जगह है। जहां छात्र पढ़ाई कम, ‘सच्ची मोहब्बत’ ज़्यादा ढूंढते हैं। इस मोहब्बत की तलाश में वो एक ‘वर्जिन ट्री’ की पूजा करते हैं। इस पेड़ की जड़ में कोई प्रेम-कथा नहीं, बल्कि एक आत्मा है। मोहब्बत नाम की एक चुड़ैल, जो ‘नागिन’ सेट से सीधे यहां आ पहुंची हैं। यह रोल मौनी रॉय ने किया है।

मौनी रॉय का कैरेक्टर मोहब्बत कोई साधारण भूतनी नहीं है। वो हरे रंग की आंखों वाली है और दिल टूटा होने का दावा करती आत्मा है। वो स्कूली लड़कों से पूछती है, “तुम्हारी हॉबीज़ क्या हैं?” और फिर उन्हें हवा में उड़ा देती है। अब आते हैं हीरो पर, जो हैं सनी सिंह। शांतनु नाम के कॉलेज स्टूडेंट का रोल किया है। एक्टिंग देखकर केवल यही लगता है कि गलती से फिल्म के सेट पर आ गए थे तो किसी ने कह दिया हो “भाई, कैमरा ऑन है, बस कुछ कर लो”।

अब जब कॉलेज में आत्महत्याओं की घटनाएं बढ़ जाती हैं, तो बुलाया जाता है एक ‘पैराफ़िज़िसिस्ट’ यानी संजय दत्त को। वो इस फिल्म के ‘रूह बाबा’ जैसे हैं। ‘मुन्ना भाई’ के फैंस सोच सकते हैं कि अब मज़ा आएगा, लेकिन नहीं। बाबा कोई तेज़-तर्रार, जिंदादिल भूत-मार नहीं, बल्कि खिलौनों जैसे गैजेट्स से लैस, बोरिंग डायलॉग बोलते एक नकली घोस्टबस्टर हैं। गीता के श्लोकों और ‘ये चुड़ैल नहीं, अधूरी ख्वाहिश है’ जैसे भारी-भरकम संवादों के बीच संजय दत्त खुद खोए-से लगते हैं। फिल्म में विज्ञान और धर्म, मोहब्बत और मृत्यु, वैलेंटाइन डे और होलिका दहन सबको एक साथ घोंटकर पिलाने की कोशिश की गई है। निर्देशक सिद्धांत सचदेव को शायद लगा कि ‘स्त्री’जैसी हिट फिल्मों का फॉर्मूला कॉपी करना काफी है… लेकिन बैलेंस, टोन और स्क्रिप्ट को वे भूल ही गए।

फिल्म में कोई डर नहीं है, सस्पेंस नहीं है, और कॉमेडी तो बिल्कुल नहीं है। कुछ दृश्य तो इतने बचकाने हैं कि छह साल का बच्चा भी हंसने की बजाय सिर पीट ले। यह फिल्म शादी में बिन बुलाए घुस आए डीजे की तरह लगती है, जो जबरन सबको नचाने की कोशिश कर रहा हो। दो घंटे दस मिनट की यह ‘फिल्म’ असल में समय की बरबादी है, जिसमें न सिर है न पैर। न कहानी है, न भावना। सबसे बुरी बात इसमें वो ‘बिन मतलब का मज़ा’ भी नहीं है जो आजकल की फिल्मों में कुछ तो होता ही है। ‘द भूतनी’ को देखकर यही लगता है कि ये फिल्म नहीं, फ़िल्म निर्माण का मज़ाक है। ये वो मूवी है जो दर्शकों को बताती है कि ‘हॉरर’ अब सिर्फ डराने वाला नहीं रहा और ‘कॉमेडी’ अब हंसाने वाली नहीं रही।

ढाई दशक से पत्रकारिता में हैं। दैनिक भास्कर, नई दुनिया और जागरण में कई वर्षों तक काम किया। हर हफ्ते 'पहले दिन पहले शो' का अगर कोई रिकॉर्ड होता तो शायद इनके नाम होता। 2001 से अभी तक यह क्रम जारी है और विभिन्न प्लेटफॉर्म के लिए फिल्म समीक्षा...