Ground Zero Review: कश्मीर पर एजेंडा फिल्में देखते-देखते थकान होने लगी थी। ‘ग्राउंड जीरो’ परफेक्ट तो नहीं है लेकिन फिर भी अच्छी लगती है क्योंकि यह किसी भी एजेंडे से दूर है। यह फिल्म घाटी की समस्या को सेंसिबल तरीके से पेश करती है। सोचने पर मजबूर करती है। आज के माहौल में तो ऐसे ‘डोज’ की सख्त जरूरत थी, जहां कुछ लोग हर कश्मीरी को गुनहगार साबित करने पर आमादा हैं। 

यह फिल्म 2000 के दशक की शुरुआत में कश्मीर में सेट है। बीएसएफ के ‘ऑपरेशन गाजी’ पर पूरा फोकस है। फिल्म का टोन इस बात से सेट होता है…  “क्या सिर्फ़ कश्मीर की ज़मीन हमारी है, या वहां के लोग भी?”  यह सवाल मौजूदा माहौल में भी जिंदा है, जहां कश्मीरी लोगों पर मिलीभगत के आरोप लग रहे हैं और देश के अन्य हिस्सों में कश्मीरी छात्रों को धमकियां मिल रही हैं और हमले हो रहे हैं। ‘ग्राउंड जीरो’ के साथ अच्छा यह है कि “द कश्मीर फाइल्स” और “आर्टिकल 370” जैसी फिल्मों से बेहद दूर और ‘शेरशाह’ के करीब है। इस बायोपिक में देशभक्ति और स्थानीय लोगों के प्रति हल्की लेकिन चिंता साफ दिखती है। यह सधी हुई थ्रिलर है, जो पहले ही फ्रेम से दर्शकों को बांध लेती है। कुछ ही सीन इतने भावुक हैं कि आपकी आंखों में आंसू ला सकते हैं। ज्यादा की उम्मीद मत कीजिएगा 

पहले 40 मिनट में यह घाटी में सेट अन्य हिंदी एक्शन फिल्मों जैसी लगती है, लेकिन एक अंतर है… पाकिस्तान को सीन से गायब रखा गया है। बीएसएफ पर फोकस करने वाली यह फिल्म आंतरिक सुरक्षा के सवालों से जूझती है। घर-घर तलाशी, जवाबी हमले, प्रदर्शन पर भीड़ से जूझते वक्त अराजक माहौल, भागते युवक की गर्दन में चेतावनी की गोली लगना… सब असरदार है। तेजस प्रभा विजय देवस्कर के निर्देशन और लेखन संचित गुप्ता- प्रियदर्शी श्रीवास्तव यह असर पैदा करते हैं। फरहान अख्तर भले ही प्रोड्यूसर हों, लेकिन हल्की फिल्म वो अपने बैनर पर मंजूर नहीं करेंगे।

यह जरूर है कि देवस्कर का कश्मीर को सीमित तरीके से फिल्माया है। कुछ फ्रेम्स हैं, जो दूसरी फिल्मों से उठाए लगते हैं। संवाद लेखन काफी खराब है। एक आतंकी का कहना “आज मौका भी है, दस्तूर भी” हास्यास्पद रूप से घिसा-पिटा है और फरहान के अब्बा के जमाने का लगता है।​​​​​​​ “पहरेदारी बहुत हो गई, अब प्रहार होगा” जैसा संवाद देर से आता है और केवल जॉनर को खुश करने वाला है। बीएसएफ जवान सिख, मलयाली, बंगाली, राजस्थानी हैं… लेकिन दुबे को छोड़कर कोई किरदार गहराई से उभरकर नहीं आता। कश्मीरी सच्चाई से जुड़े जटिल सवाल सिर्फ़ अधिकारियों के बीच, निजी तौर पर उठाए जाते हैं। यहां अचानक हमले खूब हैं। 

वैसे इस फिल्म में सबसे बड़ा आश्चर्य है इमरान हाशमी का नैतिक योद्धा होना। यह एक्टर चालाक प्रेमी और ठग के रोल के लिए जाना जाता था, यहां मजबूत और संयमित इंसान है। सच तो यह है कि हाशमी ग्रे शेड्स में चमकते हैं। अभय धीरज सिंह, ललित प्रभाकर और दीपक परमेश ने इमरान के साथी जवानों के रोल में असर छोड़ा है। साई तम्हनकर और जोया हुसैन को कम ही जगह मिली। फिल्म को माहौल का फायदा मिलेगा। मिलना भी चाहिए। ईमानदार फिल्म है, कमाई होना ही चाहिए।

ढाई दशक से पत्रकारिता में हैं। दैनिक भास्कर, नई दुनिया और जागरण में कई वर्षों तक काम किया। हर हफ्ते 'पहले दिन पहले शो' का अगर कोई रिकॉर्ड होता तो शायद इनके नाम होता। 2001 से अभी तक यह क्रम जारी है और विभिन्न प्लेटफॉर्म के लिए फिल्म समीक्षा...