वाराणसी में गंगा के किनारे एक गुरु जी रहते थे। उनके अनेक शिष्य थे। इस तरह आखिर वह दिन आया जब शिक्षा पूरी होने के बाद गुरु देव उन्हें अपना आशीर्वाद देकर विदा करने वाले थे।
सुबह गंगा में स्नान करने के बाद गुरु देव और सभी शिष्य पूजा करने बैठ गए। सभी ध्यान कर रहे थे, तभी एक बच्चे की आवाज सुनाई पड़ी। वह मदद के लिए पुकार रहा था।
तभी एक शिष्य अपनी जान की परवाह किए बगैर नदी की ओर दौड़ पड़ा। वह किसी भी तरह से उस बच्चे को बचाकर किनारे तक लाया। तब तक सभी शिष्य ध्यान में मग्न थे। लेकिन गुरु जी ने यह सब कुछ
घटनाक्रम अपनी आंखों से देखा।
तब गुरु जी ने कहा, “एक रोते हुए बच्चे की पुकार सुन तुम्हारा एक मित्र बच्चे को बचाने के लिए नदी में कूद पड़ा।” शिष्यों ने कहा, ‘उसने पूजा छोड़कर अधर्म किया है।’ इस पर गुरु देव ने कहा, “अधर्म उसने नहीं, तुम लोगों ने किया है। तुमने डूबते हुए बच्चे की पुकार अनसुनी कर दी। पूजा-पाठ, धर्म-कर्म का एक ही उद्देश्य होता है प्राणियों की रक्षा करना। तुम आश्रम में धर्मशास्त्रें, व्याकरणों, धर्म-कर्म आदि में पारंगत तो हुए, लेकिन धर्म का सार नहीं समझ सके।”
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