अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

थका-मांदा खेत से लौटने पर भीखम ने दरवाजे पर से ही पुकारा—‘बिटिया, एक लोटा पानी तो दे जा।’

पुकार कर वह मचिया पर जा बैठा। घटा झोंपड़ी में थी। चटपट लोटा उठाकर भरने चली, तो मालूम हुआ कि गगरा खाली है। वह बोली—‘गगरे में पानी नहीं रहा काका, अभी तालाब से लिए आती हूं।’ और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए, उसने लोहे का गगरा सिर पर रखा और तालाब की ओर चल पड़ीं।

अपना पराया नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

आम और जामुन के पेड़ों से आवृत एक आकर्षक तालाब था। एक ओर पक्का घाट भी बना हुआ था। स्वच्छ पानी के ऊपर दूर-दूर तक कोकाबेली के फूल फैले हुए थे, इस समय संध्याकालीन लालिमा पश्चिमाकाश पर लहरा रही थी। सूर्य का प्रकाशमान गोला, रजनी देवी की गोद में मुंह छिपाने का उपक्रम कर रहा था। तालाब पर कोई नहीं था। केवल एक युवक घाट की सीढ़ी पर बैठा हुआ ध्यान से कोई पुस्तक पढ़ रहा था।

युवक की वेशभूषा आधुनिक होते हुए भी, साधारण थी। सिर पर गांधी टोपी, शरीर पर खद्दर का कुर्ता और खद्दर की धोती थी। चप्पल अलग पड़े थे। कपड़े साफ थे। मुख पर गम्भीरता एवं नम्रता झलक रही थी। वह पुस्तक पढ़ने में तन्मय था। आस-पास की सुध न थी उसे कोकाबेली के फूल हंस रहे थे। पास ही पीपल के पेड़ से सर-सिर करती हवा बह रही थी, मगर आंखें पुस्तक की लाइनों पर अविराममयी दौड़ रही थीं। उसके दोनों पांव पानी में लटके हुए थे।

झिझक पड़ीं वह तालाब के किनारे एक शहराती युवक को बैठा देखकर। यह आज एक नवीन घटना थी उस तालाब के किनारे। उसका साहस तालाब तक जाने को न हुआ। आज से पहले सैकड़ों बार वह तालाब में कूद कर घंटों तैरी है, मगर आज वह झिझक क्यों?

वह पीपल के पेड़ की ओट में खड़ी होकर उस युवक की ओर देखने लगी। बहुत देर तक देखती रही। बड़ा देर तक खड़ी रही। उसे सिर से पांव तक देख डाला। वह बहुत ही सुंदर प्रतीत हुआ, उसे लगा, जैसे वह कोई अपना ही सगा-सम्बंधी है, जैसे उसकी रग-रग में उसके प्रति ममता भर गईं है, जैसे उसके पैर शिथिल होकर बैठ जाना चाहते हैं।

युवक पुस्तक पढ़ने में तल्लीन था। हवा का झोंका आया। उसका ध्यान भंग हो गया।उसने देखा कि उसकी टोपी पानी में गिर पड़ीं है और बहती हुई तालाब के बीच की ओर जा रही है। लपक कर उसने उसे पकड़ना चाहा, मगर तब तक वह दूर जा चुकी थी। तैरना उसे आता न था, इसलिए उसने पानी में उतरने का साहस नहीं किया।

लाचार वह उठ खड़ा हुआ और तालाब के ऊपर की ओर चला। घटा सब कुछ देख रही थी। युवक को हताश देख वह खिलखिलाकर हंस पड़ीं, यद्यपि उसने हंसी रोकने की बहुत कोशिश की थी।

मधुर हंसी की आवाज सुनकर युवक ने उस ओर देखा। दोनों की आंखें चार हो गयीं। घटा शरमा गईं। उसके मुख पर से हंसी गायब हो गईं, हंसी के स्थान पर लज्जा की लालिमा छा गईं।

युवक कुछ बोला नहीं, गम्भीर बना रहा। उसकी व्यंग्य पूर्ण हंसी पर नाराज भी नहीं हुआ। चुपचाप आगे बढ़ चला।

इसी समय गांव के तीन-चार लड़के वहां आ पहुंचे। घटा ने उनमें से एक को बुलाकर उसके कान में न जाने क्या कहा। वह लड़का दौड़कर उस युवक के पास पहुंचा और चिल्लाकर बोला—

‘बाबूजी! आपकी टोपी?’

फिर क्या था, सभी लड़के दौड़ पड़े और उस युवक को चिढ़ाने लगे। घटा दूर से यह सब देखकर प्रसन्न हो रही थी। युवक चुपचाप आगे बढ़ा जा रहा था…एकदम गम्भीर व्यक्ति की तरह।

एकाएक घटा घूम पड़ीं। खट-खट सीढ़ियां उतरकर तालाब की अंतिम सीढ़ी पर आई। गगरा नीचे रख दिया और छपाक से पानी में कूद पड़ीं। तैरना वह खूब जानती थी। कुछ ही देर में युवक की टोपी उसके हाथ में आ गईं। उसे लेकर वह घाट के किनारे आ खड़ी हुई। एक लड़के को बुलाकर उसने वह टोपी उसके हाथ पर रख दी और बोली—‘वो जो बाबू जा रहे हैं न! दौड़कर जा, उन्हें यह टोपी दे आ। झब्बर! जरा जल्दी कर भइया…। नहीं तो बेचारा चला जाएगा।’

लड़का दौड़ चला टोपी लेकर। शीघ्र ही वह उसके पास पहुंच गया और टोपी युवक को दे दी। युवक कुछ बोला नहीं। चुपचाप टोपी हाथ में लेकर चल पड़ा। घटा कौतूहल से उसे देख रही थी। उसे उस युवक का अतिशय गम्भीर्य आश्चर्यजनक लगा, जैसे वह लापरवाह बहुत हो, जैसे वह सरलता की प्रतिमूर्ति हो, जैसे वह अर्ध-पागल हो।

वह भूल गईं कि उसे काका के लिए पानी लेकर जल्द लौटना है। वह यह भी भूल गईं कि पानी में कूदने के कारण उसके कपड़े गीले हो रहे हैं। वह सीढ़ियों पर बैठकर विचारों में तल्लीन हो गईं। वह ग्रामीण युवती थी। भावुकता उसमें न थी। प्रेम की टीस समझ सकने की शक्ति भी उसमें न थी, फिर भी, वह कुछ-कुछ पागल-सा युवक जो उसके जीवन में इस प्रकार आ पहुंचा था, उसी के विषय में वह सोच रही थी—‘कौन है? कौन होगा…? इस गांव का तो नहीं मालूम पड़ता…उंह! होगा कहीं का? उससे क्या मतलब?’

वह बैठी रही तब तक, जब तक कि रात्रि की कालिमा ने उसे अपनी बांहों में समेट नहीं लिया। वह घड़ा भरकर, चल पड़ीं घर की ओर। आज उसे ऐसा लग रहा था, जैसे उसकी सारी बाह्य चपलता विलीन हो गईं हो, जैसे उसकी रग-रग में यौवन का उन्माद भर गया हो, जैसे पग-पग पर वह जवानी की मदहोशी की ओर बढ़ रही हो।

चलते-चलते चौंककर खड़ी हो गईं वह। देखा उसने, वहीं युवक एक पेड़ की ठूंठ से उठंग कर कुछ सोचता हुआ, न जाने कितनी गंभीरता एवं लापरवाही से खड़ा है।

युवक ने नजर उठाई। उसने घटा को विस्मय पूर्ण दृष्टि से देखा। उस समय घटा का भीगा हुआ वस्त्र उसके अंग-प्रत्यंग से इस प्रकार चिपका हुआ था, जैसे घटा के यौवन से वह कभी बिछुड़ना ही नहीं चाहता। उसके पुष्ट वक्षस्थल का उठना-बैठना स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था और मुखाकृति पर जवानी का तेज चमक रहा था।

उसकी दृष्टि घटा की छाती पर इस तरह अटक गईं थी, जैसे कभी हटेगी नहीं, जैसे वह यौवन की सीमा नाप रहा हो, जैसे उसकी सुंदरता एवं कम्पन देखकर वह जड़भूत हो गया हो, जैसे उसकी चेतना घटा की छाती पर जा बसी हो।

‘अभी तक यहीं हो बाबू?’ अनायास ही उसके मुंह से निकल पड़ा।

मधु-मिश्रित स्वर ने युवक की विचारधारा भंग कर दी। गम्भीरता की जगह सरल मुस्कान ने ले ली। मुस्कराते हुए उसने कहा—‘तुमने मेरे लिए बहुत कष्ट उठाया है, अतः मैं धन्यवाद देता हूं।’

घटा कुछ बोली नहीं।

उसे लगा, जैसे वह लज्जा से गड़ी जा रही है, जैसे उसका यौवन चोट खाकर तड़प उठा है। एकाएक उसके नेत्र युवक के मुख पर जा पड़े। वह रोमांचित हो कांप उठी। उसने देखा, युवक की आंखों में ‘कुछ’ नहीं ‘बहुत’ कुछ था। वह सहमकर चुपचाप आगे बढ़ चली। युवक पुनः तल्लीन होकर सोचने लगा।

घटा तेजी से पग बढ़ाती हुई घर पहुंच गईं उसका हृदय धड़क रहा था। उसने उस युवक की आंखों में जो ‘कुछ’ देखा था, वह उसके अंतर में प्रवेश कर उसे गुदगुदा रहा था। वह थी यौवन की आंधी। घटा को लगा जैसे वह प्रेम-नदी की तीव्र धारा में बही जा रही है।

‘बड़ी देर कर दी, बिटिया।’ भीखम ने कहा।

वह अभी तक घटा की प्रतीक्षा कर रहा था।

‘नहाने लगी थी, काका! इसीलिए देर हो गईं।’ घटा अन्यमनस्क भाव से बोली और गगरा जमीन पर रखकर अंदर चली गईं।

भीखम गगरे में से पानी लेकर हाथ-पैर धोने लगा।

Leave a comment