संध्या की मौत को आज पंद्रह दिन बीत चुके थे। रायसाहब के कहने पर भी आनन्द ने उनके यहाँ रहना उचित न समझा और क्रिया-कर्म के पश्चात् वह संध्या के मकान में लौट आया।
बेला भी बच्चे को लेकर वहीं चली आई। हर ओर शोक छाया हुआ था। जहाँ उसे बच्चे की खुशी के दिन मनाने थे, वहाँ शोक मनाया जा रहा था।
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आज वह कितने ही दिनों से आनन्द को ध्यानपूर्वक देखे जा रही थी। उसकी इस दशा को देखकर कई बार वह एक अज्ञात भय से कांप उठी। वह उसका मन बहलाने का बहुत प्रयत्न करती, किंतु वह मूर्ति बना किसी गहरी सोच में डूबा रहता, जैसे कोई भारी दुःख उसे भीतर-ही-भीतर खाए जा रहा हो।
आज भी उसकी आँखें आनन्द पर जमीं थीं, जो खिड़की का सहारा लेकर बाहर उजड़े हुए कारखाने को देख रहा था। जिसे कभी खून-पसीना एक करके संध्या ने बसाया था और जो अब बेकार मशीनों और मिट्टी-र्इंटों के ढेर के सिवाय कुछ न था।
जो मशीनें बच रही थीं, उन पर उन्होंने टाट बांध दिए थे। कारखाना गिरने से कितने ही मजदूरों की आजीविका मारी गई थी और वे हाथ-पर-हाथ धरे अपने भाग्य पर आँसू बहा रहे थे।
मामू और सुंदर ने कई बार आनन्द से कहा भी कि उनके जीवन को बचाने का एकमात्र उपाय यही था कि कारखाना दोबारा चले और चलने के लिए भारी पूंजी की आवश्यकता थी। रायसाहब के सामने वह हाथ फैलाना न चाहता था। बेला के पास स्वयं अपने पैसे थे, किंतु वह शायद इस काम के लिए फूटी कौड़ी भी न दे और दे भी तो वह सदा के लिए उसके अधीन हो जाएगा।
ये चिंताएँ, संध्या का दुःख और अपने विवाहित जीवन के भविष्य का विचार दिन-ब-दिन उसे खाए जा रहे थे। उसकी दशा उस काठ की भांति थी जिसे बीच से घुन ने खोखला कर दिया था-किंतु जो ऊपर से वैसा ही दिखाई पड़े।
‘यों देखते रहने से क्या वह लौट आएगी?’
‘हूँ’-अपने विचारों में डूबे आनन्द के होंठों से निकला। उसने मुड़कर देखा। बेला एकटक उसे देखे जा रही थी।
‘दीदी के विषय में सोच रहे थे आप क्या?’
‘हाँ बेला, सोचता हूँ उसकी अभिलाषा पूरी न हुई।’
‘आपको तो ऐसी बातें नहीं सोचनी चाहिए, साहस से काम लीजिए। सबको एकत्र कीजिए, कारखाना फिर चल सकता है।’
‘केवल साहस से काम चलता तो बात और थी। अच्छी-खासी धनराशि चाहिए। अब तुम ही कहो, यह कहाँ से आएगी?’ आनन्द ने बेला की ओर देखते हुए कहा।
बेला चुप रही। वह चाहती तो आनन्द की इस समस्या को सुलझा सकती थी। वह सोचने लगा, दोनों बहनों में कितना अंतर था-एक ने दूसरों के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया और दूसरी इतनी…।
शाम हो चुकी थी। अंधेरा पांव पसार रहा था। आनन्द कारखाने के खंडहरों में घूम रहा था। वहाँ के कण-कण में उसे संध्या की तस्वीर दिखाई देती, वहाँ चलती हुई हवा में उसी के आशापूर्ण शब्द गूंज रहे थे।
इस स्थान पर न जाने क्यों उसे एक सुख मिलता, चन्द क्षण के लिए कुछ शान्ति, उसके मन का बोझ कहीं चला जाता, कई बार तो उसे प्रतीत होता कि संध्या स्वयं उससे बातें कर रही है। वह उसके साथ हँसता-खेलता और फिर एकाएक ही वह गुम हो जाती और आनन्द अकेला रह जाता।
जब वह घर लौटा तो रात काफी जा चुकी थी। बेला बैठी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। आनन्द को आते देखकर खड़ी हो गई और उसका स्वागत करते हुए बोली-
‘कितनी देर लगा दी आपने। कहीं चले गए थे?’
‘नहीं तो।’
‘यों कहिए कि दीदी से मिलने गए थे।’ आनन्द के हाथों से कोट पकड़ते हुए उसने कहा।
‘हाँ बेला, परंतु इतना सौभाग्य कहाँ कि उसे फिर पा सकूँ।’ वह एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए पलंग पर लेट गया।
दूर कोई समुद्र के किनारे बैठा बांसुरी बजा रहा था। वह आँखें बंदकर उसे सुनने लगा-कोई जीने का संदेश दे रहा था। आनन्द ने अनुभव किया जैसे कोई उसके पाँव छू रहा है। उसने आँख खोली और देखा। बेला उसके पांव से जूते खोल रही थी। उसने चाहा कि पांव खींच ले, परंतु ऐसा न कर सका।
उसे यों अनुभव हुआ मानो वह बेला न थी, संध्या थी जो उसे नवजीवन देने आई हो। बेला का यह ढंग उसने पहले कभी न देखा था।
रात के कपड़े पहनकर जब वह बाहर निकला तो बेला खाना लगा रही थी। पिछले दो-चार दिन से आनन्द ने कुछ न खाया था। बेला के अनुरोध पर वह खाने के लिए बैठ गया। उसे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आज खाना बेला ने स्वयं अपने हाथों से बनाया है।
थोड़ी देर के लिए वह अपना दुःख भूल गया। उसे लगा मानो वह सब कुछ संध्या ही कर रही है। आज न जाने क्यों पहली बार उसके मन में बेला के लिए स्नेह उत्पन्न हुआ।
बेला आज तक इस अमृत से वंचित रही थी। आज संध्या की बातें उसे याद आ रही थीं। संध्या के वे शब्द, अभी तक उसके कानों में गूंज रहे थे-‘तुम्हारे प्रेम में ईर्ष्या है, डाह है, झूठा आत्म-सम्मान है और वासना है, किंतु मैंने अपने प्रेम की फुलवारी को सुरक्षित रखने के लिए उसे परिश्रम, बलिदान तथा मान से सींचा है। यदि तुमने उसका शरीर खरीदा है तो मैंने उसके मन का मूल्य पाया है। उन्हें जीतना है तो संध्या बनना सीखो, संध्या बनना’-वह अब उसी के पदचिह्नों पर चलकर सुख का मार्ग खोजेगी।
ग्रास मुँह में डाले आनन्द वहीं रुक गया और आश्चर्य से बेला को देखने लगा, जो तीसरी प्लेट सजा रही थी।
‘यह किसके लिए?’
‘दीदी के लिए।’
‘किंतु वह…’
‘वह सदा हमारे संग है, उसके बिना तो हम एक कदम भी नहीं चल सकते।’
आनन्द ने एक दृष्टि बेला पर डाली-क्या वास्तव में वह इतनी बदल चुकी है। वह धीरे-धीरे खाना खाने लगा और बीच-बीच में दृष्टि उठाकर तीसरी प्लेट को देख लेता, जो संध्या के लिए परोसी गई थी।
रात को बिस्तर में लेटा वह अपने विचारों में डूबा हुआ था कि अचानक बेला उसके पास आ बैठी और अपनी हथेली खोलकर उसके सामने रख दी।
‘यह क्या है?’ आनन्द उसे देखते ही चौंक उठा। बेला के हाथ में उसके नाम का बीस हजार का चेक था। उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से बेला को देखा-वह क्या धन से उसे खरीदना चाहती है? वह सोच में पड़ गया।
‘लीजिए, इससे अपना काम चलाइए। यह कारखाना दोबारा आरंभ करना होगा, आखिर ये लोग कब तक बेकार रहेंगे।’
आनन्द ने कांपता हुआ हाथ बढ़ाया और चेक को लेकर पलटकर देखने लगा। न जाने उसे क्या सूझी कि अचानक चेक उसने बेला को लौटा दिया और ऊँचे स्वर में चिल्लाकर बोला-
‘नहीं-नहीं, तुम मुझे धन की झलक दिखाकर नहीं खरीद सकतीं। तुम सेवा का ढोंग रचाकर संध्या नहीं बन सकतीं। मुझे रुपये से बढ़कर एक ऐसी आत्मा की आवश्यकता है, जो मुझे अंधेरे में मार्ग दिखाए, जो ठोकर लगते ही संभाल ले।’
बेला की आँखों में अपनी बेबसी पर आँसू आ गए-उसने वह चेक वहीं रहने दिया और अपने बिस्तर पर जा लेटी। आनन्द ने देखा, बेला तकिये में मुँह छिपाए रो रही है। उसके कानों में सिसकियों की आवाज आ रही थी, किंतु वह दिल कड़ा किए पड़ा रहा और उसे ढाढस बंधाने नहीं उठा।
सुबह जब उसकी आँख खुली तो कमरे में उजाला हो चुका था।
सामने रखी घड़ी पाँच बजा रही थी। आज बड़े समय पश्चात् उसे नींद आई थी। सोने से उसका बोझिल मन कुछ हल्का हो गया था।
ज्यों ही उसने स्वयं को एकत्रित किया, उसके कान बाहर किसी शोर से गूंज उठे। धीरे-धीरे शोर साफ होता गया। वह अज्ञात भय से कांप उठा और बिस्तर पर बैठकर देखने लगा। साथ वाला बिस्तर खाली पड़ा था। बेला वहाँ न थी। पालने में पड़ा बच्चा मीठी नींद सो रहा था। वह कुछ देर उसे देखता रहा। आज ही तो जी भरकर उसने अपने नन्हें को देखा था।
उसने फिर देखा। बेला कमरे में न थी और बाहर शोरगुल था। रात वाला चेक वहीं गिरा हुआ था। उसने झुककर उसे उठाया और लपेटकर जेब में रख लिया। तेजी से उसने जूते पहने और बाहर निकल आया।
बरामदे में पांव रखते ही वह सिर से पांव तक कांप गया। मजदूरों की भीड़ कारखाने के मलबे के सामने काम में व्यस्त थी। उनकी आवाजों से कुछ न जान पड़ता था कि क्या माजरा है।
आनन्द तेज-तेज कदम बढ़ाता हुआ उधर बढ़ा। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी, जैसे कोई बार-बार संध्या का नाम ले रहा हो।
वह भीड़ के पास पहुँच गया। सामने सुंदर और नन्हें पाशा चिल्ला-चिल्लाकर मजदूरों का साहस बढ़ा रहे थे और सब मिलकर मलबे का ढेर साफ कर रहे थे।
सुंदर आनन्द को देखते ही मुस्करा दिया और चिल्लाया-
‘हमारी संध्या दीदी लौट आईं।’
मामू ने भी हाँ में सिर हिलाया और कहा-
‘आनन्द बाबू! मेरी बिटिया लौट आई।’
आनन्द अभी तक उलझन में पड़ा उनकी बातों को न समझ सका। वह वहाँ पहुँचने का प्रयत्न करने लगा, जो स्थान सबकी दृष्टि का केन्द्र बना हुआ था।
आनन्द को आते देख सब रास्ता छोड़कर एक ओर हो गए। भीड़ के हटते ही आनन्द के पांव एकाएक रुक गए और वह सामने पड़े ढेर को देखने लगा। जिस पर बेला खड़ी बेलचों से मिट्टी उठाकर मजदूरों की टोकरी में डाल रही थी।
आनन्द को देखते ही उसके हाथ रुक गए और उसने झट से बांह से चेहरे पर आया पसीना दूर करना चाहा। शीघ्रता से बांह पर लगी कालिख मुख पर लग गई-जैसे चांद पर दाग, आनन्द यह देखकर मुस्करा उठा। बेला ने भी उसका उत्तर मुस्कान में ही दिया।
आनन्द ने अनुभव किया कि प्रेम की वास्तविक विजय यही है। उसमें भी आज वैसे ही बलिदान और साहस की भावनाएँ थीं, जो उसने संध्या में देखी थीं। लोग सत्य ही कह रहे थे कि आज संध्या दीदी लौट आई थी।

आनन्द के लिए भी नया जीवन था। अंधेरे में मार्ग दिखाने वाली किरण-प्रसन्नता से उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े और पास जाकर उसका हाथ स्नेह से अपने हाथों में ले लिया और धीरे से उसके कान में बोला-‘यह क्या?’
‘आप तो कहते थे कि आपको दीदी की आत्मा चाहिए।’
शोर बढ़ता गया। बस्ती का हर व्यक्ति भारी-भरकम मशीनों को हटाने में व्यस्त था। सब अपने भाग्य का नवनिर्माण करने में लगे थे। आनन्द, बेला, अपाहिज मामू और सुंदर सब मजदूरों के संग लगे उनका हाथ बंटा रहे थे। अब वे संध्या के लगे पौधे को पहले से कहीं ऊँचा और हरा-भरा देखना चाहते थे, जिससे वह पुनः किसी तूफान की लपेट में न आ सकें।

