टेलीफोन नीचे रखते हुए संध्या सोफे पर बैठ गई और आनन्द के चिंतित मुख को देखने लगी। आनन्द ने उसे बीनापुर की बात सुनाई थी। वह बहुत परेशान था। उसे आनन्द का बर्ताव अच्छा न लगा था और वह उसे भला-बुरा कह रही थी। टेलीफोन सुनते ही वह खिल उठी-
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मौन को तोड़ते हुए आनन्द ने कहा-
‘कौन था?’
‘हुमायूं भाई।’
‘क्या कहता था?’
‘बेला लौट आई है।’
संध्या की बात सुनकर आनन्द के मुख पर प्रसन्नता की एक हल्की-सी रेखा प्रकट हुई और सांत्वना की लंबी साँस लेते हुए वह कहने लगा-‘क्यों, मेरा अनुमान कैसा रहा? मैं न कहता था कि वह अपने प्राणों से कोई भयानक खेल नहीं खेल सकती।’
‘ठीक है, किंतु कभी मानसिक स्थिति बिगड़ने से मानव भटक भी जाता है। मैं तो डर रही थी…’
‘कहीं क्रोध में किसी चोटी से कूदकर प्राण न दे दे।’ आनन्द ने बात पूरी करते हुए कहा।
‘हाँ, आप स्त्री के मन को क्या समझें।’
‘संभव है मैं न समझ पाऊँ, किंतु बेला के मन को खूब जानता हूँ।’
उसी समय बाहर एक गाड़ी रुकी और हुमायूं रूमाल से पसीना पोंछते हुए भीतर आया। दोनों लपककर उसकी ओर उत्सुकतापूर्वक नई खबर सुनने के लिए आगे बढ़े।
वह गंभीर और उदास दिखाई दे रहा था। दोनों उसके दाएं-बाएं आ बैठे और बेचैनी से उसे देखने लगे। हुमायूं वैसे ही मूर्ति बना बैठा रहा।
‘कुशल तो है?’-एक स्वर में दोनों ने पूछा।
हुमायूं ने कड़ी दृष्टि से दोनों को बारी-बारी देखा और फिर जोर से हँसने लगा। दोनों आश्चर्य से उसे देखे जा रहे थे। हुमायूं ने एक हाथ आनन्द के कंधे पर रखा और दूसरा संध्या के कंधे पर, फिर हँसने लगा।
‘आखिर क्या बात है?’ आनन्द ने उसकी हँसी काटते हुए पूछा।
वह एकाएक चुप हो गया, जैसे किसी ने चढ़ी हुई पतंग की डोर काट डाली हो।
‘हाँ भाई साहब, क्या बात है?’ संध्या ने प्रश्न को दोहराया।
‘जीत आनन्द की हुई। जिन्दगी में आज पहली बार उसने अक्ल से काम लिया।’
‘कैसी जीत?’
‘आज तुमने दोस्त! सही मायनों में बेला का दिल तोड़ा है, जिसकी तड़प से वह सख्त बेचैन है। आज उसे किसी चीज का होश नहीं। वह बेला, जो हमेशा गर्व से गर्दन उठाकर कहती थी कि उसने झुकना नहीं सीखा, आज औंधी पड़ी अपनी हार पर आँसू बहा रही है।’
‘कुछ कहा उसने?’
‘जुबान से कुछ नहीं, पर ताड़ने वाले कयामत की नजर रखते हैं।’ यह कहकर हुमायूं फिर से हँसने लगा, जैसे आज वह आनन्द पर बहुत प्रसन्न था।
हुमायूं, संध्या और आनन्द कोई नई युक्ति सोचने लगे, जिससे बेला फिल्मी दुनिया को छोड़कर अपने वास्तविक जीवन में लौट आए। उसे डाह में जलाने की योजना अपना रंग ला रही थी। संध्या जानती थी कि वह स्वयं इस खेल में बेला की आँखों से गिर जाएगी, किंतु एक दिन उसे अपनी भूल तो सुधारनी ही होगी।
दिन बीतते गए और बेला फिर से काम में लग गई। उसकी फिल्म समाप्त होने वाली थी। दिन-रात शूटिंग का प्रोग्राम रहने लगा और वह एकाग्रचित्त अपना काम किए जा रही थी। अब वह आनन्द को बिलकुल भूलकर इस नई दुनिया में खो जाना चाहती थी।
एक शाम शूटिंग के मध्य एकाएक बेला बेहोश होकर गिर पड़ी। हुमायूं उसे होश में लाकर घर ले आया। वह उसके मन की दशा को भली प्रकार समझता था। स्टूडियो के और लोग थकावट समझते, किंतु वह जानता था कि उसे कौन-सा घुन खाए जा रहा है, इसलिए वह कभी आनन्द के विषय में बात न करता।
दो महीने की अथक मेहनत के पश्चात् सपेरन की शूटिंग समाप्त हो गई। हुमायूं ने सेठ साहब से कह-सुनकर बेला का पूरा हिसाब चुकता करवा दिया कि कहीं ऐसा न हो कि फिल्म की असफलता के कारण उसे कुछ न मिल पाए। बेला भी हुमायूं की सहानुभूति और उसके उपकारों तले दबी हुई हर बात उससे पूछ कर करती। यदि वह कोई कड़वी बात भी कह देता तो बुरा न मानती। उसे विश्वास था कि हुमायूं ही केवल एक ऐसा व्यक्ति है, जो उसकी भलाई चाहता है।
शूटिंग समाप्त होने पर बेला के पास कोई काम न रहा। हर समय अकेले बैठे रहने से उसके मस्तिष्क में कई प्रकार के विचार चक्कर काटने लगे। वह बेचैन रहने लगी। जब वह बैठी-बैठी बहुत तंग आ जाती तो हुमायूं के यहाँ चली जाती। हुमायूं उसका पीला और उदास मुँह देखकर कुछ पूछना चाहता, पर कुछ सोचकर चुप रह जाता। वह हर समय यही प्रयत्न करता कि वह हँसे, खेले, प्रसन्न रहे।
अवकाश की घड़ियाँ बिताने के लिए उसने हुमायूं से मेकअप का काम सीखना आरंभ कर दिया। हुमायूं जानता था कि उसे ठीक मार्ग पर लाने का यही समय है। फिल्म अभी एडीटिंग में है और रिलीज होते ही यदि सफल हो गई तो बेला के नाम के झंडे गड़ जाएंगे और प्रोड्यूसरों का जमघट लग जाएगा। बेला की कीमत की बोलियाँ लगेंगी और फिर उसे प्रसिद्धि के अवकाश से खींचकर धरती पर लाना बहुत कठिन होगा।
एक दोपहर जब बाहर हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी। हुमायूं बेला को अपने स्टूडियो में मेकअप सिखा रहा था। वह मिट्टी की एक मूर्ति पर सफेद दाढ़ी से बूढ़े का मेकअप करने में व्यस्त था। बेला की साँस फूली जा रही थी और वह बार-बार हाथ उठाकर माथे पर आए पसीने को साड़ी के पल्लू से साफ करती।
अचानक बाहर बादलों की भांति गरज हुई और बेला भय से कांप गई। हुमायूं उसे देखकर मुस्करा दिया और पूछने लगा-
‘देखता हूँ आजकल तुम जरा घबराई-सी रहने लगी हो।’
‘नहीं तो, यों ही जरा डर गई थी।’
‘दुनिया ही ऐसी है, जहाँ हर घड़ी बच-बचकर चलना पड़ता है। तुम तो…’
‘आप रुक गए, ऐसा क्यों?’
‘कुछ भी तो नहीं।’
‘मैं देखती हूँ कि आप मुझसे कुछ पूछना चाहते हैं, किंतु हर बात आपके होंठों पर आकर रुक जाती है।’
‘तुमने ठीक जाना, कुछ पूछना था, लेकिन पूछ नहीं सकता।’
‘ऐसी क्या बात क्या है-पूछिए।’
‘वह बात, जो एक मर्द को औरत से नहीं पूछनी चाहिए।’
‘मैं समझी नहीं, आप साफ-साफ कहिए। भय से मेरा दिल…’
‘यही पूछना है कि तुम्हारे दिल के दर्द का क्या होगा?’
‘कैसा दिल का दर्द? कुछ भी तो नहीं।’
‘तुम मुझसे छिपा रही हो। ऐसी कश्ती की हालत मैं खूब समझता हूँ, जो भँवर में फंसी हो और उसे सहारा देने वाला दूर किनारे जा खड़ा हो।’
‘मुझे किसी सहारे की आवश्यकता नहीं।’ वह गर्दन अकड़ाते बोली।
‘यही तो तुम्हारी भूल है, सहारे और मदद के लिए तुम्हें किनारे पर खड़े आदमी को पुकारना ही होगा। वह कोई दूसरा नहीं, तुम्हारा ही खेवनहार है, वरना तुम डूब जाओगी।’
‘हुमायूं भाई! तूफान बहुत बढ़ चुका है, नाव को डूबने ही दीजिए।’
‘नहीं-नहीं, सहारा देनेवाले का क्या, वह कोई और पतवार थाम लेगा-डूबोगी तो तुम ही इस गहरे और भयानक मझधार में।’
बेला एक अज्ञात भय से कांप गई और फिर जरा-सी देर की निस्तब्धता को तोड़ते बोली-‘यह कवियों की-सी बात क्या छेड़ बैठे आप?’
‘इसलिए कि तुम्हारा खेवनहार आज किसी और किश्ती को खेने जा रहा है।’
‘मैं समझी नहीं, पहेलियाँ बूझने की अब मुझमें बुद्धि नहीं।’
‘तो सुनो, तुम्हारा आनन्द संध्या से मुहब्बत करता है।’
‘वह मैं जानती हूँ। मुझे क्या?’
‘लेकिन अब दोनों शादी करने वाले हैं।’
‘नहीं’-बेला की एकाएक चीख निकली, जो उखड़े साँस से कटकर रह गई, ‘नहीं ऐसा नहीं हो सकता-आनन्द ऐसा कभी नहीं कर सकता और फिर आप ही कहिए, मेरे होते हुए कानूनन वह दूसरा ब्याह कैसे करने लगा।’
‘तलाक लेना होगा।’, हुमायूं भारी आवाज को जमाकर बोला।
‘वह इतना सरल नहीं, हमारी अनबन का कोई प्रमाण भी तो होना चाहिए, कोई कारण भी होना चाहिए।’
‘उसके पास वह है।’
‘क्या?’ बेला ने झट पूछा।
‘वह घर-गृहस्थी की जिन्दगी चाहता है। उसका कहना है कि तुम बांझ हो, उसे औलाद चाहिए। औलाद के लिए कानून और समाज दोनों दूसरी शादी की इजाजत देते हैं।’
हुमायूं की जुबान से बांझ शब्द सुनकर बेला जल गई, उसके शरीर में अंगारे दहकने लगे, तो क्या अब आनन्द उसको ऐसा समझने लगा। मैं बांझ हूँ, उसे संतान की आवश्यकता है, संतान के लिए वह ब्याह रचा रहा है, वह इस आड़ में अपनी वर्षों से दबी प्रेम की चिंगारियों को हवा देना चाहता है, न जाने ऐसे कितने ही विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगे। उसके सामने आनन्द और संध्या मुस्कराते हुए आते और देखकर खिलखिलाकर हँसने लगते, वह घृणा से दांत पीसने लगी।

हुमायूं उसे अपनी उलझनों में खोया देखकर चुपचाप एक ओर पुस्तक लेकर बैठ गया। बेला हाथों में बूढ़े की दाढ़ी का मेकअप तार-तार करने लगी, उसे कोई सुध न थी, उसका मस्तिष्क नीलकंठ में घूम रहा था, जहाँ आनन्द और संध्या बैठे प्रेमालाप में मग्न थे।
‘मैं बांझ हूँ?’ बार-बार यह प्रश्न उसके मन में आता। उसके वश में होता तो अभी उसे खींचकर अपने यहाँ ले आती और उससे पूछती कि बांझ कौन है, चिंताएं जब सीमाएँ उलांघ जाती हैं तो मस्तिष्क पर एक पागलपन-सा छा जाता है, एक विकार सा-यही इस समय बेला की थी, जिसे लिए हुए वह कहीं जाने को तैयार होने लगी।
हुमायूं ने पूछा-‘कहाँ?’ परंतु बेला ने कोई उत्तर न दिया और चली गई। हुमायूं कुछ सोचकर टेलीफोन पर संध्या का नंबर मिलाने लगा।
बेला गाड़ी को तेज चलाती नीलकंठ की ओर बढ़ने लगी, आज उसका पागलपन उसी सीमा पर पहुँच चुका था, जहाँ किसी को सुध नहीं रहती।
नीलकंठ-भाग-32 दिनांक 28 Mar.2022 समय 10:00 बजे रात प्रकाशित होगा ।

