ganga - vishnu vivaah
ganga - vishnu vivaah

Hindi Katha: राधा और गंगा दोनों ही भगवान् श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुई थीं। इस प्रकार दोनों ही उनका साक्षात् स्वरूप थीं। एक बार गंगा देवी सुंदर रूप धारण कर भूमण्डल पर पधारीं । उनके सभी अंग रत्नों से अलंकृत थे । वे लज्जा से सिमटते हुए भगवान् श्रीकृष्ण के पास विराजमान हो गईं। भगवान् श्रीकृष्ण के अनंत स्वरूप ने उन्हें चेतनारहित-सा कर दिया था।

इतने में भगवती राधा अपनी गोपियों सहित वहाँ पधारीं । गंगा को श्रीकृष्ण के निकट बैठे देख वे क्रुद्ध हो गईं। वे भगवान् श्रीकृष्ण के पास जाकर निकट रखे एक सुंदर रत्नमय सिंहासन पर बैठ गईं। उन्हें देखकर भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्थान से उठे और हँसकर उनसे मधुर वार्तालाप करने लगे। राधा को रोष में देखकर गोपियाँ भयभीत हो गईं। उन्होंने राधा की स्तुति आरम्भ कर दी। परब्रह्म श्रीकृष्ण ने भी राधा की स्तुति की। यह देख गंगा भी श्रीराधा की स्तुति करने लगीं । वे भय से घबरा गईं और डरकर नीचे खड़ी हो गईं। देवी गंगा को भयभीत देखकर श्रीकृष्ण ने उन्हें अभयदान दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण से वर पाकर गंगा का भय दूर हुआ।

तब श्रीराधा ने किंचित रोष से भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा – “प्रभु ! आपको प्रेमपूर्वक निहारने वाली यह देवी कौन है? आपके मनोहर रूप ने इसे अचेत – सा कर दिया है। आप भी इसकी ओर देखकर मंद-मंद मुस्करा रहे हैं। कोमल स्वभाव की स्त्री होने के कारण प्रेमवश मैं इसे क्षमा कर रही हूँ । ‘

इतना कहकर राधा कुछ पूछने के लिए गंगा की ओर पलटीं। देवी गंगा योगविद्या में परम निपुण थीं। योग के प्रभाव से उन्हें देवी राधा का मनोभाव ज्ञात हो गया। अतः बीच सभा में ही वे अंतर्धान होकर अपने जल में प्रविष्ट हो गईं। तब सिद्धयोगिनी राधा ने योग द्वारा इस रहस्य को जान लिया और सर्वत्र विद्यमान देवी गंगा को अंजुलि में भरकर पीना आरम्भ कर दिया। ऐसी स्थिति में देवी राधा का अभिप्राय गंगा से छिपा न रह सका। अतः वे परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में जाकर उनके चरण-कमलों में लीन हो गईं।

राधा ने गोलोक, वैकुण्ठलोक तथा ब्रह्मलोक आदि सम्पूर्ण स्थानों में गंगा को खोजा, किंतु उन्हें वे कहीं दिखाई नहीं दीं। गंगा के अदृश्य होने से सर्वत्र जल का अभाव हो गया। जलचर मरने लगे। प्राणियों में जल के लिए हाहाकार मच गया।

तब ब्रह्मा, विष्णु, शिव, धर्म, इन्द्र, सूर्यादि देवगण और ऋषि-मुनि गोलोक में आए। उस समय उनके कण्ठ, होंठ और तालू सूख गए थे। तप के प्रभाव से उन्हें श्रीकृष्ण के दिव्य दर्शन प्राप्त हुए। वे सभी वैदिक स्तोत्रों से उनकी स्तुति करने लगे। भक्ति और श्रद्धा से उनके नेत्रों में आँसू भर आए। उनकी वाणी गद्गद् हो गई। तत्पश्चात् देवताओं एवं मुनियों की व्यथा बताने के लिए ब्रह्माजी परब्रह्म श्रीकृष्ण के निकट पहुँचे।

उस समय श्रीकृष्ण भगवती राधा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे । ब्रह्माजी ने परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण को देवताओं के वहाँ आने का प्रयोजन बताया। श्रीकृष्ण बोले – “ब्रह्मदेव ! मैं जानता हूँ, आप देवी गंगा को ले जाने के लिए यहाँ पधारे हैं, किंतु इस समय देवी गंगा शरणार्थी बनकर मेरे चरण-कमलों में छिपी हुई हैं; क्योंकि देवी राधा उन्हें पी जाने के लिए उद्यत हो गई थीं, इसलिए वे अत्यंत भयभीत हैं। यदि आप देवी राधा को प्रसन्न करके गंगा के भय को समाप्त कर दें तो मैं सहर्ष ही उन्हें आपको सौंप दूँगा।”

भगवान् श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर ब्रह्माजी अन्य देवताओं के साथ भगवती राधा की स्तुति करने लगे । ब्रह्माजी ने श्रद्धापूर्वक अत्यंत विनीत भाव से देवी राधा की स्तुति की। चारों वेदों के जनक ब्रह्माजी ने भगवती राधा का स्तवन करते हुए कहा – “हे भगवती ! गंगा आपके और श्रीकृष्ण के अंगों से उत्पन्न हुई हैं। आप दोनों वसंतोत्सव में पधारे थे। शिवजी के संगीत ने आपको मुग्ध कर दिया था। उसी अवसर पर ये द्रवरूप में प्रकट हुई थीं। अतः आप तथा श्रीकृष्ण के अंगों से उत्पन्न होने के कारण ये आपकी पुत्री के समान हैं और आप इनकी माता हैं । अतएव आप उन पर इतना क्रोध मत कीजिए।

ब्रह्माजी की स्तुति से प्रसन्न होकर राधा ने उनकी सभी बातों को स्वीकार कर लिया। तब गंगा श्रीकृष्ण के पैर के अँगूठे के अग्रभाग से निकलकर वहीं विराजमान हो गईं और गंगा की अधिष्ठात्री देवी जल से निकलकर शोभा पाने लगीं। ब्रह्माजी ने गंगा के जल को अपने कमण्डलु में भर लिया। शिवजी ने उस जल को अपने मस्तक पर स्थान दिया। तत्पश्चात् ब्रह्मा ने गंगा को राधा – मंत्र की दीक्षा दी। साथ ही राधा के स्तोत्र, कवच, पूजा और ध्यान की विधि भी बताई। गंगा ने बताए गए नियमों द्वारा राधा की पूजा की और फिर वैकुण्ठ के लिए चल पड़ीं।

-“वैकुण्ठ लोक में पहुँचकर ब्रह्माजी ने श्रीविष्णु से कहा ‘भगवन् ! भगवती राधा और श्रीकृष्ण के अंगों से प्रकट हुईं ब्रह्मद्रवस्वरूपिणी देवी गंगा इस समय एक सुशीला देवी के रूप में विराजमान हैं। दिव्य यौवन से सम्पन्न होने के कारण उनका शरीर परम मनोहर प्रतीत होता है। इस परम पवित्र देवी में क्रोध और अहंकार लेशमात्र भी नहीं हैं। हे प्रभु! मेरी प्रार्थना है कि इस सुरेश्वरी गंगा को आप अपनी पत्नी बनाएँ। परब्रह्म श्रीकृष्ण ने इनका विवाह आपसे ही निश्चित किया है। आपकी उत्पत्ति भगवान् श्रीकृष्ण के अंश से हुई है, इसलिए ये देवी भी केवल आपका ही वरण करना चाहती हैं । “

ब्रह्माजी की बात सुनकर विष्णु गंगा को स्वीकार करने के लिए सहमत हो गए। ब्रह्माजी ने गंगा को श्रीविष्णु के निकट विराजमान कर दिया और स्वयं वहाँ से चले गए। तब भगवान् श्रीविष्णु ने विधिनुसार विवाह करके गंगा देवी को ग्रहण कर लिया और वे उनके प्रियतम पति बन गए। इस प्रकार गंगा श्रीहरि के साथ शोभा पाने लगीं। भगवान् के चरण-कमल से प्रकट होने के कारण गंगा देवी को ‘विष्णुपदी’ भी कहा गया।