Hindi Kahani: एकतरफा भावनाएं अक्सर रेगिस्तान में चमकीली धूप सरीखी होती है, जो पानी का सा आभास देती है। ऐसी ही मृगतृष्णा ज़ाहिर करती है ये कहानी-
मैं उससे कल मिलनेवाला था, लेकिन जब पता चला कि वह लखनऊ से लौट चुकी है तो उत्सुकता बढ़ गई। ऐसे भी मैं सोच रहा था कि उससे मिलने की घड़ियां जितनी जल्दी हो सके, करीब आ जाएं। कल रात ठीक से नींद भी नहीं आई। मैं सोचता रहा कभी उसके बारे में, कभी अपने बारे में। इधर मेरी डायरी के पन्ने भी उसके प्रति प्यार के शब्दों से भरने लगे। फिर भी उसके प्रति मैं पूरी तरह आश्वस्त तो नहीं था, लेकिन मुझे यकीन था- जैसे मैं अपनी सोच में ठीक हूं। उससे मिले बहुत दिन भी नहीं हुए। शायद दो महीने पूर्व उसे पहली बार देखा था। आकर्षक चेहरा, गोरा रंग, सादगी और चेहरे पर आकर्षण मिश्रित सौम्यता। पहली ही नजर में उसके प्रति मैं न जाने कितनी कल्पनाएं कर बैठा था। ऐसा लगा था, जैसे मेरी वर्षों की तलाश पूरी हो गई है। इस तलाश में खुशी, उदासी और संवेदना के बीच तन्हाई बोलने लगी। तन्हाई में कोमल भावनाएं उभरने लगीं। सपनों का घरौंदा सजने लगा। उस दिन की डायरी में मैंने लिखा-
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‘कल से पुष्पगंधा काफी याद आई है। गंभीरता से सोच रहा हूं मैं उसके बारे में। मेरे मन में एक अजीब चाहत उभरी है उसके प्रति। उसका निश्छल स्वभाव, उसके उत्कृष्ट संस्कार, उसकी परिष्कृत शिक्षा, उसका सुंदर व्यवहार, उसके चेहरे का भोलापन, उसकी परिस्थितियां, उसके गाए गीत… ये सब किसी इंद्रधनुष की तरह मेरे मन के आकाश में छा गए हैं। हर दिन की डायरी में बेतरतीब ढंग से लिखा करता हूं, मगर उस दिन की डायरी के पन्ने को मैंने कई रंगों से सजाया। उसे देख कर, उसके प्रति सोच कर, नई-नई कल्पनाएं कर मेरे मन में अजीब तरह की खुशी दौड़ गई। अब मेरी हर सोच में वह शामिल थी। अब लगने लगा कि उसे कब देखूं, कब बातें करूं।
अगली मुलाकात चार दिनों के बाद हुई। उसी दिन पता चला कि उसे वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला है। खुशी हुई। बधाई देने वालों में सबसे आगे मैं ही था।
उसके करीब होने का एहसास इतना प्रबल था कि मैं खुद गीत बनने लगा। मेरी गतिविधियों में परिवर्तन आया। सुबह की प्रथम प्रस्फुटित किरणों के साथ मैं भी प्रात: भ्रमण को निकलने लगा। उसके ख्यालों की ताज़गी से मेरा मन उत्साह और लगन से भर उठा। हर दिन सूरज की प्रथम किरणों को उभरते देख लगता- जैसे वह सज-धजकर मेरे जीवन में प्यार की नई रोशनी बिखेरती मुस्कुराती हुई चली आ रही है। मैं सोचने लगा इस चांदनी-सी सूरत, फूलों जैसे चेहरे, ओसकण जैसे भाव और सूरज की किरणों जैसे व्यक्तित्व को क्या अॢपत करूं। उसके सामने जैसे सब कुछ फीका था। मैंने उसके लिए शब्द बटोरे। उसके नाम को सजाया- ‘पुष्पगंधा! नववर्ष की नव सफलता पर सस्नेह- ‘उज्ज्वल।
‘सस्नेह शब्द को मैंने बार-बार पढ़ा। सोचा ‘सप्रेम लिख दूं, लेकिन प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति में संकोच हुआ। सोचा, सिर्फ लिख दूं ‘सफलता पर भेंट लेकिन यह शब्द शुष्क लगा। अंतत: ‘सस्नेह को ही लिख कर सजाया। सोचा ‘सस्नेह मध्यममार्गी शब्द है, जिसमें प्यार के अंकुरित भाव भी हैं और लोगों की नजरों से बचने के लिए ‘कवच भी।
अपने शब्दों को उसे अॢपत करने के बाद भावों को मैंने सार्थक होते पाया। खुशी में बीत गया वह दिन। नींद नहीं आई उस रात। सोचता रहा उसके बारे में। डूबता गया उसके ख्यालों में। मुझे विश्वास हो चला था कि उसे मेरा प्यार स्वीकार है। अब मैं नए सिरे से सोचने लगा। एक नई तरुणाई का प्रवेश हुआ मेरे यौवन में।
कल्पनाओं की तस्वीर को यथार्थ के रंग में रंगने की इच्छा बलवती हो उठी। सोचा अब क्यों न प्रत्यक्ष ही बातें कर लूं, लेकिन फिर वही संकोच, वही झिझक, वही आशंका। काफी सोच-विचार के बाद मैंने उसके नाम
खत लिखा-
‘मेरा प्रेममय स्नेह तुम्हें! मेरे अंधेरे जीवन में तुम चांदनी बनकर उभरी हो। मैं तुम्हारे साथ मिलकर एक नई जि़ंदगी शुरू करना चाहता हूं… जिसमें सागर से भी गहरा प्यार हो, आकाश से भी ऊंची सफलताएं हों, सूरज से भी ज्यादा तीव्र रोशनी हो, फूलों से भी ज्यादा मनमोहक खुशबू हो…। मैं दिल की गहराइयों से तुम्हें प्यार करने लगा हूं। प्यार की देवी के रूप में मैं तुम्हारी पूजा करना चाहता हूं। क्या तुम्हें मेरा प्यार और मेरी पूजा स्वीकार है? उत्तर की प्रतीक्षा में- ‘उज्ज्वल।
गोधूली शाम की वह बासंती बयार कितनी सुखद थी। वह आई। मन खुशी से झूम उठा। तुम मेरी ही तो हो… सबसे अच्छी… सबसे उत्कृष्ट… सबसे मनमोहक! क्यों न खुश होकर गा उठू मैं! पत्र मैंने उसे अॢपत किया। उसके चेहरे पर घबराहट मिश्रित मुसकान थी। मैं खुश हुआ। मैंने देखा उसने पत्र पर एक नजर डाली। चेहरे की मुस्कान कुछ और भी मुखर लगी। मेरा मन उत्साह से भर उठा। शाम की लाली गा उठी प्यार के गीत।
दो दिनों के बाद पता चला कि वह लखनऊ गई है। मैं बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा करने लगा और जब आज पता चला कि वह लखनऊ से लौट चुकी है तो आज ही मिलने का फैसला किया। मन में कई भ्रांतियां, कई ठोस निर्णय,
कई आशंकाएं उभरीं और निस्तेज हो गईं। मन के ख्यालों की चांदनी स्वत: झिलमिलाने लगी।
तरह-तरह की भावनाओं में डूबता-उतरता शाम को मैं उसके घर पहुंचा। दिल की धड़कन बढ़ गई। कभी खुश होता, कभी आशंकाएं घेर लेतीं। आज निष्कर्ष निकल जाना चाहिए। कल से एक नई जिंदगी शुरू कर दूंगा।
उसके घर के आस-पास गुलाब और गेंदे के फूल खिल कर सजे हुए थे। सोचा यहां होता तो हर रोज उसे एक फूल अॢपत करता और कहता, ‘यह फूल हमारे प्रेम का प्रतीक है। इसकी खुशबू तुम हो। चाहा उसके लिए एक फूल तोड़ लूं लेकिन किसी ने देख लिया तो…? छत की ओर झांका। कहीं वह वहां खड़ी मेरा इंतजार तो नहीं कर रही? लेकिन सिर्फ नीले आकाश के सिवा कुछ नजर नहीं आया। सोचा शायद खिड़की से झांक रही होगी, मगर खिड़कियां बंद थीं।
भय मिश्रित आशंका से मन घबरा उठा। यही सब सोचते-सोचते उसके दरवाजे पर
आ गया। बाहर ही बैठी उसकी मां मिली। वहीं बैठ गया।
कुछ ही क्षणों के बाद वह आई। उदास-सी, परेशान-सी। लगा उसका स्वास्थ्य गिर गया है। सोचा, प्यार की बात है, ऐसा होता ही है। क्या मैं उदास और परेशान नहीं था? खामोशी को तोड़ते हुए मैंने कहा, ‘सफलता पर मेरी बधाई। अखबार की कटिंग मैंने उसकी ओर बढ़ा दी, लेकिन उसके चेहरे पर कोई खुशी या उत्सुकता नहीं थी। अनमने ढंग से उसने ‘कटिंग को उठाया, एक बार देखा और वहीं मां के पास रख दिया। मुझे बहुत दु:ख हुआ ऐसा देख कर।
मां ने उसे मेरे लिए चाय बनाने के लिए कहा। मैंने मना कर दिया। चाय पीने की इच्छा नहीं थी लेकिन तब तक पुष्पगंधा अंदर जा चुकी थी और मना करने के बावजूद मेरे लिए चाय बनाकर ले आई। चाय का प्याला मेरे हाथ में देने के बाद वह उदास नजरों से मुझे घूरती रही। मां से नजरें बचा कर मैं भी बार-बार उसे देख लेता। उसे उदास देखकर मैं बेचैन हो उठा। इस बीच वह कई बार अंदर गई और बाहर आई। अंतत: निराशा से ऊबकर मैं चलने लगा। मां को मैंने प्रणाम किया। इस बीच वह अंदर से डायरी उठा लाई। डायरी में एक कागज का टुकड़ा नजर आया। सोचा उसका खत होगा। डायरी को मैंने सीने से लगा लिया। मां घर के अंदर चली गई। मैं बाहर आ गया।
अभी चार-पांच कदम ही आगे बढ़े थे कि पीछे से उसकी आवाज आई, ‘सुनिए! कदम रुक गए। धड़कन तेज हो गई। घबराहट बढ़ गई। उसकी सांसें जैसे फूल रही थीं। बेहद घबराई-सी थी वह। घबराहट में ही टूटे-जुड़े शब्दों में वह बोली, ‘आई एम सॉरी…! मैं तो किसी… और के साथ प्यार…! इतना कह कर वह नजरें झुकाए खामोश खड़ी रही। मैं मूक! स्तब्ध! बेचैन! परेशान! यह क्या? मैं क्या उत्तर दूं? मुझे क्रोध-सा आया, लेकिन चेहरे पर बिना कोई भाव लाए मन ही मन सोचा कि उसने यह बात उस वक्त क्यों नहीं बताई, जब मैंने खत दिया था और जब प्यार की भावनाएं प्रकट की थीं?
थोड़ी देर तक मैं आश्चर्य से उसे देखता रहा। अचानक मेरे मुंह से निकला, ‘कोई बात नहीं! अच्छा हुआ जो आज तुमने बता दिया, अन्यथा मैं…! खैर, आज के बाद तुमसे कभी नहीं मिलूंगा। और मैं उसकी ओर एक नजर डालकर लौट पड़ा। उसके चेहरे पर परेशानी और घबराहट नहीं थी अब।
मैंने देखा गुलाब के फूल मुरझा गए थे…! लंबे-लंबे पेड़ों की परछाइयां और बड़ी हो गई थीं। नीला आकाश धुंधला पड़ गया था। खिड़कियां बंद थीं। दरवाजे खामोश थे।
मैंने डायरी खोली। उसमें पड़ा कागज का टुकड़ा मेरा ही खत था। खत को फिर से पढ़ने की इच्छा नहीं हुई। फाड़ कर वहीं फेंक दिया। शाम का धुंधलका घना हो गया था। मैं शांत और स्थिर भाव से लौट चला घर की ओर, कल से एक नई जि़ंदगी शुरू करने के लिए!!
