दो कवि मित्र थे। एक बहुत स्वाभिमानी था और इसी स्वाभिमान के चलते बहुत अभावों में जी रहा था। जबकि दूसरा मित्र बहुत अवसरवादी था और किसी तरह जुगाड़ जमाकर राजा के दरबार में राजकवि बन गया था। एक दिन वह अपने निर्धन मित्र के पास पहुँचा।
उस समय वह दाल के साथ रोटी खा रहा था। राजकवि उससे बोला कि यदि तुम मेरी तरह बड़े लोगों की चापलूसी करना सीख लेते तो आज इस तरह सिर्फ दाल-रोटी खाकर गुजारा न करना पड़ रहा होता…। इस पर स्वाभिमानी कवि मुस्कराकर बोला कि यदि तुमने मेरी तरह दाल-रोटी खाकर गुजारा करना सीख लिया होता तो आज अमीरों की चापलूसी करते हुए न जीना पड़ता।
सारः आत्मसम्मान गंवाकर पाई गई कोई भी वस्तु सच्चा सुख नहीं देती।
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