Grehlakshmi Ki Kahani: इस विश्वविद्यालय में सिद्धार्थ को आए करीब महीने भर हो रहे थे। ये महीने भर उसके लिए बीस बरस से भी अधिक भारी पड़ रहे थे। करीब तीस बरस बाद आज उसी प्रांगण में वह खड़ा था जहां बरसों पहले अनूठे रंगमहल के ताने-बाने बुने थे उसने। वे भी क्या दिन थे उसके, सतरंगी उड़ान में न दिन का पता चलता था न रात का। रोज नये दोस्त, रोज नयी शरारतें लेकिन नहीं बदला तो एक वह सांवला-सा चेहरा। परिधि नाम था उसका, बड़ी गहराई से उसे निहारा करती। न जाने सागर-सी गंभीरता कहां से मिली थी उसे। सिद्धार्थ ने तो कभी सोचा भी नहीं था कि वे सुनहरे दिन कभी पंख लगा कर यूं फुर्र से उसकी थाती से निकल भागेंगे। सच वह कितना बेवकूफ था। सोचा था, यही दुनिया है उसकी, यही उसका संसार। बस इसमें और कुछ जोड़ने या घटाने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। वह उसी परिधि में जीवन भर के लिए सिमट जाना चाहता था लेकिन ऐसा हो न सका, नियति को शायद यह स्वीकार्य नहीं था।
क्लर्क रजिस्टर लेकर खड़ा था। लेक्चर का समय हो गया था। यथार्थ की धरातल पर उतरना सिद्धार्थ के लिए बहुत मुश्किल हो रहा था। इन महानगरीय नौजवानों को समझने में अभी वह सक्षम नहीं हो पा रहा था। अपने छात्र जीवन में उसे भी बहुत शरारती माना जाता था लेकिन उन दिनों शरारत में भी एक अदब हुआ करती थी। वह तो आज भी उन नौजवानों में अपने आपको और परिधि को ढूंढा करता। सारे बच्चे शोर कर रहे थे।
नई नौकरी, नया व्यवस्था, नये छात्र, नये लेक्चरर, अगर कुछ नया नहीं था तो परिधि से जुड़ी हुई यादें। अपने ही विश्वविद्यालय में नौकरी ज्वाइन करने की बात सुनकर चहक उठा था वह। वहां से जुड़ी बहुत सारी स्मृतियां, मधुर कल्पनाएं, बहुत कुछ संजो कर रखा था उसने बरसों तक।
इंसान तो सचमुच मुसाफिर है। आता है और चला जाता है लेकिन कहां जाएंगी ये हॉस्टल की खिड़कियां, ये क्लास रूम, ये बेंच-डेस्क, हर जगह पर छाप पड़ी थी सिद्धार्थ के जीवन की।
इन खिड़कियों से कभी बड़ी बेसब्री से हर सुबह इंतजार किया करता था परिधि का। आज भी उसे लगता है कि उन खिड़कियों के पीछे वह मौजूद है और पल-पल इंतजार में है उस परिधि के जो उसके जीने की वजह है। एक ऐसा इंतजार जो कभी खत्म नहीं होगा। काश! वह कभी सामने आ जाए।
परेशान था वह। क्या करे, यहां रहे या कहीं दूसरी जगह अपना ट्रांसफर करवा ले। अपने कमरे में आने के बाद भी वह अपनी ही उलझनों में खोता चला जाता था। आज भी रेडियो सुनना उसे उतना ही पसंद था। परिधि के दिए हुए रेडियो से आज भी वही खुश्बू आती है जो बरसों पहले उसने कभी महसूस की थी। आधी रात की नीरवता उसे विचलित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। ‘तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं…।
‘ऐ सनम जिसने तुझे चांद-सी सूरत दी है… रेडियो की मद्धिम धुन हवा में तैर रही थी। सिद्धार्थ को घुटन-सी महसूस हो रही थी। उठकर ठंडा पानी पिया, रेडियो बंद कर सारी रात ख्यालों में खोया रहा। उसे लगा वह बर्दाश्त नहीं कर पाएगा यह सब। परिधि के दिए सारे गिफ्ट तो फेंक दिए थे उसने। यह रेडियो पता नहीं क्यों नहीं फेंक पाया था वह। जब परिधि ही उसके पास नहीं तो उसकी निशानियां क्यों भला।
आज भी वह भूल नहीं पाया था जब सारांश ने कॉलेज में घुसते ही उससे कहा था, ‘जानते हो, परिधि की शादी हो रही है आश्चर्य है तुम्हें कुछ पता नहीं है। अंदर तक चुभ गयी थी उसकी बातें और उसकी तिरछी निगाहों का मजाक। रात भर सो नहीं पाया था वह। तो क्या उसका जीवन, उसकी परिधि अपना द्वार तोड़ कर उसके जीवन का केन्द्र बिंदु अपना स्थान बदल लेगी? क्या उसकी दुनिया में कुछ घटाया या बढ़ाया भी जा सकेगा। रात भर सो नहीं पाने के कारण क्लास लेने में भी उसका मन नहीं लगा। कुछ विशेष नहीं पढ़ा पाया वह। उसकी सोच को तब वास्तविकता का एहसास हुआ जब एक गंभीर आवाज कानों से टकराई। ‘सर! मैं कुछ प्रश्नों का समाधान चाहती हूं आपसे। क्या आप मेरी सहायता करेंगे?
सिद्धार्थ को लगा जैसे कोई भूली सी बेहद अजीज चीज उसे याद आ गई हो। ऐसा क्या है इस गंभीर आवाज में जो किसी भूली-बिसरी यादों को झकझोर जाती हो।
‘श्यामली, मेरा नाम है सर। नहीं चाहते हुए भी पलटना पड़ा उसे। ‘अच्छा, कहां रहती हो? पिताजी क्या करते हैं?
उत्तर से उसके आहत हृदय को शांति नहीं मिली। फिर ऐसा क्या था श्यामली में जो बार-बार परिधि की याद दिलाता था और वह उसकी ओर खिंचता चला जा रहा था। हिन्दी साहित्य के प्रथम वर्ष की छात्रा से आखिर वह क्या चाहने लगा। क्यों उसे सुनना अच्छा लगता है। क्यों हर सुबह उसका बेसब्री से इंतजार रहता था। आखिर क्या ढूंढ़ रहा था वह श्यामली में। क्या अपनी परिधि को, कैसी बेवकूफी है, कैसा आश्चर्य।
यह कैसा भ्रम है? कई बार उसके जी में आया था कि पता करे आखिर परिधि कहां है? किसी ने बताया था कि वह अभी दिल्ली रहती है। पर क्यों जाये वह दिल्ली? जब परिधि ने एक बार भी उसका हाल जानने की कोशिश नहीं की। कभी पलट कर नहीं देखा तो वह क्यों मरा जा रहा है। कभी-कभी सिद्धार्थ को इच्छा होती कि सब कुछ छोड़ कर कहीं दूर चला जाये, पर कहां? अपने आप से कब तक भागे वह, आज तक यह तय नहीं हो पाया। उसका दिल करता जाकर परिधि से खूब लड़े वह। रूठ जाए उससे, पर क्या फर्क पड़ता उसके रूठने से। किस अधिकार से लड़े और रूठे वह, क्या लगती है परिधि उसकी। यह सब सोच कर वह और बौना हो जाता।
रक्षाबंधन से कुछ पहले के दिन थे। कॉलेज और हॉस्टल के सारे लड़के उस रेशमी धागे के बंधन में लिपटने के आकर्षण से खिंचे अपने-अपने घरों को जा रहे थे। कुछ प्यार, कुछ मनुहार लिए लेकिन श्यामली, वह क्यों अकेली बच गई। कॉलेज में उसे देख कर आश्चर्य हुआ सिद्धार्थ को।
‘अरे श्यामली! तू घर नहीं गई रक्षाबंधन में? कुछ देर तक तो वह अपलक निहारती रही फिर नजरें झुका कर धीरे से कहा, ‘सर! मेरा कोई भाई नहीं है।
सिद्धार्थ को लगा जैसे श्यामली की डबडबाई आंखों में उसके अपने आंखों के भी कुछ मोती घुलमिल कर एकाकार हो गये थे। अगले दिन एक लिफाफा श्यामली को थमाते हुए उसने कहा था, ‘फिर नहीं कहना कि मेरा कोई भाई नहीं, और जो भी पढ़ना- समझना चाहती हो बेझिझक पूछ सकती हो।
न जाने क्या मिल गया था श्यामली को, कौन-सी थाती, कौन-सा अधिकार, उस दिन से बस हर बात में, सर ये, सर वो, बहुत आश्चर्य की बात है। यह लड़की तो इतना बोलती नहीं थी, अब क्या हुआ इसे।
बरस पर बरस बीतते रहे, श्यामली आज भी वही की वही थी। निरी बुद्धु और निश्छल, निष्पाप। वह कभी समझ भी नहीं पायी कि सिद्धार्थ को उसके वजूद से परिधि की खुश्बू आती है। जब भी वह सर-सर की रट लगाती सिद्धार्थ को एक अजीब सी झनझनाहट होती और वह सिहर जाता। उसे अपने आप पर ग्लानि होती, क्या कर रहा है वह? अपने अतीत को वर्तमान पर थोपने के लिए क्यों व्यग्र है वह? आज परिधि का अपना परिवार है, बच्चे हैं, एक बसी-बसाई गृहस्थी है, फिर यह मृगतृष्णा कैसी?
रात बहुत हो चुकी है। रेडियो सुनने की पुरानी आदत उसकी गई नहीं, ‘जाने कहां गए वो दिन कहते थे तेरी याद में नजरों को हम बिताएंगे… पुराने गीतों के साथ पुरानी यादों के पन्ने खुल जाना, पुरानी गांठे उभर आना, न जाने कौन-सा अनसुलझा रिश्ता है। सिद्धार्थ को लगा एक असीम वेदना से वह जकड़ा जा रहा है जो उसे खुल कर जीने नहीं दे रही। इस तरह तो वह घुट-घुट कर जीने के लिए बाध्य हो जाएगा। बीसों बरस तो काट दिया उसने परिधि के बिना। अब और कितना, अब तो विराम चिह्न लगना ही चाहिए।
एक दिन वह ‘रश्मिरथी पढ़ा ही रहा था कि अचानक श्यामली क्लास में आई, ‘सर! आपसे कुछ समझना है। सिद्धार्थ ने एक तरह से अनदेखा करते हुए कहा, ‘अब तो मैं तुम्हारे क्लास में नहीं पढ़ाता, जाकर मिश्रा सर से पूछो, और सुनो आगे से उनका क्लास छोड़ कर मेरे पास मत आया करो।
श्यामली रुंआसी होकर चली गई थी। सिद्धार्थ उसे तब तक देखता रहा जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गई। आखिर उसने ऐसा क्यों कह दिया? क्यों नजरें चुराता है उससे? किस बात से डरता है? सिद्धार्थ ने महसूस किया कि वह अंदर से बहुत बड़ा कायर है। वह श्यामली से डरता है, उससे बचना चाहता है। कहीं उसके अंदर की सच्चाई श्यामली पर जाहिर न हो जाये। फिर कैसे मिला पायेगा वह नजरें? कैसे संभाल पाएगा वह उसे? क्या कहेगा उससे?
रात बीत चुकी थी। सूरज की किरणों के रेशमी एहसास से सिद्धार्थ के मन में गुदगुदी सी हुई। आंखें खुली तो वर्षा से धुली-धुली किरणें बड़ी प्यारी लगी उसे। एक मीठी अंगड़ाई से उसका तन-बदन टूटने लगा। कहां-कहां से घूम आया था वह रात भर स्वप्न में। याद कर एक सिहरन सी हो आई। आईने से भी नजरें मिलाने में शर्म आने लगी उसे। रात भर में ही कैसी गुलाबी सी रंगत चारों ओर छा गई है।
जरूरी नहीं, हम अपने चाहने वाले के हर पल करीब ही रहें। दूर ही से सही उसकी खुश्बू महसूस कर सकते हैं। सिद्धार्थ ने अपने आपको बहुत मजबूत किया। उसके दिलो-दिमाग में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ। उसे अब बड़ी निश्चिन्तता हो रही थी। आज उसे रूठी हुई श्यामली को मनाना भी था। आखिर वह उसकी छात्रा कम-बहन-कम, दोस्त ज्यादा है। एक प्यारी-प्यारी, भोली-सी दोस्त। जिस पर उसके भविष्य की सारी खुशियां न्योछावर थीं।
बरस-दर-बरस जिंदगी: Grehlakshmi Ki Kahani
